वर्ष - 29
अंक - 39
19-09-2020

वामपंथी नेताओं को चार्जशीट में नामजद करने के बाद छात्र कार्यकर्ता उमर खालिद की गिरफ्तारी होते ही दिल्ली पुलिस की “दंगा जांच” की आलोचना तथा उसकी घोर निंदा और तेज हो गई है. छात्रों के साथ-साथ देश भर में बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिकों ने, जिनमें यहां तक कि भूतपूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं, दिल्ली के पुलिस आयुक्त को पत्र लिखकर दिल्ली पुलिस द्वारा की जा रही “जांच” के पक्षपातपूर्ण रवैये पर पीड़ा जाहिर की है.

इन बढ़ती आलोचनाओं की तपिश महसूस करके दिल्ली पुलिस ने हड़बड़ी में कलमबंद करके सिलसिलेवार ढंग से कई “स्पष्टीकरण” और वक्तव्य जारी किये हैं. ये वक्तव्य और कुछ नहीं बल्कि अपनी निर्लज्जतापूर्ण बेबुनियाद कारगुजारियों का बचाव करने या उन पर पर्दा डालने की अक्षमता की पुष्टि करते हैं.

दंगों के विभिन्न मुकदमों में दिल्ली पुलिस द्वारा दाखिल की गई चार्जशीटों में सीपीआई(एम) के महासचिव सीताराम येचुरी, भाकपा(माले) की पाॅलिटब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन, स्वराज अभियान के नेता योगेन्द्र यादव, प्रोफेसर अपूर्वानन्द और प्रोफेसर जयती घोष समेत जैसे बुद्धिजीवी, फिल्म निर्माता राहुल राॅय, भूतपूर्व जेएनयू छात्र कार्यकर्ता उमर खालिद और आइसा, जेसीसी और पिंजड़ा तोड़ जैसे छात्र संगठनों और मंचों के कार्यकर्ताओं के नाम शामिल करने का आधार दिल्ली पुलिस ने चंद आरोपी व्यक्तियों द्वारा पुलिस हिरासत में दिये गये “खुलासा बयानों” (डिस्क्लोजर स्टेटमेंट्स) को बताया. इसके बाद आक्रोश और निन्दा का जो तूफान उठा, उसमें कई लोगों ने चिन्हित किया है कि पुलिस हिरासत में हासिल किये गये इस किस्म के “खुलासा बयानों” को कानूनी तौर वैध साक्ष्य नहीं माना जाता, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि खुद पुलिस ने उन वक्तव्यों को गढ़ा है. दिल्ली हिंसा के मामलों में इन “खुलासा बयानों” को दिल्ली पुलिस ने खुद ही लिखा है, यह धारणा इस तथ्य के जरिये और बलवती होती है कि विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा लिये गये इन कथित बयानों की भाषा-शैली एक जैसी है, और इस तथ्य के द्वारा भी कि कम से कम तीन आरोपियों – सफूरा जरगर, नताशा नरवल और देवांगना कलिता – के बयानों के नीचे लिखा हुआ है कि उन्होंने कथित बयानों पर “दस्तखत करने से इन्कार किया”. यह भी चिन्हित किया गया कि कई लोगों ने शिकायत की है कि उन्हें इन बयानों का झूठा साक्षी बनने के लिये पुलिस ने मजबूर किया, यह धमकी देते हुए कि या तो वे कार्यकर्ताओं को आरोपी बनाने के लिये झूठा साक्षी बनें नहीं तो खुद उनको ही निरंकुश यूएपीए के तहत आरोपी बना दिया जायेगा.

इन आलोचनाओं के जवाब में दिल्ली पुलिस ने “स्पष्टीकरण” दिया कि चार्जशीट में नामजद शिक्षक और राजनीतिज्ञ “सीएए-विरोधी प्रतिवादों को संगठित करने तथा उनको सम्बोधित करने के सम्बंध में एक आरोपी द्वारा दिये गये खुलासा बयान” का हिस्सा हैं. जबकि उन्होंने यह दावा किया कि “खुलासा बयान में आरोपी द्वारा कहे गये वक्तव्य को सचमुच बिल्कुल जैसा का तैसा रिकार्ड किया गया है”, पर साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि “किसा व्यक्ति को केवल खुलासा बयान के आधार पर आरोपी नहीं बनाया जाता. मगर केवल पर्यााप्त पुष्टिकारक साक्ष्य की मौजूदगी के आधार पर आगे की कानूनी कार्रवाई की जाती है.” तथापि महज दूसरे ही दिन दिल्ली पुलिस ने केवल “खुलासा बयानों” के आधार पर ही उमर खालिद को गिरफ्तार कर लिया, जिसमें उनको हिंसक वक्तव्य का दोषी ठहराया गया है. उमर खालिद ने हिंसा को उकसावा दिया, जैसा कि खुलासा बयान में दावा किया गया है, इस दावे के पीछे “पर्याप्त पुष्टिकारक साक्ष्य” कहां है? इसके विपरीत, इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि भेदभावपूर्ण ‘सीएए, एनपीआर, एनआरसी’ कानूनों के खिलाफ चले समान नागरिक आंदोलन के दौरान दिये गये उमर के भाषणों में हिंसा के मुकाबले भी शांतिपूर्ण प्रतिवाद करने का आह्वान किया गया है.

जिन मुकदमों के तहत नताशा नरवल और देवांगना कलिता को गिरफ्तार किया गया है, उनमें से कुछेक मुकदमों में उनको मिली जमानत के आदेश में इस तथ्य का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि पुलिस द्वारा पेश किये गये दावों के विपरीत, उनके द्वारा दिये गये सार्वजनिक भाषण हिंसा को भड़कावा नहीं देते बल्कि केवल शांतिपूर्ण प्रतिवाद का आह्वान करते हैं. साक्ष्य के इसी सम्पूर्ण अभाव की पूर्ति करने के लिये पुलिस यूएपीए के तहत आरोप लगा रही है. यूएपीए ऐसा कानून है जिसकी रचना ही शासन के आलोचकों को निशाना बनाने के लिये एक औजार के बतौर की गई है. यह ऐसा कानून है जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को महज राज्य द्वारा लगाये गये आरोप के आधार पर बिना जमानत या मुकदमा चलाये वर्षों तक जेल में कैद रखा जा सकता है. राज्य सभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में गृह मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि 2016 से 2018 के बीच यूएपीए के तहत दायर किये गये 3005 मुकदमों में से केवल 27 प्रतिशत मुकदमों में चार्जशीट दाखिल की गई है: यह एक ऐसा तथ्य है जो इम मुकदमों के फर्जी चरित्र को दिखला देता है. फिर भी, पुलिस चाहे तो अनंत काल तक जांच-पड़ताल में देरी कर सकती है और झूठे आरोप में गिरफ्तार व्यक्ति को बरसों तक जेल की यातना सहने पर मजबूर कर सकती है. अगर बाद में किसी व्यक्ति को आरोप से बरी भी कर दिया जाता है, तो भी यूएपीए के तहत गिरफ्तार किये जाने की प्रक्रिया के जरिये अपने आप आरोपी को सजा भोगने के लिये मजबूर कर दिया जाता है.

दिल्ली पुलिस द्वारा की जा रही दंगों की जांच पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए दिल्ली पुलिस आयुक्त को लिखे गये एक पत्र में भूतपूर्व पुलिस प्रधान जूलियो रिबेरो ने इस तथ्य पर चिंता जाहिर की है कि दिल्ली पुलिस कपिल मिश्रा और अनुराग ठाकुर जैसे भाजपा के नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने में नाकाम रही है, जबकि उसने शांतिपूर्ण प्रतिवाद करने वाले नागरिकों को गिरफ्तार कर लिया. दिल्ली पुलिस आयुक्त ने इसके जवाब में कहा कि रिबेरो को अपना नाम उन लोगों के साथ नहीं जोड़ना चाहिये जो अपना मकसद पूरा करने के लिये दिल्ली पुलिस के भेदभावपूर्ण रवैये के बारे में “मनगढ़ंत कहानियां” सुना रहे हैं.

दिल्ली पुलिस आयुक्त के इस जवाब की नकल करते हुए दिल्ली पुलिस के एक प्रवक्ता ने मीडिया के समक्ष एक नोट जारी किया है जिसमें उन्होंने दावा किया है कि वह हिंदुओं और मुसलमानों के साथ एक सा व्यवहार करती रही है, और हवाला दिया है कि “दिल्ली दंगे से सम्बंधित मामलों में 250 से ज्यादा चार्जशीटें दायर की गई हैं, जिनमें 1153 व्यक्तियों (571 हिंदुओं और 582 मुसलमानों) के खिलाफ चार्जशीटें दायर की गई हैं.” यह एक गुमराह करने वाला दावा है. हिंदू-मुसलमान के आंकड़ों के नाम पर दिल्ली पुलिस जिस सवाल से कतरा रही है वह है: कितने सीएए समर्थक व्यक्तियों पर यूएपीए तथा अन्य कठोर कानूनों की धाराओं के तहत आरोप लगाया गया है, और उसकी तुलना में कितने समान नागरिकता के पक्षधर (सीएए-विरोधी) प्रतिवादकारियों पर ये कानून थोपे गये हैं? जिन 571 हिंदुओं के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई है, उनमें से नताशा और देवांगना जैसे समान नागरिकता की पक्षधर प्रतिवादकारियों को छोड़कर कितने हिंदुओं को यूएपीए समेत अन्य कठोर धाराओं के तहत आरोपी बनाया गया है? क्या उनमें से अधिकांश को हल्की-फुल्की धाराओं के तहत आरोपी नहीं बनाया गया है?

दिल्ली पुलिस के नोट में इस तथ्य पर आपत्ति जाहिर की गई है कि “कई निहित स्वार्थी समूह सोशल मीडिया मंचों एवं अन्य ऑनलाइन पोर्टलों का इस्तेमाल उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों के मामलों की जांच-पड़ताल के निष्पक्ष होने पर सवाल उठाने के लिये कर रहे हैं” और ठीक जैसे दिल्ली पुलिस आयुक्त ने रिबेरो को जवाब दिया था, उसी तर्ज में कहा गया है कि अगर किसी को जांच-पड़ताल से तकलीफ पहुंच रही हो तो उसे सोशल मीडिया और खबरिया पोर्टलों के बजाय अदालत का दरवाजा खटखटाना चाहिये. इन जवाबों से पता चलता है कि दिल्ली पुलिस को अपने आलोचकों, एवं स्वतंत्र मीडिया की बोलने की आजादी से दिक्कत महसूस हो रही है (दिल्ली की हिंसा और पुलिस की जांच पर सबसे ज्यादा छानबीन करके रिपोर्टिंग ऑनलाइन न्यूज पोर्टलों ने ही की है). साथ ही, खुद दिल्ली पुलिस को भी समान नागरिकता के पक्ष में प्रतिवाद करने वाले आरोपियों के खिलाफ पूर्वाग्रह पैदा करने के लिये चुनिंदा सरकार-परस्त मीडिया चैनलों के समक्ष हिरासत में (गढ़ी गई) “स्वीकारोक्तियों” का खुलासा (लीक) करने में कोई परहेज नहीं हुआ था. दिल्ली हाई कोर्ट को इस किस्म के खुलासों के खिलाफ दिल्ली पुलिस को नोटिस देना पड़ा था. सच्चाई यही है कि लोकतंत्र में पुलिस और जांच एजेन्सियों को सार्वजनिक परिक्षेत्र में नागरिकों द्वारा सवाल किये जाने और जांच-परख के लिये खुलकर प्रस्तुत रहना होगा; ऐसे सवालों को अदालत के कमरों तक सीमित नहीं रखा जा सकता, जहां चंद लोगों की ही पहुंच होती है.

रिबेरो ने दिल्ली पुलिस आयुक्त द्वारा दिये गये जवाब के प्रत्युत्तर में सही कहा है कि पुलिस आयुक्त ने भाजपा नेताओं कपिल मिश्रा, केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और सांसद परवेश वर्मा को “गलत महसूस किये जाने वाले कार्यों के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रतिवाद कर रहे लोगों के खिलाफ चीखने चिल्लाने तथा उन्हें धमकाने के लिये दिल्ली पुलिस द्वारा दिये गये लाइसेन्स” के बारे में चुप्पी साध रखी है.

दिल्ली पुलिस द्वारा दायर 11 लाख पन्ने की चार्जशीट और उसके रक्षात्मक बयान सच्चाई को नहीं छिपा सकते. पुलिस दिल्ली हिंसा को अंजाम देने वाले असली लोगों का बचाव कर रही है जबकि वह समान नागरिकता के पक्षधर प्रतिवादकारियों को सजा देने के लिये यूएपीए जैसे निरंकुश कठोर कानूनों का इस्तेमाल कर रही है. अपनी आलोचना के जवाब में उसने घोषणा कर रखी है कि ये आलोचक “मकसद पूरा करने वाले निहित स्वार्थी तत्वों” का प्रतिनिधित्व करते हैं अथवा उनका इस्तेमाल किया जा रहा है. क्या दिल्ली पुलिस बिना किसी मकसद के और बिना किसी निहित स्वार्थ के भाजपा के नेताओं कर बचाव कर रही है?  दिल्ली पुलिस उनके द्वारा खुद का इस्तेमाल क्यों होने दे रही है?

लाखों पन्नों की यह चार्जशीट हमें बर्तोल्त ब्रेख्त के शब्दों को याद दिला देती है: जब सरकार के पास है बेशुमार ताकत/उसके पास कैम्प और यातना गृह/ खाते पीते पुलिसवाले/ धमकाये गये या भ्रष्ट न्यायधीश/ संदिग्ध लोगों की फेहरिस्त और सूचियां/ जो छत तक भरी हैं सारी इमारतों में/ कोई सोचेगा कि उनको नहीं लगेगा/ एक सामान्य इन्सान के खुले शब्दों से डर.” समूचे भारत में ये सामान्य लोग केवल अपने इन “खुले शब्दों” से लैस होकर, अपनी एकता और सत्य से अपनी प्रतिबद्धता को लेकर, एक प्रतिशोधकारी शासन से निडर होकर लोहा ले रहे हैं. यह सरकार ही है जो लोगों से डर रही है.