कोरोना के खिलाफ लागू किये गए लाॅकडाउन ने शहरी और दिहाड़ी मजदूरों के सामने जिंदा रहने की चुनौती पेश कर दी है. काम-धंधा बंद हो जाने की वजह से रोज कमाने-खाने वाले परिवारों के सामने जिंदा रहना एक बड़ी चुनौती बन गयी है. इस परिस्थिति में तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं और सरकार द्वारा जरूरतमन्दों के लिए फ़ूड पैकेट का इंतजाम किया गया. जिसमें जरूरतमंदों तक अनाज और पका भोजन पहुंचाया गया. इसी कड़ी में गरीबों को भोजन पहुंचाने और संकट की घड़ी में उनमें सामूहिकता का भाव विकसित करने के लिए एक विचार आया कि क्यों न मोहल्ला किचिन शुरू किया जाय, जिसमें तमाम जरूरतमंद लोग मिलकर भोजन बनायें और अपने मोहल्ले में वितरित करें. इसका सफल प्रयोग हाल में इस महामारी से जूझते हुए केरल में किया जा रहा है.
मोहल्ला किचेन विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए सामूहिक श्रम के आधार पर भूख से लड़ने का ज्यादा मानवीय विकल्प बनकर उभरा है. इसका ताजा उदाहरण हमे उत्तर प्रदेश के बनारस शहर में देखने को मिल रहा है.
महामारी के दौरान जब सरकार ने बिना तैयारी के 22 मार्च से लाॅकडाउन की घोषणा कर दी, तो देश के तमाम इलाकों की तरह बनारस जिले में भी गरीबों के सामने भूखमरी का संकट खड़ा हो गया. शहर में तमाम स्वयंसेवी संगठनों ने उनकी मदद का बीड़ा उठाया.
इसी दौरान भाकपा(माले) ने शहर में सक्रिय तमाम एक्टिविस्ट समूहों के साथ मिलकर शहरी गरीबों और कुछ ग्रामीण इलाकों के लिए राशन किट (जिसमें 5 किलो आटा, 5 किलो चावल, सब्जी, नमक, तेल और साबुन रखा गया) तैयार करके वितरित करना शुरू किया. यह रिपोर्ट लिखने तक एक माह में 551 परिवारों को राशन पहुंचाकर राहत दी जा चुकी है. इसी बीच जिलाधिकारी ने राहत कार्यों पर एकाधिकार का प्रयोग करते हुए प्रशासन की अनुमति बिना गरीबों में राशन वितरण पर रोक लगा दी.
ऐसी परिस्थिति में सांगठनिक रूप से मोहल्ला किचन अस्तित्व में आया। इस दौरान राहत कार्य के जरिये भाकपा(माले) और तमाम प्रगतिशील संगठन एक साथ आकर जिले में एक नई उभरती संभावनापूर्ण वाम एकता का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं. यह एकता राहत कार्य कमेटी के रूप में स्थापित होकर उभरी है.
मोहल्ला किचन बनारस में चार स्थानों – कांशीराम आवास योजना, पक्की बाजार, लहरतारा-पसियाना गली, चांदपुर-पत्थर कटान – पर चलाया जा रहा है. हरेक स्थान के लिए दो व्यक्ति मानिटरिंग करते हैं. हर मुहल्ले के 10 व्यक्ति जिसमें पुरुष और महिला दोनों शामिल हैं, मोहल्ला किचन के लिए जिम्मेदार होते हैं. वे यह तय करते हैं कि आज रसोई में क्या बनेगा, कितना बनेगा और इसके लिए कितनी सामग्री की आवश्यकता होगी. ज़ाहिरा तौर पर सामुदायिक भोजन का यह प्रयोग अति गरीब और पिछड़े मोहल्लों में ही हो रहा है. महामारी के दौर में राहत कार्य कमेटी ही इन मोहल्लों में राशन मुहैया कराती है और मानवीय श्रम सामूहिक होता है.
भोजन की गुणवत्ता के सम्बंध में राहत कार्य कमेटी में सक्रिय भूमिका निभा रहे और मानिटरिंग के लिए जिम्मेदार बीएचयू के छात्र शशांक और शशिकान्त मोहल्ला किचन के बारे में बताते हैं कि संक्रमण से बचने के लिए स्वास्थ्य विभाग के मानकों का पूरा खयाल रखा जा रहा है. दोनों छात्रों ने बताया कि खाना बनाने में लगी टीमें मास्क व सेनेटाइजर का उपयोग नियमित रूप से सावधानी के साथ करती हैं.
कांशीराम आवास योजना में चल रहे मोहल्ला किचन का प्रयोग जिले में चल रहे चारों स्थानों में से सबसे अधिक सफल रूप में सामने आ रहा है. हर रोज भोजन बनाने में अपने श्रम का योगदान दे रहे करीम जी का कहना है कि राहत कार्य के जरिये मिल रहे राशन से कहीं अधिक मोहल्ला रसोई कारगर सिद्ध हो रही हैं. इसके जरिये सामूहिकता का अहसास होता है और कर्फ्यू के ऊबाऊ माहौल में सकारात्मक और सृजनात्मक आनन्द का संचार भी होता है. वह बताते हैं कि हर जोज 700 से 800 लोगो का भोजन हम लोग 4 से 5 घंटे में मिलकर तैयार करते हैं. उसके बाद पैकिंग करके मोहल्ले के लोग घर-घर वितरण का कार्य करते हैं.
पूर्व मुख्यमंत्री मायावती द्वारा महागरीब दलितों के लिए शुरू की गई कांशीराम आवास योजना (शिवपुर, वाराणसी) प्रदेश की सबसे बड़ी आवास योजना है. इसकी आबादी लगभग 13 से 15 हजार है. महामारी में जब भूख का बड़ा संकट सभी गरीबों के सामने खड़ा है तब क्या मायावती जी की तरफ से कोई राहत अभियान इस क्षेत्र में चलाया गया? इस सवाल के जवाब में यहां के निवासी सुनील का कहना था कि बहनजी ने अपने कार्यकाल में हम गरीबों के लिए कांशीराम आवास तो बनवा दिए, लेकिन अब ये घर काफी पुराने और जर्जर हो गए हैं. सरकार भी यहां मरम्मत का कार्य कराने से अपने हाथ खींच लेती है. वह बताते हैं कि कोरोना के कर्फ्यू काल में किसी भी राजनैतिक दल द्वारा हमें किसी भी प्रकार की कोई राहत नहीं दी गई. हालांकि सरकार की तरफ से एक बार कुछ लोगों को राशन दिया गया, लेकिन वह राशन खाने योग्य नहीं था. ऐसे में सामूहिक भोजन निर्माण ने भूख की समस्या को खत्म करने में काफी हद तक मदद की है.
मोहल्ला किचन में मुस्लिम समुदाय से जुड़े कई नौजवानो ने भी अपना श्रम दिया है. एक नौजवान ‘राजा’ कचहरी में एक होटल मालिक हैं. लेकिन लाॅकडाउन के कारण होटल बंद पड़ा है. जब इस सामुदायिक किचन की जानकारी उन्हें मिली तो उन्होंने मोहल्ला इसका हिस्सा बनने का मन बना लिया. सभी को लजीज बिरयानी बनाना सिखाया, खुद बनाया भी और मोहल्ले में वितरित भी करवाया. यह सिलसिला आगे भी जारी रहा.
23 साल की शहजादी बनारस में तकरीबन एक माह से चलाये जा रहे राहत अभियान की सक्रिय महिला साथी हैं. मोहल्ला किचन के सम्बन्ध में स्थानीय महिलायें क्या सोच रही हैं? इस सवाल पर शहजादी ने हमे बताया कि महिलाएं खुश हैं कि मोहल्ले के पुरूष भी मेहनत और लगन से भोजन निर्माण में तन्मयता से लगे हैं. और वे यह भी उम्मीद कर रही हैं कि घरेलू श्रम से आंख चुराने वाले पुरुष इससे कुछ सीखेंगे और एक दिन इसी तरह घरेलू काम में बराबर मददगार होंगे.
बनारस में जनता के धन से, जनता के लिए चलाए जा रहे मोहल्ला किचन महामारी के दौरान उपजे भूख के संकट को कम करने में एक सफल प्रयोग तो सिद्ध हो रहे हैं लेकिन इनका भविष्य क्या होगा? इस पर भाकपा(माले) की केंद्रीय कमेटी सदस्य का. मनीष शर्मा जो जिले में राहत कमेटी संचालित कर रहे हैं, का कहना है कि सामुदायिक किचन समाजवादी समाजों की मुख्य विशेषता रही है। आज जब कल्याणकारी राज्य की अवधारणा फेल हो रही है और सरकारें संकट की स्थिति में जनता का पेट भरने में नाकाम हो रही हैं, तो ऐसे में जनता ही नए विकल्प गढ़ रही है और मोहल्ला किचन यानी सामुदायिक भोजन का प्रयोग नया विकल्प बनकर खड़ा हो रहा है.
राहत कमेटी में भाकपा(माले), आइसा, ऐपवा, बीसीएम, एआईएएसएफ और एक्टू शामिल हैं.
– कुसुम वर्मा