वर्ष - 29
अंक - 31
31-07-2020

अगस्त भारत की स्वाधीनता प्राप्ति का महीना है. इस वर्ष जब भारत देश की स्वाधीनता की 73वीं वर्षगांठ मना रहा है, तो जाहिर है कि ये समारोह अनिवार्यतः अभूतपूर्व ठंडेपन से ही मनाये जायेंगे. सिर्फ इसलिये नहीं कि कोविड-19 से बचाव की नियमावनी के अंग के बतौर लोगों के सभा-सम्मेलन में एकत्रित होने पर अनिवार्य प्रतिबंध लागू हैं तथा नागरिकों से आपस में जो शारीरिक दूरी बनाये रखने की उम्मीद की जाती है, बल्कि इससे भी कहीं ज्यादा इस वजह से कि हमारे दैनंदिन आकाश पर अंधेरे और अनिश्चयता के काले बादल मंडरा रहे हैं. यह सच है कि कोविड-19 एक वैश्विक महामारी है और लेकिन कोविड-19 के साथ एक सम्पूर्ण रूप से अनियोजित  लाॅकडाउन, जिसके प्रबंधन में भारी किस्म की चूकें की गईं और जिसे पूरी निर्दयता के साथ लागू किया गया, उससे होने वाला विध्वंस तो लगभग पूर्णरूपेण भारत की अपनी करनी का विशिष्ट नतीजा है.

कोविड-19 की वैश्विक महामारी आरंभ होने के बाद अब आठ महीने हो रहे हैं, और दुनिया के अधिकांश देशों ने अब इस महामारी के फैलाव को कमोबेश नियंत्रित कर लिया है और पहले झटके की लहर के सबसे बुरे चरण पर जीत हासिल कर ली है. यह वैश्विक महामारी भारत में थोड़ी देर से पहुंची, मगर हमें इसके लिये योजना बनाने और तैयारियां करने का जो वक्त मिला उसका कोई इस्तेमाल नहीं किया गया और अब इस वायरस का विस्तार सप्ताह दर सप्ताह दुगना-चौगुना बढ़ता जा रहा है. अमरीका और ब्राजील के साथ भारत अब इस वैश्विक महामारी के प्रमुख चालकों की श्रेणी में आ गया है. घटनाक्रम से यह तीन ऐसे देश हैं जहां आजकल सर्वाधिक उन्मत्त दक्षिणपंथी निरंकुश सरकारें कायम हैं जो सभी युक्तिपूर्ण सलाहों को ठुकरा देती हैं और अपने निरंकुश तानाशाह प्रधानों की सनक, मनमानी और हेकड़ी के निर्देशन पर चलती हैं.

जब मोदी सरकार कोविड-19 की चुनौती से निपटने के लिये देर से जागी, तो प्रधानमंत्री मोदी ने सोचा कि था कि वे चंद नाटकबाजी भरे भाषणों और कार्यक्रमों के जरिये इस विपदा से निपट लेंगे, और उन्होंने इसे ऐसा महाभारत युद्ध बताया जिसे इक्कीस दिनों के अंदर जीत लिया जायेगा. अब दिनों के बजाय हम इक्कीस सप्ताह का समय पार करने जा रहे हैं, और जब कोरोना संक्रमण के आंकड़े दूनी-चौगुनी रफ्तार से बढ़ते जा रहे हैं तो मोदी की जबान ही सूख गई है. अब प्रधानमंत्री कोविड-19 वैश्विक महामारी की बात ही नहीं करते, इसके बजाय अब उन्होंने संकट को अवसरों का सिलसिला समझने का एक नया फारमूला गढ़ लिया है. और अब इन अवसरों का भरपूर इस्तेमाल, आर्थिक के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी किया जाने लगा है.

कोल-ब्लाॅकों की नीलामी की जा रही है, निजी ट्रेनें चलाये जाने की घोषणा की जा रही है, श्रम कानूनों को निलम्बित किया जा रहा है, कृषि उत्पाद के बाजार को निजी व्यापारियों के हवाले किया जा रहा है. जहां समूची दुनिया कारगर ढंग से राज्य के हस्तक्षेप, खासकर स्वास्थ्य सेवा के समाजीकरण की जरूरत महसूस कर रही है, वहां मोदी सरकार राज्य की जिम्मेदारियों का परित्याग करने में व्यस्त है और अर्थतंत्र के हर क्षेत्र का बिना विचारे निजीकरण किये जा रही है. और समाजीकरण के विचारों का अत्यंत ढिठाई से मखौल उड़ाते हुए मोदी सरकार राज्य के अपनी जिम्मेदारियों से परित्याग के साथ कारपोरेट कम्पनियों की हड़प के सम्मिश्रण को ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान बता रहे हैं.

निजीकरण के इस आक्रामक अभियान के साथ-साथ हम देख रहे हैं कि असहमति की आवाज उठाने वालों तथा जनता के आंदोलनों के सक्रिय कार्यकर्ताओं का दमन करने के लिये लाॅकडाउन का हथियार के बतौर लगातार इस्तेमाल किया जा रहा है. जहां महामारी के चलते राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनपीआर) की परियोजना को मजबूरन सामयिक रूप से स्थगित रखा जा रहा है, वहीं सरकार सीएए-विरोधी आंदोलन के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं को सुनियोजित ढंग से प्रताड़ित कर रही है, यहां तक कि अत्यंत कपटपूर्ण ढंग से उन्हें दिल्ली के दंगों में फंसाकर आरोपी बना रही है. दलितों के खिलाफ किये गये भीमा-कोरेगांव हमले की ही तरह दिल्ली दंगों को भी, जिनमें निर्दोष मुसलमानों को हत्याकांड व लूटपाट का शिकार बनाया गया था, सिर के बल खड़ा करके छात्रों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की बड़े पैमाने पर धर-पकड़ के अभियान में बदल दिया गया है.

पिछले साल अगस्त के महीने में मोदी सरकार ने एकतरफा तौर पर धारा 370 को खारिज कर दिया था और जम्मू कश्मीर की न सिर्फ संवैधानिक स्वायत्तता पर डाका डाला था बल्कि उससे राज्य का दर्जा भी छीन लिया था इस तख्तपलट को सरजमीन पर अंजाम देने के दौरान बड़े पैमाने पर और सामूहिक दमन ढाया था – वहां इंटरनेट तथा मोबाइल फोन सेवा को पूर्णतः बंद कर दिया गया था, भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों समेत तमाम नेताओं को नजरबंद कर दिया गया जनता को कार्यतः जेल में तालाबंद कर दिया गया था जबकि राज्य में अभूतपूर्व रूप से सेना की तैनाती कर दी गई थी. उसके बाद से भारत में इस एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य आबादी की संरचना में बदलाव करने की निर्लज्जतापूर्ण कोशिश में और भी कई कानूनी और नीतिगत बदलाव किये जा रहे हैं.

शुरूआत में इस कदम को जम्मू और लद्दाख अंचलों में कुछ समर्थन मिला था, मगर पिछले एक साल के दौरान वह समर्थन काफूर हो चुका है और अब समूचे जम्मू व कश्मीर में मोहभंग, आक्रोश तथा अलगाव स्पष्ट दिखाई दे रहा है. भारत के कश्मीर संकट के साथ अब जुड़ गया है लद्दाख में स्थित चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का लगातार बढ़ते तनाव और टकराव के क्षेत्र में बदलते जाना. पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा (एलओसी) और चीन के साथ एलएसी, दोनों का एक साथ तनावग्रस्त हो जाना नई दिल्ली के लिये केवल राष्ट्रीय सुरक्षा का एक दुस्वप्न ही हो सकता है, और मोदी सरकार ने भारत को ठीक इसी स्थिति में लाकर रख दिया है. चीन के साथ गलवान घाटी की झड़प में भारत ने 1967 के बाद से अब तक का सबसे बड़ा हताहती का नुकसान झेला है, और तमाम सूत्रों से यही जाहिर होता है कि आपसी तनाव-निरोध और सेनाओं के पीछे हटने के फलस्वरूप एलएसी को भारतीय क्षेत्र के अंदर कई किलोमीटर तक पीछे हटाना पड़ा है. मोदी सरकार चाहे कितने ही अक्खड़पन से इस तथ्य से इन्कार क्यों न करे, इससे स्थिति का समाधान यकीनन नहीं होने वाला.

जो चीज भारत को चीन सम्बंधी चुनौती को और भी ज्यादा दुःसाध्य बना दे रही है, वह है मोदी सरकार की बढ़ती विदेश नीति सम्बंधी असफलता. मोदी सरकार अमरीका और इजरायल के तुष्टीकरण में हद से ज्यादा आगे बढ़ जाती है, यद्यपि अमरीका की विश्व प्रभुत्व की नीति और आप्रवासी-विरोधी नीति भारत के अपने हितों को और ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाती जा रही है. और मोदी की विदेश नीति सम्बंधी सबसे बड़ी असफलता यह है कि भारत सारे पड़ोसी देशों से न सिर्फ अलगाव में पड़ता जा रहा है बल्कि उनसे विरोध भी बढ़ता जा रहा है. भारत की समस्या अब केवल “परम्परागत प्रतिद्वंद्वी” पाकिस्तान तक सीमित नहीं रही; भारत को अब अफगानिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और यहां तक कि नेपाल से भी, जो दुनिया में एकमात्र अन्य हिंदू-बहुल जनसंख्या वाला देश है, समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. भारत के मुख्यधारा के इलेक्ट्राॅनिक एवं प्रिंट मीडिया (टीवी और अखबार) में नेपाल विरोधी विष-वमन, और मोदी के अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में नेपाली नागरिकों को जिस भद्देपन से अपमानित किया गया उससे भारत के साथ नेपाल के रिश्तों में केवल खटास ही बढ़ सकती है.

आर्थिक और विदेश नीति के मोर्चों पर बढ़ती विफलताओं के सामने पड़कर और कोविड-19 महामारी से निपटने के मामले में पूरी तरह से चकराकर गिरी मोदी सरकार अब एक बार फिर देश की जनता का ध्यान भटकाने के लिये बेताब हो उठी है और इसके लिये वह विपक्ष्ज्ञ-शासित राज्यों में अस्थिरता पैदा कर रही है तथा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के इर्द-गिर्द हिंदू भावनाएं भड़का रही है. वैश्विक महामारी और लाॅकडाउन के प्रतिबंधों के बीच भी, जिसमें तमाम धार्मिक समारोहों का आयोजन प्रतिबंधित है, मोदी अब 5 अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास कर रहे हैं, जबकि मोदी सरकार द्वारा कश्मीर से उसका संवैधानिक दर्जा और राज्य की हैसियत छीने जाने का ठीक एक वर्ष पूरा हो रहा है. स्पष्ट है कि संघ-भाजपा प्रतिष्ठान 5 अगस्त को भारत के संविधान पर तथा उसके धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के वादे पर अपनी विजय के विशेष समारोह के बतौर मनाना चाहता है.

भारत की दो भविष्यदृष्टियों के बीच लड़ाई – संविधान की भूमिका में बुलंद की गई स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे और न्याय की भविष्यदृष्टि और भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की भविष्यदृष्टि, जो डा. अम्बेडकर के भविष्यदृष्टा शब्दों में भारत के लिये सबसे बड़ी आपदा साबित होगी, के बीच लड़ाई अब खुलकर सामने आ गई है. स्वाधीनता की भावना ने भारत को जमींदारी के विलोप तथा राजे-रजवाड़ों के खात्मे की ओर अग्रसर होने का रास्ता दिखाया था, रणनीतिक महत्व के उद्योगों एवं सेवाओं के राष्ट्रीयकरण तथा एक सशक्त सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया था, और साम्राज्यवादी फरमानों से मुक्त एक स्वतंत्र विदेश नीति की दिशा में भारत को बढ़ाया था. मोदी-शाह शासन के दौरान अब हम इन तमाम चीजों के फिर से पनपने का खतरा देख सकते हैं. इस भयावह खतरे के सामने भारत की जनता को भगत सिंह और डा. अम्बेडकर जैसों द्वारा दिखाई गई राह पर फिर से वापस लौटना होगा और भारत को आर्थिक स्वाधीनता एवं सामाजिक समानता वाले जीवंत जनता के लोकतंत्र की उसकी नियति की ओर ले जाना होगा.