वर्ष - 29
अंक - 17
18-04-2020

इस साल हम देशव्यापी लॉकडाउन के पहाड़ तले पिसते हुए हत्यारी वैश्विक महामारी की छाया में अम्बेडकर जयंती मना रहे हैं. हम इस दौर में भौतिक रूप से इकट्ठा नहीं हो सकते पर हमेशा की तरह हम उनके मुक्तिकामी संघर्ष, विचारों और विरासत से प्रेरणा हासिल कर सकते हैं. उनका ‘शिक्षा, संघर्ष और संगठन’ का ध्येय इस भीषण संकट में हमें ताक़त देगा. अस्पृश्यता के खिलाफ उनका संघर्ष और जाति के समूल नाश का उनका महाघोष हमें कोरोना विषाणु के साथ जुड़े दमन और अन्याय के सामाजिक विषाणु से लड़ने के लिए ऊर्जा देगा. उनकी अगुवाई में बने सम्विधान की भूमिका में दर्ज न्याय, स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे का लक्ष्य हमारे संघर्षों और कोशिशों को दिशा देता रहेगा.

अमरीका और यूरोप की नस्लवादी ताक़तें चीन पर दोषारोपण कर रही हैं और यहाँ भारत में, संघ-गिरोह और गोदी मीडिया इसके साथ ही मुसलमानों को वायरस फैलाने वाला बता कर ज़हर उगल रहे हैं. ऐतिहासिक रूप से मनुवादियों द्वारा बरती जा रही अस्पृश्यता का दायरा अब दलितों से आगे बढ़कर मुसलमानों, कहीं दूसरी जगह पढ़ाई या काम कर रहे उत्तर-पूर्व के लोगों, कोविड वायरस से संक्रमित होने के संदेह वाले लोगों, और डॉक्टरों और कोविड के मरीज़ों की देखभाल कर रहे लोगों तक बढ़ गया है.  इस तरह कोविड-19 महामारी अस्पृश्यता का नया फैलाव लेकर आयी है. सामाजिक दमन और अन्याय की हरहाल में मुख़ालफ़त करने वाले हम लोगों को अपनी पूरी ताक़त से इस साम्प्रदायिक वायरस और क्रूर सामाजिक बहिष्करण का प्रतिकार करना होगा.

संप्रभु धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के निर्माता के रूप में हमारा सम्विधान हमें नागरिक के मूल अधिकारों से लैस करता है.  लेकिन मोदी सरकार हम भारत के नागरिकों के साथ ऐसी कठपुतली की तरह व्यवहार करती है जिसे चालबाज़ी और अंधविश्वास के धागों से नचाया जा सकता है. यह सरकार ग़रीब भारतीयों को इस्तेमाल करके फेंक देने लायक़ ऐसा नागरिक मानती है जिनके ऊपर बग़ैर किसी भत्ते या जीविका के साधन की व्यवस्था के,  बग़ैर राशन-पानी के, लॉकडाउन थोपा जा सकता है. लाखों की तादात में मज़दूर हज़ारों किलोमीटर की दूरी नापते हुए घर की ओर चल पड़े और लाखों की तादात में मज़दूर अभी बग़ैर राशन-पानी-पैसे के फँसे हुए हैं. सरकारी दावों के उलट शहरी और ग्रामीण ग़रीबों के पास कोई राशन या मदद नहीं पहुँच रही है. आज डॉक्टर अम्बेडकर होते तो वे हमसे उम्मीद कर रहे होते कि हम एक नागरिक की तरह इसका प्रतिरोध करें, अपने हक़ों और वाजिब हिस्से के लिए अड़ जाएँ और वैज्ञानिक चेतना और मानवीय तार्किकता के सहारे अंधविश्वास और पूर्वाग्रह के खिलाफ लड़ाई लड़ें.

अम्बेडकर पूरी जिंदगी अधिकारों और आज़ादियों के लिए लड़े. वे मजदूरों के अधिकार, महिलाओं की बराबरी और नागरिकों की आज़ादी के लिए लड़े. आज मोदी सरकार कड़े संघर्षों के बाद हासिल किए गए अधिकारों को एक के बाद एक मटियामेट करती जा रही है. जिस कानून के तहत अवाम पर यह लॉकडाउन लगाया गया है, वह ख़ुद 123 साल पुराना अंग्रेज़ों के ज़माने में बना 1897 का भयावह महामारी कानून है जो ऐसी हालत में नागरिकों के सभी वैधानिक अधिकारों और सुरक्षा को दरकिनार करता हुआ सरकार को मनमर्ज़ी का कोई भी क़दम उठाने का अधिकार देता है. एक दिन में काम के आठ घंटे को बढ़ाकर बारह घंटे किए जाने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं. गर्भस्थ भ्रूण की लिंग-जाँच, जिसके बाद कन्या भ्रूण हत्या के मामले होते हैं, को रोकने वाले कानून को इस महामारी से चिकित्सा व्यवस्था पर बने दबाव को कम करने के नाम पर स्थगित कर दिया गया है. नौकरी देने वाले मज़दूरी में बड़ी कटौती व भारी छँटनी की माँग कर रहे हैं और भारत के मुख्य न्यायाधीश साहब का पूछना यह है कि मजदूरों को पगार क्यों चाहिए जबकि उन्हें लॉकडाउन के दौरान खाने को तो मिल रहा है!

मानवाधिकार, ख़ासकर वंचित तबक़ों के मानवाधिकार और प्रतिरोधी तथा आलोचनात्मक आवाज़ों की बोलने की आज़ादी भारत में कभी भी सुरक्षित नहीं रही. लेकिन अब मोदी सरकार के दौर में जब सरकार हर आलोचनात्मक आवाज़ को ख़ामोश कर देना चाहती है, इनपर अभूतपूर्व खतरा है. इस महामारी के समय में जब सरकार को सभी राजनीतिक क़ैदियों को मुक्त कर देना चाहिए, जब सरकार को सभी अभियोगाधीन, बुज़ुर्ग और विकलांग क़ैदियों को पैरोल या ज़मानत पर छोड़ देना चाहिए,तब ऐसे समय में सरकार और ज़्यादा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तंग करने व उन्हें क़ैद करने की मुहिम में लगी हुई है. चिंतक-लेखक आनंद तेलतुम्बड़े और गौतम नौलखा से लेकर पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन व सीएए के खिलाफ प्रदर्शनकारियों तक को सकारी दमन का सामना करना पड़ रहा है. जीएन साईंबाबा, वरवरा राव, सुधा भारद्वाज जैसे शिक्षकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं  व दलित-आदिवासी व खेत मजदूरों के अधिकारों की आवाज़ उठाने वाले तमाम नेता अभी भी जेल के सींखचों के पीछे क़ैद हैं. डॉक्टर अम्बेडकर की मुक्तिकामी विरासत को याद करते हुए हमें मानवाधिकारों और सभी नागरिकों के लिए सम्वैधानिक आज़ादियों की सम्पूर्ण सुरक्षा की माँग करनी होगी.

[एम एल अपडेट, 14-20 अप्रैल 2020 का सम्‍पादकीय]