बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय! जिस हड़बड़ी में सोचे-समझे बिना सर्वोच्च न्यायालय ने प्रशांत भूषण द्वारा किये गये दो ट्वीटों को अदालत की अवमानना का दोषी ठहरा दिया, उससे यही कहावत याद आती है. अदालत में दो सुनवाइयों के बाद भी सर्वोच्च न्यायालय उन दो अपराधी ट्वीटों के लिये कोई उपयुक्त सजा नहीं ढूंढ पाया है! एक ऐसा मामला, जिसको सर्वोच्च न्यायालय ने, निस्संदेह रूप से स्थापित कानूनी प्रक्रियाओं का उल्लंघन करते हुए, स्वतः संज्ञान में लिया था, और तुरत-फुरत में प्रशांत भूषण को दोषी ठहरा दिया, यह यह देखकर बड़ा अजीब सा लगता है कि अदालत एक ऐसे आदमी से क्षमा मांग लेने की गुजारिश कर रही है जिसको वह खुद ही दोषी ठहरा चुकी है.
जिस कठिन स्थिति में फंसकर जस्टिस अरुण मिश्रा ने ‘उपयुक्त सजा’ देने का निर्णय सुनाया था, संभवतः उससे ही प्रशांत भूषण के खिलाफ ‘अदालत की अवमानना’ के फैसले की असमर्थनीय प्रकृति साप झलकती है. विडम्बना यह है कि 25 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय की उसी बेंच ने प्रशांत भूषण के खिलाफ एक और ‘अदालत की अवमानना’ के मामले की सुनवाई की, जो 2009 में प्रशांत भूषण द्वारा ‘तहलका’ को दिये गये साक्षात्कार के एक पुराने मामले को लेकर था, जिसमें उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के आधे से ज्यादा पूर्व न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था, और बेंच ने तय किया कि इस मामले को 10 सितम्बर को होने वाली सुनवाई के लिये एक उपयुक्त बेंच को भेज दिया जाये, और उस समय तक जस्टिस अरुण मिश्रा खुद ही अवकाशप्राप्त हो जायेंगे.
प्रशांत भूषण के खिला दो ट्वीटों के जरिये अदालत की अवमानना के मामले की कहानी ने भारत के सर्वोच्च न्यायिक संस्थान की स्थिति की ओर सबका ध्यान खींच लिया है. समूची दुनिया कई टिप्पणीकारों ने नोट किया है कि यह मामला प्रशांत भूषण के खिलाफ मुकदमे से कहीं ज्यादा खुद सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ मुकदमे में बदल गया है. प्रशांत भूषण को अदालत की अवमानना, और उससे भी बदतर केवल दो ट्वीटों के लिये, का दोषी ठहरा कर सर्वोच्च न्यायालय ने खुद को एक ऐसी संस्था के बतौर, जो इतना तुनकमिजाज है कि एक प्रख्यात जनहित अधिवक्ता द्वारा किये गये महज दो आलोचनात्मक ट्वीटों से अपनी साख खो बैठने और अस्थिर किये जाने का खतरा महसूस करता है, लोगों की नजरों से गिरा लिया है. और एक प्रतिवादी से उसके अंतर्विवेक के खिलाफ क्षमा याचना मंगवाने के लिये उसको धमकी देने, फुसलाने और खुशामद करने के नाकाम प्रयासों से अदालत की इस हद तक अवमानना हो गई है, जितना कोई भी ट्वीट कभी नहीं अवमानना कर सकते थे.
सचमुच, प्रशांत भूषण के खिलाफ ‘अदालत की अवमानना’ का फैसला भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अब तक दिये गये फैसलों में से सबसे अजीब फैसलों में गिना जायेगा. यह फैसला उल्लेखनीय शीघ्रता के साथ दिया गया, जबकि सर्वोच्च न्यायालय के पास सैकड़ों हजारों मुकदमे वर्षों से, और यहां तक कि दशकों से, सुनवाई और निर्णय के लिये लम्बित पड़े हैं. अदालत की अवमानना का सिद्धांत औपनिवेशिक जमाने से विरासत में मिला है, जिसे 1971 में एक अधिनियम का रूप दे दिया गया. इस कानून के मनमाने चरित्र को इस भौंचक कर देने वाले तथ्य से मापा जा सकता है कि ‘अवमानना के खिलाफ सत्य को एक जायज तर्क का स्थान देने’ के लिये 2006 में इस कानून में एक संशोधन लाने की जरूरत पड़ गई.
हालांकि यह कानून अपने आप में मनमाना और निरंकुश प्रकृति का है, मगर लोगों के खिलाफ चुनिंदा तौर पर लागू करना इसको कहीं और ज्यादा मनमाना बना देता है. बाबरी मस्जिद के विध्वंस का मामला एक सर्वाधिक खुला मुकदमा है, जिसमें एक सरकार और एक पार्टी ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष किये गये अपने वादे के प्रति विश्वासघात किया. अठ्ठाइस साल के बाद यह मुकदमा आज भी जारी है, जबकि उसी सर्वोच्च न्यायालय ने उस जमीन को एक मंदिर का निर्माण करने के लिये सौंप दिया और अब तो उस मंदिर का शिलान्यास भी किया जा चुका है. सर्वोच्च न्यायालय ने समान काम के लिये समान वेतन को अनिवार्य बना दिया है, मगर एक के बाद एक सरकारें उसका उल्लंघन करती रहती हैं, पर उन्हें कभी अदालत की अवमानना का दोषी नहीं ठहराया गया है. और बस दो ट्वीट क्या किये गये, उनको भारत की न्यायपालिका की सत्यनिष्ठा और इज्जत के प्रति सबसे बड़ा तिरस्कार मान लिया गया है.
जरूर, प्रशांत भूषण के ट्वीटों को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराये जाने वाला पहला बहुचर्चित मामला नहीं है6 मार्च 2002 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अरुंधती राय को इसी ‘अपराध’ के लिये दोषी ठहराया गया था. 9 मई 2017 को सर्वोच्च न्यायालय के कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस सी.एस. कर्णन को इसी अपराध के लिये दोषी ठहराकर उन्हें इस अपराध के लिये दी जाने वाली सबसे बड़ी संभव सजा यानी छह महीने के कारावास का दंड दिया था. अब वक्त आ गया है कि भारत अदालत की अवमानना कानून को खारिज कर दे, और साथ ही इसके सहजात औपनिवेशिक जमाने के राजद्रोह और मानहानि सम्बंधी कानूनों को भी रद्द कर दे, जिनका इस्तेमाल बस केवल असहमति को अपराध ठहराने और आलोचना की स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल करने वालों को सजा देने के लिये किया जा रहा है.
प्रशांत भूषण द्वारा जारी किया गया वक्तव्य, जिसने जस्टिस अरुण मिश्रा के विचार से केवल ‘अपराध को और संगीन’ बना दिया है, वह वक्तव्य इन मुश्किलात भरी घड़ियों में, जब संविधान पर अनवरत हमले किये जा रहे हैं और लोकतंत्र से असहमति को धो-पोंछकर साप कर दिया जा रहा है, एक नागरिक के सत्य और स्वतंत्रता का विधान बन गया है. प्रशांत भूषण को मिल रहा विशाल बहुसंख्यक लोगों का समर्थन यकीनन भारत में असहमति और लोकतंत्र के भविष्य के लिये एक सबसे ज्यादा आश्वस्तिजनक संकेत है