वर्ष - 29
अंक - 7
07-02-2020

इस साल का बजट मोदी सरकार की तबाही फैलाने वाली नीतियों का ही अगला चरण है. इसमें बेरोजगारी, महँगाई, खेती की बदहाली और घटती मजदूरी से पहाड़ों तले कराहती आम अवाम के लिए कोई राहत नहीं है.

जैसा कि बजट दस्तावेज खुद कहता है, सम्पूर्ण रोजगार में कैजुअल श्रम का प्रतिशत घट गया है. और भाजपा सरकार श्रमशक्ति का कैजुअलाईजेशन कर रही है! रोजगार के मामले में यह एक खौफनाक परिदृश्य है. ‘स्व-रोजगार’ श्रम अभी भी उतना ही है जितना वह आठ साल पहले 2011 में था – 50 प्रतिशत. यह आँकड़ा भी भी बढ़ती बेरोजगारी की तरफ ही इशारा करता है.

एलआईसी को बेचने का कदम एक तरफ तो करोड़ों खाताधारकों के जीवन व सुरक्षा को खतरे में डाल देगा और दूसरी तरफ लोगों की सामाजिक सुरक्षा और ज्यादा खतरे में पड़ जाएगी. इससे राजस्व जुटाने में सरकार की अक्षमता का भी पता चलता है. इसलिए सरकार कोरपोरेट लालची घरानों को छूट देने के लिए लोगों की गाढ़ी मेहनत की कमाई को छीनने पर तुली है. केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का विनिवेश लोगों के भारी विरोध के बावजूद जारी है.

यह बजट मनरेगा के मद में अध्कि धन आवंटित करके ग्रामीण बेरोजगारी व मजदूरी के संकट से निपट सकता था, और किसान संगठनों की माँग के मुताबिक स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए धन आवंटित कर सकता था. बजाय इसके यह बजट 16 सूत्रीय कार्यक्रम लेकर आया है जो खेती और कृषि भूमि पर बड़े कारपोरेट घरानों के कब्जे की आगे राह खोलता हुआ कृषि क्षेत्र में उदारीकरण की नीतियों का बढ़ाव भर है. मनरेगा का आवंटन साल 2019-20 के 71202 करोड़ के संशोधित अनुमान से साल 2020-21 में 61500 करोड़ तक घटा दिया गया, जबकि इस योजना में बिना भुगतान की मजदूरी और लम्बित भुगतान की रपटें आ रही हैं और कोई भी नया काम नहीं दिया जा रहा है.

सार्वजनिक क्षेत्र की कीमत पर कोरपोरेट क्षेत्र की कम्पनियों को सौगात देने की विनाशकारी नीति जारी है. बजट कई रूपों में कारपोरेट क्षेत्र को थोड़ा ठोस फायदा पहुंचाता है, दूसरी तरफ आयकर की सीमा घटाने की बात करता है, जो कि वैकल्पिक है. आयकर की नई दरें चुनने और छूट न लेने का मतलब जन-कल्याण में निवेश, दान, और चंदे की लम्बे समय से चली आ रही नीति की विदाई है. इन मदों में दी गयी राशि अब तक आयकर से छूट के दायरे में आती है. इस लिहाज से करदाताओं को जन-कल्याण में निवेश, दान, और चंदे के लिए हतोत्साहित करना एक प्रतिगामी कदम है.

बैंक में पैसा जमा करने वालों की बीमा सीमा एक लाख से बढ़ाकर पांच लाख कर दी गयी है. मतलब यह भी हुआ कि सरकार यह मान रही है कि बैंकों में रखा लोगों का पैसा सुरक्षित नहीं है. लोगों की बचत को बंध्क बनाया गया है ताकि कारपोरेट बैंकों को लूटना जारी रख सकें. यह नाकाबिले बर्दाश्त चीज है. जनता द्वारा जमा की गयी पाई-पाई सुरक्षित होनी चाहिए. नोटबंदी के जरिये इसी सरकार ने लोगों को उनकी गाढ़ी कमाई को बैंकों में जमा करने पर मजबूर किया था. और तो और, लोग गाढ़े वक्त में बैंकों में जमा रकम में से बीमित हिस्सा भी नहीं निकाल सकते, पीएमसी बैंक घोटाले व इस तरह के दूसरे मामलों में यही देखा गया.

बजट सरकारी डाटा के लिए नयी राष्ट्रीय नीति बनाने की बात करता है. यह बात चिंतित करने वाली है क्योंकि इस सरकार ने अब तक सरकारी आँकड़ों के साथ अभूतपूर्व छेड़-छाड़ की है. डाटा पार्क बनाने का प्रस्ताव सिर्फ आंकड़ा साम्राज्यवाद को बढ़ावा देगा, जबकि अमेरिका के दबाव में पहले ही निजता विधेयक के जरिये आंकड़ों के स्थानीयकरण को कमजोर किया जा चुका है. अभी तक तो यह तथाकथित ‘डिजिटल सरकार’ नागरिकों के लिए डिजिटल तबाही ही लेकर आयी है, लेकिन अब और अधिक आँकड़ों के समेकन तथा आँकड़ा केंद्रों को बनाने का प्रस्ताव लाकर सरकार इस डिजिटल एकाधिपत्य के युग में विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एजेंडे को ही आगे बढ़ा रही है. इससे यह भी आशंका उठती है कि सरकार की मंशा लोगों की व्यक्तिगत आजादी में कटौती व उनकी निगरानी की है.

पिछले साल बहुप्रचारित आयुष्मान भारत योजना का संशोधित बजट अनुमान 6556 करोड़ से घटकर लगभग आध, 3314 करोड़ था. इस साल भी हमें देखना होगा कि असल में इस योजना में कितना खर्च होता है और कितने लोगों को इसका फायदा मिलता है. इसी तरह प्रधानमंत्री-किसान योजना में आवंटित राशि का एक तिहाई पिछले साल खर्च नहीं किया गया.

सरकार नाबार्ड में अपनी शेयर पूँजी साल दर साल घटाती जा रही है. अब यह दो साल पहले की रकम से घटकर आधी, सिर्फ 1000 करोड़ रह गयी है. यह आँकड़ा कृषि के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रति पक्षधरता की नीति की तरफ लगातार बढ़ते जाने को चिन्हित करता है.  

बजट रेलवे सुरक्षा बढ़ाने के लिए कुछ नहीं करता और न ही रेलवे के निजीकरण पर लगाम लगाने के कोई उपाय करता है.

सरकार द्वारा नामी शैक्षिक संस्थाओं के भीतरी लोकतंत्रा और पूरे शैक्षिक माहौल पर हमले के दौर में, इस बजट में शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण सम्बंधी कदम बढ़ाए गए हैं जो देश के लिए तबाही लाने वाले हैं. बजट महिलाओं, अनुसूचित जाति व समाज के अन्य कमजोर तबकों के लिए आवंटित धन में बिना किसी मानीखेज विस्तार के सिर्फ जबानी जमाखर्च से काम चलाता है. स्वच्छ भारत मिशन पहले ही बुरी तरह असफल हो चुका है, अब इस बजट में बगैर धन आवंटन के, कोई आशा नहीं रह गयी है कि मैला ढोने में लगे हुए श्रमिकों को इस मुल्क में नजदीकी भविष्य में न्याय मिल सकेगा!

2015-16 से ही सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी लगातार गिरता जा रहा है जो इस साल सबसे कम था. इस सिलसिले में बजट पुरानी ही राह पर चल रहा है, उसने इस समस्या से निपटने के लिए कोई कदम उठाया है जबकि अब यह बहुत साफ है कि इस दौर की मंदी किसी वैश्विक संकट के कारण नहीं, बल्कि ‘मेड इन इंडिया’ ही है.

सरकार ने बजट में सभी के लिए 3,000 रूपए प्रतिमाह पेंशन, स्कीम कार्यकर्ताओं के नियमितीकरन, समान काम के लिए समान वेतन जैसी लोकप्रिय माँगों पर कोई ध्यान नहीं दिया है. अगर सरकार इन माँगों को मान लेती तो इससे मंदी से उबारने में मदद मिलती.

कुल मिलाकर यह बजट सरकारी प्रचार अभियान की तरह ही है जो गिरती अर्थव्यवस्था को सम्भालने, बढ़ती बेरोजगारी को दूर करने, मंदी दूर करने और माँग बढ़ाने – खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में माँग बढ़ाने जैसे मामलों पर कुछ भी नहीं करता, और हालात को जस का तस बनाए रखता है.