वर्ष - 29
अंक - 7
07-02-2020

बोडो क्षेत्र में शांति के लिए उठाया गया हर कदम स्वागत-योग्य है. और, इस तरह से बोडो समझौते को तमाम बोडो ग्रुपों का समर्थन प्राप्त है और असम में भी बहुत लोग इसकी तरफदारी कर रहे हैं. लेकिन साथ ही, कई आशंकाएं और सवाल हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है. समझौते की शर्तें बीटीएसी क्षेत्र में गैर-बोडो जनता के अधिकारों के बारे में चिंता पैदा करती हैं. खासकर ऐसा तब होता है, जब खबरों के मुताबिक संबंधित क्षेत्र के निर्वाचित सांसद को समझौता संपन्न करते वक्त विश्वास में नहीं लिया गया. बोडो समझौते के खंड 8 में कार्बी अंग्लांग और दिमा हसाओ में रहने वाले बोडो लोगों के लिए अनुसूचित जनजाति (पहाड़ी जनजाति) का दर्जा देने की बात कही गई है. इससे इन पहाड़ी जिलों के मौजूदा जनजाति लोगों पर विपरीत असर पड़ेगा.

एक सवाल यह भी पूछना जरूरी है: शासक भाजपा ने अलग से केवल बोडो ग्रुपों के साथ समझौता करना क्यों पसंद किया ? उसने असम को पूरी तरह आगोश में लेने वाले सीएए-विरोधी आन्दोलन तथा लंबे समय से चल रहे अन्य आन्दोलनों, जैसे कि कार्बी अंग्लांग आन्दोलन, उपेक्षा क्यों कर दी है ? ऐसा लगता है कि सीएए-विरोधी आन्दोलन में फूट डालने तथा राज करने के मकसद से ही यह प्रयास किया गया है.

इस समझौते में वादा किया गया है कि उन उग्रवादियों के खिलाफ चल रहे मुकदमों की ‘समीक्षा’ की जाएगी, जिनपर जघन्य अपराधें का आरोप है अथवा जो इसके अभियुक्त हैं. इसका मतलब यह है कि बीटीएसी इलाके में बम विस्फोटों के अभियुक्तों और मुस्लिम जनसंहार के आरोपियों पर चल रहे मुकदमों की ‘समीक्षा’ की जाएगी. यह परेशान करने वाली बात है कि भाजपा सरकार सोचती है कि उसे आतंकवाद और नफरती अपराधें की ‘समीक्षा’ करने और उन्हें माफी देने का अधिकार है. समझौते के नाम पर न्याय के साथ समझौता नहीं किया जा सकता है.