8 जुलाई 2020 को उत्तराखंड में रामनगर का रामदत्त जोशी राजकीय संयुक्त चिकित्सालय, पी.पी.पी. (सार्वजनिक-निजी साझीदारी) मोड के नाम पर संचालन हेतु एक निजी कंपनी को सौंप दिया गया. अकेला सिर्फ रामनगर का ही अस्पताल निजी हाथों में नहीं सौंपा जा रहा है. बल्कि इसके साथ अल्मोड़ा जिले का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र भिकियासैंण और पौड़ी जिले का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, बीरोंखाल भी पी.पी.पी. मोड के नाम पर संचालन हेतु निजी हाथों में दिया जा रहा है.
उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाएं और उनकी बदहाली लगातार चर्चा में है. बीते कुछ महीनों में ही कई प्रसूता महिलाओं ने समय पर इलाज न मिलने के कारण असमय दम तोड़ दिया. स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्दशा का वर्णन स्वयं सरकारी रिपोर्टें कर रही है. उत्तराखंड सरकार द्वारा गठित पलायन आयोग ने माना है कि उत्तराखंड के गांवों से पलायन का एक कारण स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव भी है. सितंबर 2019 में जारी पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 8.83 प्रतिशत लोग स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण पलायन कर रहे हैं.
स्वास्थ्य सुविधाओं की लचर स्थिति प्राणघातक सिद्ध हो रही है. इसलिए तत्काल ही इस दिशा में कदम उठाए जाने की जरूरत है. पर क्या अस्पतालों को पी.पी.पी. मोड में निजी संचालकों के हाथ सौंपना उचित कदम है? अनुभव तो बताता है कि यह कदम न सही है, न सफल. 2012 से 2017 के बीच तकरीबन 14-15 अस्पतालों के संचालन का जिम्मा सील नर्सिंग होम बरेली और राजबरा, दिल्ली को सौंपा गया. भुगतान की शर्ते इन कंपनियों के मनमुताबिक बनाई गईं. सरकारी खजाने से पैसा मिलने के बावजूद इन दोनों कंपनियों के संचालन में भी वे तमाम अस्पताल रेफरल सेंटर ही बने रहे. इनकी सेवाओं की हालत इस कदर खराब थी कि जगह-जगह लोगों ने इनके खिलाफ आंदोलन चलाये.
पी.पी.पी. मोड के अस्पतालों में नियुक्त डाक्टरों की गुणवत्ता का भी एक किस्सा सुनिए. रुद्रप्रयाग जिले में जखोली स्थित सरकारी स्वास्थ्य केंद्र भी उक्त अवधि में पी.पी.पी. मोड में दिये गए अस्पतालों में शामिल था. उक्त सरकारी अस्पताल में तैनात डाक्टरों की शैक्षणिक योग्यता के संदर्भ में एक आरटीआई परिवर्तन यूथ क्लब कर्णप्रयाग के संयोजक एवं पूर्व प्रधान अरविंद चौहान ने लगाई. उक्त आरटीआई आवेदन के जखोली अस्पताल पहुंचते ही एक डाक्टर भाग खड़ा हुआ.
यह भी गौरतलब है कि मनमानी शर्तों पर पी.पी.पी. मोड पर देनी वाली सरकार उक्त कंपनियों के करार को आगे नहीं बढ़ा सकी और उक्त सभी अस्पताल सरकार के पास वापस आ गए.
पी.पी.पी. मोड में अस्पताल को दे देने के बाद उनके संचालन की जिम्मेदारी यदि फिर से सरकार को लेनी पड़ी तो यह पी.पी.पी. मोड को एक फेल माॅडल सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है. लेकिन इसकी विफलता के बावजूद अस्पतालों को पी.पी.पी. मोड पर देने का कारोबार सरकार छोड़ नहीं रही है. इंतहा यह है कि देहरादून में डोईवाला का सरकारी अस्पताल, इस अस्पताल से कुछ ही कदम की दूरी पर स्थित हिमालयन अस्पताल, जौलीग्रांट को दे दिया गया. पहाड़ के दूरस्थ अस्पतालों के बारे में सरकार (चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की) का रटा-रटाया तर्क है कि वहां डाक्टर जाना ही नहीं चाहते. लेकिन क्या सरकारों की ऐसी स्थिति भी नहीं है कि देहरादून में जहां खुद सरकार विराजमान है, जो मुख्यमंत्री का विधानसभा क्षेत्रा है, वहां के सरकारी अस्पताल में भी वह डाक्टर भेज सके?
सवाल यह है कि सरकार ऐसा क्यों कर रही है? दरअसल हमारे यहां नीति बनाने के लिए भले ही हम नेताओं को चुनते हैं, नौकरशाहों को सरकारी खजाने से मोटी तनख्वाहें मिलती हैं पर नीति बनाने का काम वे नहीं कर रहे हैं. नीति बनाने का काम कर रही हैं – अंतरराष्ट्रीय ऋणदाता एजेंसियां, जैसे विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक (एडीबी) आदि. यह विचित्र है पर यही सच है. दस्तावेजों को देखिये तो सरकारें और नौकरशाह इनके इशारों पर नाचने वाली कठपुतली नजर आते हैं.
रामनगर, भिकियासैंण, बीरोंखाल के अस्पताल को पी.पी.पी. मोड पर देने के पीछे भी अंतरराष्ट्रीय ऋणदाता एजेंसी से लिया गया कर्ज है. विश्व बैंक से लिए गए 10 करोड़ डाॅलर के कर्ज की शर्तों के अनुरूप ही ये अस्पताल निजी हाथों में सौंपे जा रहे हैं. 2017 में भारत सरकार, उत्तराखंड सरकार और विश्व बैंक ने इस कर्जे के करार पर हस्ताक्षर किए थे. विश्व बैंक द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार इस कर्ज का मुख्य जोर निजी स्वास्थ्य प्रदाताओं के साथ “अभिनव जुड़ाव” पर होगा. (वर्ल्ड बैंक की वेबसाइट पर)
यह भी जान लीजिये कि विश्व बैंक वाले कर्जा दे कर भूल नहीं जाते. वो निरंतर इस पर नजर बनाए हुए हैं कि काम कितना हुआ, कैसे हुआ. वर्ल्ड बैंक की साइट पर मौजूद 18 जून 2020 की “इंप्लीमेंटेशन स्टेटस एंड रिज़ल्ट रिपोर्ट” में लिखा है कि “उत्तराखंड हैल्थ सिस्टम प्रोजेक्ट को लागू करने में कुछ प्रगति हुई है पर काफी विलंब भी हो रहा है और चुनौतियों से पर्याप्त तौर पर निपटा नहीं गया है. ... ... टिहरी क्लस्टर में पी.पी.पी. के तहत सेवाएं प्रदान करना शुरू किया जा चुका है. हालांकि रामनगर क्लस्टर में जहां पी.पी.पी. अनुबंध पर दिसंबर 2019 में दस्तखत हो चुके थे, हस्तांतरण रोडमैप में चुनौतियाँ हैं.”
इस तरह देखा जाये तो विश्व बैंक जैसी एजेंसियों के कर्ज की दोहरी मार जनता पर पड़ रही है. सरकार इस कर्ज की आड़ में स्वास्थ्य सेवाओं का ठेका कर रही है और यह जो कई मिलियन डाॅलर कर कर्ज है, आखिरकार तो पड़ना जनता के सिर पर ही है!
इन कर्जदाता एजेंसियों के ऋण देने के पीछे का छुपा हुआ एजेंडा अपनी जगह है. वे सारे सार्वजनिक क्षेत्र को निजी मुनाफे का औजार बना देना चाहते हैं. लेकिन हमारी सरकारें इन एजेंसियों के कर्जे की अनाप-शनाप शर्तों के तहत स्वास्थ्य सेवाओं को हर उस आड़ू-बेड़ू-घिंगारू (ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे) के हाथ सौंप देना चाहती हैं, जो नीलामी में बोली लगा सके! यह बेहद चिंताजनक है. पी.पी.पी. माॅडल की पूर्वाेक्त विफलताओं के बावजूद पुनः इसी माॅडल को अपनाना न केवल सार्वजनिक धन और सार्वजनिक संसाधनों की बर्बादी है बल्कि यह जनता के स्वास्थ्य को किसी के भी हाथों में सिर्फ इस आधार पर सौंपने की कोशिश है कि उसने किसी सार्वजनिक अस्पताल के टेंडर में सर्वाधिक कीमत भरी. जनता के स्वास्थ्य के साथ यह खिलवाड़ किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
विश्व बैंक, एडीबी, आईएमएफ आदि कर्ज देंगे और कर्ज को खर्चने की नीति भी बना कर देंगे! शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी सब में माल पीने के लिए पी.पी.पी. होगा, रोजगार आउटसोर्सिंग वाला देगा तो ये जो मंत्री, मुख्यमंत्री और नौकरशाहों की फौज है, ये क्या सिर्फ पी.पी.पी. का टेंडर खोलने के लिए है?