वर्ष - 29
अंक - 31
31-07-2020

मशहूर वकील और मानव अधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण पर ट्विटर की गई टिप्पणियों के लिए अवमानना की कार्यवाही शुरू करने का फैसला अफसोसनाक है. लोकतांत्रिक चेतना से लैस किसी भी व्यक्ति के लिए ये खबर परेशान करने वाली और चिंताजनक है. यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपनी तरफ से पहल करते हुए कार्रवाई शुरू की है. इसमें न्यायालय ने असामान्य तत्परता दिखाई. इसके लिए तीन जजों की बेंच गठित की गई. बेंच पहली नजर में इस निष्कर्ष पर पहुंची कि ट्विटर पर की गई उल्लिखित टिप्पणियों से न्याय प्रक्रिया का अपमान हुआ है. ये टिप्पणियां आम लोगों की निगाह में सुप्रीम कोर्ट, और खासकर प्रधान न्यायाधीश के पद की गरिमा एवं प्राधिकार को क्षतिग्रस्त करने में सक्षम हैं.

तीन जजों की बेंच ने प्रशांत भूषण की दो टिप्पणियों का जिक्र किया. इसमें एक यह है: प्रधान न्यायाधीश नागपुर स्थित राजभवन में बीजेपी नेता की 50 लाख रुपये की मोटर साइकिल पर बिना मास्क या हेल्मेट पहने बैठे – वैसे समय में, जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को लाॅकडाउन में रखा है, जिससे नागरिक न्याय पाने के अपने मौलिक अधिकार से वंचित हो रहे हैं.

बेंच ने कहा: इसके अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में छपा है कि प्रशांत भूषण ने 27 जून को एक दूसरे ट्वीट में कहा था – इतिहासकार जब पिछले छह वर्षों पर गौर करेंगे, तो देखेंगे कि कैसे बिना औपचारिक आपातकाल का एलान किए भी भारत में लोकतंत्र को नष्ट किया गया है. वे विशेष रूप में इस विनाश में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका रेखांकित करेंगे और उसमें भी खासकर, पिछले चार प्रधान न्यायधीशों की भूमिका को.

लोकतांत्रिक दायरे में प्रशांत भूषण की इन टिप्पणियों से असहमत होने या उनकी आलोचना करने की पर्याप्त गुंजाइश है. मगर इन टिप्पणियों से न्याय करने की प्रक्रिया में कैसे रुकावट आई, इसे समझना कठिन है. लोकतंत्र के विकास-क्रम में यह राय पुख्ता हुई है कि जब तक कोर्ट रूम में भौतिक और हिंसक रूप से न्याय करने की प्रक्रिया में बाधा ना डाली जाए, कोर्ट की अवमानना की कार्यवाही का आधार नहीं बनता. अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है. अतः इसे सिर्फ उन स्थितियों के अलावा सीमित नहीं किया जा सकता, जिन्हें सार्वजनिक बहस के बाद तार्किक समझा गया हो. जबकि ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर या सार्वजनिक दायरे में की गई टिप्पणियों को न्याय करने की प्रक्रिया में रुकावट मानने का तर्क समझ पाना कठिन है. इसे समझ पाना भी मुश्किल है कि ऐसी टिप्पणियों से न्यायपालिका या न्यायाधीश की गरिमा या ऑथरिटी कैसे कमजोर हो सकती है?

प्रशांत भूषण ने प्रधान न्यायाधीश पर जो टिप्पणी की, वह किसी न्यायिक निर्णय लेने और उसे सुनाने की प्रक्रिया (यानी उनकी न्यायिक कार्रवाई) से संबंधित नहीं थी. भारत में लोकतंत्र के कथित विनाश में सुप्रीम कोर्ट और पूर्व प्रधान न्यायाधीशों के बारे में उनकी टिप्पणी भी सामान्य प्रकृति की है. इस तरह की राय सार्वजनिक चर्चाओं में अनेक लोग, जिनमें कई पूर्व जज और न्यायविद् भी शामिल हैं, जताते रहे हैं.        

कोर्ट के विवादास्पद फैसलों और न्यायाधीशों के आचरण पर सार्वजनिक चर्चाओं को प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए. इस मामले में सर्वाेच्च न्यायालय को इस कथन को अवश्य में ध्यान में रखना चाहिए कि धूप ही सर्वाेत्तम कीटाणुनाशक होता है “सनलाइट इज द बेस्ट डिसइन्फेक्टेंट”). इस संबंध में हम सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस कृष्ण अय्यर की इस टिप्पणी को भी उद्धृत करना चाहेंगे कि जज अपमान से बचें, इसका सर्वाेत्तम तरीका अवमानना कार्यवाही के जरिए सजा देना नहीं, बल्कि अपने काम में बेहतरीन प्रदर्शन करना है.

अतः जन हस्तक्षेप यह अपील करता है कि सुप्रीम कोर्ट असहमति और अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करते हुए प्रशांत भूषण पर स्वतः शुरू की गई अवमानना कार्यवाही को तुरंत वापस ले ले. हमारी दृढ़ राय है कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सुनिश्चित भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतवासियों का वह अधिकार है, जिसे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान असीमित कुर्बानी देने के बाद हासिल किया गया. असहमति का अधिकार लोकतंत्र का अभिन्न अंग है. हमारी दृढ़ राय है कि न्यायालय के अवमानना की कार्यवाही सिर्फ न्याय को भौतिक रूप से बाधित करने (फिजिकल ऑब्सट्रक्शन ऑफ जस्टिस) की स्पष्ट मिसाल वाले अत्यंत असामान्य मामलों में ही शुरू की जानी चाहिए.

हर लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने विकास क्रम से गुजरती है. दुनिया के विकसित लोकतांत्रिक देशों में अवमानना कार्यवाहियों की मिसाल दुर्लभ होती गई है. अतः भारत में भी आवश्यकता इस बात की है कि न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 में अब उचित और उपयुक्त संशोधन किया जाए. सरकार और संसद को इस दिशा में पहल करनी चाहिए.

हस्ताक्षर: 
ईश मिश्र, संयोजक, 
विकास बाजपेई, सह संयोजक 

(इसके अलावा देश के 131 प्रख्यात नागरिकों के समूह ने भी कोर्ट से अपील की है कि वह इस अवमानना कार्रवाई को वापस कर ले. इस अपील पर हस्ताक्षर करने वालों में प्रमुख रूप से सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायायधीश जस्टिस मदन बी. लोकुर, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव, प्रख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा, दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह, विख्यात लेखिका अरुंधति राॅय, भारद्वाज, प्रसि( वकील इंदिरा जयसिंग आदि शामिल हैं.)