नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली संघ-भाजपा सरकार ने देश के श्रमजीवी तबके के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है. टेलीविज़न पर हालिया प्रसारित राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में मोदी ने लोगों को ‘साहसिक सुधारों’ के लिए तैयार रहने को कहा था. उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और गुजरात की भाजपाई सरकारों ने पहले ही श्रम कानूनों को या तो रद्द कर दिया है अथवा उन्हें भोंथरा बना दिया है. केंद्र की भाजपा सरकार बड़ी चतुराई से कोविड-19 आपदा का इस्तेमाल अपनी जन-विरोधी नीतियां लागू करने के लिए कर रही है. अगर देश में इस समय लाॅकडाउन नहीं होता और महामारी व आपदा प्रबंधन अधिनियम के अंतर्गत तरह-तरह के प्रतिबन्ध लागू नहीं होते तो इन श्रमिक-विरोधी कदमों का जबरदस्त विरोध होता.
विदेशी पूंजी के बल पर आत्मनिर्भर भारत का निर्माण नहीं हो सकता – और समुद्रपारीय देशों के धनकुबेरों को आकर्षित करने के लिए श्रम कानूनों को रद्द करने से तो कतई नहीं. दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी के लिए ‘आत्मनिर्भर भारत’ एक जुमला मात्र है. किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वे वाकई हमारे देश या उसमें रहने वाले लोगों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं. एक ओर आत्मनिर्भरता की बातें करना और दूसरी ओर मजदूरों और मेहनतकशों को गुलामी के दलदल में ढकेलना, और भारत को साम्राज्यवादी शक्तियों का पिछलग्गू बनाना, और कुछ नहीं बल्कि एक प्रहसन मात्र है.
इस साल की शुरूआत में जब दुनिया के देश कोरोना वायरस के संक्रमण को नियंत्रित करने के उपाय सोच रहे थे तब भारत सरकार सीएए, एनआरसी और एनपीआर का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों, विशेषकर दिल्ली के मुसलमानों, के खिलाफ सुनियोजित हिंसा भड़काने में व्यस्त थी. भारत में वायरस का तांडव शुरू होते ही तबलीगी जमात को इसके लिए जिम्मेदार बताकर कटघरे में खड़ा कर दिया गया. ऐसा बताया गया मानों मुसलमान जानबूझकर इस वायरस को फैला रहे हैं. लाॅकडाउन 1.0 की घोषणा के बाद के दौर में जमात के कई सदस्यों को गिरफ्तार भी किया गया. कारपोरेट घरानों द्वारा नियंत्रित सांप्रदायिक सरकार ने कोविड-19 से निपटने में अपनी विफलता को छुपाने के लिए मुसलमानों के सिर पर सारा दोष मढ़ने का प्रयास किया.
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा बिना योजना बनाए अचानक लागू किये गए लाॅकडाउन से सबसे पहले और सबसे अधिक नुकसान करोड़ों प्रवासी मजदूरों को हुआ. वे देश के विभिन्न स्थानों पर फंस गए. उनके पास न खाना था, न पैसे और न सर पर छत. कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रवासी मजदूर सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से सबसे कमजोर वर्गों से आते हैं. उनमें से अधिकांश या तो दलित हैं या आदिवासी अथवा पिछड़े वर्गों के. उनके घरों तक उन्हें पहुँचाने के लिए जो ट्रेनें चलायी जा रहीं हैं, उनकी संख्या कम और किराया बहुत ज्यादा है. सरकार की मंशा यह है वे जहां हैं वहीं बने रहें और लगभग बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने पर मजबूर हों.
कोरोना के खिलाफ जंग की पहली पंक्ति के योद्धाओं में आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, मध्याह्न भोजन योजना के अंतर्गत कार्यरत कर्मचारी, घरेलू श्रमिक और सफाईकर्मी आदि शामिल हैं. उन्हें कोरे आश्वासनों के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ है. बोनस या अतिरिक्त वेतन तो दूर उन्हें न्यूनतम वेतन भी नहीं मिल रहा है. श्रमिकों के इस तबके पर हमले का अर्थ न सिर्फ मजदूरों के सबसे कमजोर तबके पर बर्बर हमला है बल्कि उनके दलित, आदिवासी और दबे-कुचले वर्गों पिछड़े वर्गों से आने के चलते भी है.
लाॅकडाउन 3.0 की रूपरेखा में ही कोविड-19 की आड़ में मुसलमानों और दलितों के बाद ही मजदूर वर्ग के खिलाफ वस्तुतः युद्ध छेड़ना है. मोदी सरकार ने कारपोरेट इजारेदार पूंजी के हितों की रक्षा को प्रत्यक्ष रूप से सामने रखा है और इसकी खातिर वह मजदूर वर्ग की बलि चढ़ाने पर आमादा है. मोदी के नेतृत्व में चल रही केन्द्र सरकार जल्दबाजी में पिछले दरवाजे से श्रमिक-विरोधी संहिताएं लागू करने की तैयारी रही है जिसमें द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय वार्ताएं नहीं आयोजित की जा रही और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के घोषणापत्रों का मखौल बनाया जा रहा है, और यह सब कोरोना के नाम पर किया जा रहा है. मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के कर्मचारियों के वेतन में 30 प्रतिशत कटौती की घोषणा कर दी है और महंगाई भत्ते को फ्रीज कर दिया गया है. अब यही चीज औद्योगिक मजदूरों तथा राज्य सरकार के कर्मचारियों पर लागू की जा रही है. वेतन में कटौती और बड़े पैमाने पर कामगारों की छंटनी अब कारपोरेट कम्पनियों की रणनीति के बतौर सामने आ रही है.
योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने तीन साल की अवधि के लिए राज्य में सभी 38 श्रम कानूनों को स्थगित कर दिया है. जो चंद कानून छोड़ दिए गए हैं वे महत्वहीन और औपचारिक हैं. [ यह दूसरी बात है कि सरकार ने मजदूरों के काम के घंटों को आठ से बढ़ा कर बारह करने की विशेष अधिसूचना को वापस लेना पड़ा. अगर उत्तर प्रदेश सरकार सचमुच इस दिशा में गंभीर है तो उसको काम के घंटों से सम्बंधित कानूनों को लागू करने के साथ ही फैक्टरी ऐक्ट को भी पुनर्बहाल करना चाहिये.] लम्बी जुझारू लड़ाइयों और अनगिनत कुर्बानियां देकर हासिल किये गये मजदूरों के सहजात अधिकार, जिन्हें संवैधानिक गारंटी भी मिली हुई है – आठ घंटे का कार्य-दिवस, न्यूनतम वेतन, भविष्य निधि, ग्रेच्युटी, श्रम विभाग व श्रम न्यायालयों द्वारा संचालित शिकायत निवारण और मध्यस्थता तंत्र, कार्यस्थलों के निरीक्षण की व्यवस्था, ट्रेड यूनियन गठित करने, उसकी मान्यता हासिल करने और नौकरी में नियमितीकरण का हक – इन सभी को कलम के एक झटके से निर्ममतापूर्वक छीन खारिज कर दिया गया है और बर्बरतापूर्वक पैरों तले रौंद दिया गया है.
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किए गए तथाकथित ‘संतुलित’ परिवर्तन भी कोई कम क्रूर और भयावह नहीं हैं. राज्य सरकार ने उद्योगपतियों को औद्योगिक विवाद अधिनियम, ठेका श्रमिक विनियमन व उन्मूलन अधिनियम और कारखाना अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण कानूनों का उल्लंघन करने की खुली छूट दे दी है और इस तरह अपने कारपोरेट प्रेम तथा मजदूर वर्ग के प्रति घृणा का परिचय दिया है. मध्यस्थता तंत्र और निरीक्षण प्रणाली को ध्वस्त किया जा रहा है. यहां तक कि निजी व्यक्तियों द्वारा निरीक्षण को मान्यता दी जा रही है. अगर किसी कंपनी में कर्मचारियों की संख्या 100 से कम है तो उस पर श्रम कानून लागू ही नहीं होंगे. कंपनियों को एक ही दिन में लाइसेंस देने का आश्वासन दिया गया है और उन्हें 10 साल साल तक उसका नवीनीकरण करवाने की जरूरत नहीं होगी. क्या इससे विशाखापत्तनम गैस लीक जैसी औद्योगिक दुर्घटनाओं की सम्भावना बढ़ नहीं जाएगी? इन सब परिवर्तनों के पीछे मूल मानसिकता यही है कि “मुनाफा मजदूर से ज्यादा महत्वपूर्ण है”.
गुजरात भी इसी राह पर चल रहा है और उसने भी 8 घंटे का कार्य-दिवस समाप्त करके 12 घंटे के कार्य-दिवस को मंजूरी दे दी है. इस दौड़ में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के नेतृत्व वाली राज्य सरकारें भी पीछे नहीं हैं और उन्होंने कारपोरेट आकाओं की आज्ञा का खुशी-खुशी पालन करने में भाजपा की राह निष्ठापूर्वक अपना ली है. कांग्रेस-शासित राजस्थान व पंजाब और बीजू जनता दल (बीजेडी) के नेतृत्व में चल रही ओडिशा सरकारों ने भी यही रास्ता अपनाया है. कर्नाटक व तमिलनाडु इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे हैं कि वर्तमान में लागू श्रम कानूनों में किस तरह के परिवर्तन किये जाएं ताकि उद्योगपतियों का और भला हो सके. कर्नाटक की सरकार ने तो औद्योगिक और भवन निर्माण लाॅबी के दबाव में आकर राज्य में रह रहे प्रवासी श्रमिकों को उनके गृह प्रदेश ले जाने के लिए बुक की गई कई रेलगाड़ियां तक रद्द कर दी थीं. राज्य के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने नियोक्ताओं के संघ के ज्ञापन पर राज्य के श्रम सचिव का तबादला कर दिया. सरकारें उद्योगपतियों की मांगों को बहुत ज्यादा मानने लगी हैं जबकि करोड़ों मजदूरों के हितों की उनकी दृष्टि में कोई कीमत नहीं रह गई है.
प्रधानमंत्री मोदी ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की घोषणा की है. परन्तु इस पैकेज में उन प्रवासी मजदूरों के लिए कुछ भी नहीं है जो सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर अपने घर जा रहे हैं. और यह तब जबकि प्रवासी श्रमिक हमारे देश के कुल श्रम बल का 40 प्रतिशत हैं. मोदी ने यह आश्वासन दिया था कि श्रमिकों का लाॅकडाउन की अवधि का वेतन काटा नहीं जायेगा. परन्तु असंगठित क्षेत्र के करोड़ों श्रमिकों और यहां तक कि नियमित श्रमिकों को भी लाॅकडउान अवधि का वेतन देने से साफ इन्कार कर दिया गया है, जबकि ये मजदूर ही हमारे अर्थतंत्र की रीढ़ हैं. और यह केवल सूक्ष्म, लघु व मध्यम स्तर की कंपनियों के मामले में नहीं हुआ, बड़ी कारपोरेट कंपनियों ने भी यही किया.
केंद्र सरकार का दावा है कि 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे का कार्य-दिवस करने से कंपनियां कोविड-19 का मुकाबला करने के लिये अपेक्षाकृत कम (50 से 65 प्रतिशत) कर्मियों से काम चला सकेगीं. मगर यह सरकार की एक धूर्ततापूर्ण रणनीति है जिसके जरिये हर कम्पनी में मजदूरों की संख्या में 35 से लेकर 50 प्रतिशत की कटौती की जा सकेगी. सरकार ने मजदूरों को किसी बड़े पैमाने पर छंटनी अथवा वेतन में कटौती से सुरक्षा नहीं प्रदान की है और खुद को कारपोरेट कम्पनियों के मुनाफे की रक्षा के लिये समर्पित कर दिया है. सरकार मजदूरों की भविष्य निधि को खुशी-खुशी 4 प्रतिशत घटा दे रही है और नियोजनकर्ता एवं कर्मचारी दोनों को 10 प्रतिशत का संशोधित शेयर अदा करने को तैयार है मगर कई नियोजनकर्ता भविष्य निधि के नाम पर मजदूरों का वेतन काट ले रहे हैं. प्रस्तावित ग्रामीण पैकेज में नरेगा के तहत मजदूरों को काम अथवा वेतन देने की गारंटी के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है मगर धनी किसानों और कुलकों को मदद देने के लिये ग्रामीण बुनियादी ढांचे का समर्थन करने की बात अवश्य कही गई है. गरीब खेत मजदूर तो इस तस्वीर में कहीं नजर नहीं आते. बल्कि नरेगा की मद में आवंटन को लगातार घटाया जा रहा है और ग्रामीण श्रमशक्ति को काम की तलाश में पहले से अतिशय भीड़ग्रस्त शहरों में प्रवास करने के लिये मजबूर किया जा रहा है. कुल मिलाकर सरकार जीर्ण-शीर्ण हो चुकी श्रमशक्ति को व्यापक पैमाने पर छंटनी का शिकार बनाने तथा कारपोरेट एवं अन्य उद्योगों के लिये कम वेतन पर सस्ता श्रम जुटा देने को कटिबद्ध है. कारपोरेट कम्पनियों को सहारा देने तथा उनके मुनाफे की रक्षा करने तथा उसमें वृद्धि करने के लिये बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा करना सरकार की रणनीति है.
मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी तक देने से इन्कार किया जा रहा है जबकि वह भुखमरी पैदा करने वाले वेतन के अलावा कुछ नहीं है और सबसे बदतरीन बात यह है कि इस इन्कार को कानूनी जामा पहनाया जा रहा है. उचित मजदूरी, जीवन-यापन योग्य मजदूरी, काम के घंटों में कमी, इत्यादि मजदूर आंदोलन की लम्बे अरसे से अधूरी मांगों को कूड़ेदान में फेंक दिया जा रहा है. सरकार मजदूरों के काम के घंटों को बढ़ाकर, वेतन घटाकर, बड़े पैमाने पर छंटनी करके, सस्ता श्रम हासिल करने के लिये बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा करके मुनाफे में वृद्धि करना या उसकी रक्षा करने की रणनीति अपना रही है, न कि उत्पादन अथवा उत्पादकता को बढ़ाकर. इतिहास के पहिये को घपलेबाजी करके 150 वर्ष पहले की स्थिति में ले जाया जा रहा है, मजदूर आंदोलनों तथा मजदूरों के संघर्षों और बलिदानों का मखौल उड़ाते हुए 12 घंटे के कार्य-दिवस को कानूनी जामा पहनाया जा रहा है. श्रम कानूनों को रद्द करके या उनमें संशोधन करके मजदूरों की गुलामी और बंधुआ मजदूरी को संस्थागत रूप दिया जा रहा है. तथाकथित आधुनिक भारत में जिस गुलामी की पटकथा लिखी जा रही है, वह न सिर्फ आधुनिक किस्म की है बल्कि उतनी ही बर्बर है, जो अपनी अंतर्वस्तु में गैर-आर्थिक जोर जबर्दस्ती पर आधारित अमानवीय, तीव्र शोषण है.
सरकार और औद्योगिक पूंजी दिवास्वप्न देख रहे हैं कि श्रम कानूनों को रद्द करने के कारण वे उस अंतर्राष्ट्रीय पूंजी को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं, जिससे उम्मीद की जाती है कि वह कोरोना के चलते चीन में अपने निवेश को हटाकर अन्यत्र ले जाएंगे. वे इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि श्रमिकों के स्वतःस्फूर्त विस्फोट से बचने के लिये पूंजी को श्रम स्थितियों के विनियमन की खुद ही जरूरत होती है. श्रमिकों के अधिकारों, श्रम कानूनों इत्यादि को खारिज कर देने से केवल अराजकता की स्थिति ही उत्पन्न हो सकती है और यह असहमति की आग में घी बन सकता है और प्रतिवादों को तीव्र कर सकता है. कानूनों और नियमों का वास्तविक मकसद केवल मजदूरों के आक्रोश से पूंजी की रक्षा करना होता है, जो आक्रोश शोषणमूलक स्थितियों से उपजता है. सामंती समाज अति मुनाफा कमाने के लिये श्रमिकों को गुलामी और बंधुआ अस्तित्व में रखकर उनके अमानवीय, निर्मम शोषण पर निर्भर था. शोषण का विनियमन करने वाले और शोषण के फलस्वरूप उपजने वाले आक्रोश को शांत करने वाले कोई कानून नहीं थे. औद्योगिक क्रांतियों ने मुनापफे में वृद्धि करने के लिये टेक्नालाॅजी का इस्तेमाल और फोर्डवादी असेम्बली लाइन के तरीकों को ग्रहण करने के नये तरीकों की खोज का मार्ग प्रशस्त किया. उत्पादकता को बढ़ाने के लिये शोषण के सघन पूंजी वाले रूपों को अपनाया गया तथा मजदूरों एवं मेहनतकशों के बीच आजादी का भ्रम भी पैदा किया गया, जो इन पूंजीवादी क्रांतियों की सफलता की प्रक्रिया में पैदल सिपाही की भूमिका निभाते रहे थे. जब मोदी सरकार ने तमाम केन्द्रीय श्रम कानूनों को रद्द करके उनकी जगह चार श्रम संहिताओं को लाने का प्रस्ताव दिया था, तब हमने इसे ‘आधुनिक गुलामी’ की पटकथा लिखने की संज्ञा दी थी क्योंकि फिर भी इसमें कानून के शासन के कुछ तत्व अभी भी बचे हुए थे. यह जंगल के कानूनों के जरिये शोषण को तीव्र करने का एक प्रयास था. मगर दुर्भाग्यवश अब कोरोना की आड़ में मजदूर वर्ग के खिलाफ जो जंग छेड़ी जा रही है, वह बर्बर तरीकों का परिचायक है. अतएव, अब यह आधुनिक गुलामी भी नहीं रही, बल्कि मुख्यतः यह सीधासीधी सामंती गुलामी और बंधुआ स्थिति को कायम करने का कदम है.
शासक वर्ग ने तय कर लिया है कि वह अब पुराने तरीकों से अपना शासन नहीं चला सकता और परिणामतः मजदूरों के बीच अनियंत्रित आक्रोश के विस्फोट की स्थितियां परिपक्व हो रही हैं. जब कोई कानून का शासन नहीं रहेगा और केवल शोषण के बर्बर एवं सामंती रूपों को अपनाया जायेगा तो मजदूर वर्ग को भी अपने प्रतिवाद एवं संघर्षों के नये रूपों को तय करना होगा.
कोरोना तो मजदूर वर्ग के विरुद्ध कारपोरेट कम्पनियों द्वारा जंग छेड़ने के लिये मोदी के पास एक बहाना भर हैे.