वर्ष - 30
अंक - 2
09-01-2021


– वासुकि प्रसाद ‘उन्मत्त’

हैं डटे हिमालय सा किसान आकाश की तरह हो विशाल
पृथ्वी सा होकर धैर्यवान दृढ़ संकल्पित ज्योतित मशाल
है खिसकती जा है रही उनके पैरों के नीचे से जमीन
काले कृषि कानूनों से वे आहत विषण्ण हैं खिन्न दीन
वे चले घरों से यह कहकर ‘काले कानून मिटायेंगे
हो जायेंगे लड़ते शहीद पर नहीं हार घर आयेंगे
आयेगी हमारी जय हमसे पहले होकर के सिंहनाद
अथवा लाशें आयेंगी करोगे शहीदों सा हम सब को याद’

‘मरना दोनों ही जगह में है, घर में रह भूखों मरना क्या
यह मृत्यु अवश्यम्भावी है इस मौत से भला डरना क्या
हम न्याय के लिए चल हैं पड़े तानाशाही को झुकायेंगे
हम भगत सिंह वाली परम्परा की मिसाल बन जायेंगे’

ट्रैक्टर ट्राली की फौज सहित चल पड़े हर तरफ से किसान
जैसे हो भीष्म प्रतिज्ञा चलती जन-जन में हो मूर्तिमान
अगणित झंडे बैनर लेकर साल साल भर का ले के रसद
तम्बुओं को वाहनों पर लादे ख़ुद भी उनपर बैठे हुए लद

भौंचक धरती आकाश चकित देख कर इतना विस्तृत प्रयाण
सत्ता ने खोद डाली सड़कें ठेंगे पर रखके संविधान
भारी-भारी बोल्डरों से हरियाणा की सीमा दी वो पाट
डट गए मोर्चा लेकर के वहीं बलवीर सिक्ख बलवीर जाट

कंप रहा दिसंबर शीत में था उसपर पानी की बौछारें
गोले पर गोले अश्रु गैस के धुंध में इन्कलाबी नारे
बेरहम लाठियों के प्रहार ऊर्जा में तने लोहित शरीर
छेदते तनों को बरछी से बह रहा था बर्फीला समीर

हर ओर लगे थे बैरिकेड्स खाकी वर्दी बादल जमाव
तोड़ते उसे कृषकों का नद चल पड़ा प्रलय का हो बहाव
गाजे-बाजे के साथ गीत भर रहे थे उनमें ओज जोश
सत्ता बेबस असहाय ठगी बस ताक रही थी खो के होश

यूपी समेत भारत के हर हिस्से से निकल पड़े किसान
‘काले कृषि कानून वापस लो’ के नारे से गुंजायमान
हर जगह वही धींगा-मुश्ती सत्ता का झेलते प्रलय क्रूर
लाखों की संख्या में हर दिन बढ़ रहे हैं हर डर को कर दूर

दिल्ली को घेर रहे धीरे धीरे, फिर दे हैं रहे ढील
हो ताकि नहीं जनसाधारण को किसी तरह की भी मुश्किल
सत्ता है चला रही वार्ताओं का खाली दौर पर दौर
लेकिन असली मुद्दे पर वह कर रही नहीं है तनिक गौर

देखा हमने इन आंखों से संभवतः देश में प्रथम बार
सत्ता काले कानून के पक्ष में चला रही है जी प्रचार
आंदोलन को पाकिस्तानी खालिस्तानी कह रही न थक
माओवादी प्रेरित चीन से जाने क्या-क्या झूठ रही है बक

पर फर्क नहीं इससे कुछ भी पड़ रहा है जनसैलाबों पर
अपनी तानाशाही दरिंदगी में सत्ता नित रही है घिर
इस क्रूर ठंड में वर्षा की इन पर पड़ रही है क्रूर मार
तम्बुओं में पानी का जमाव लंगर पर वर्षा की बौछार

चालीस खो चुके शांतिपूर्ण आंदोलन करते ठिठुर प्राण
हैं कई कगारों पर इसके पर सुलग रहा है स्वाभिमान
सत्ता के दुष्प्रचार से तंग उसकी मशीनरी को खदेड़
है रही आम जनता हो क्रुद्ध जारी है सत्ता का मुठभेड

जैसे हो कच्छप का अवतार जैसे हो वामन का अवतार
हर दिन आंदोलन का होता ही जा है रहा दृढ़ सुविस्तार
अद्भुत इनकी है व्यूह रचना अद्भुत है इनका अनुशासन
अद्भुत लाखों पर इनकी पकड़ अद्भुत इनका रण संचालन

इनको इनके नेताओं को विप्लवी हैं लाखों लाख सलाम
इनको इनके नेताओं को मन कर है रहा सादर प्रणाम
ये जनता की मानवीय शक्तियों के प्रतीक हो रहे उभर
ये हैं जनता के अन्नदाता हैं रीढ़ हैं सब इनपर निर्भर