वर्ष - 29
अंक - 1
30-12-2019
– रामजतन शर्मा

गोरे साहबों की हुकूमत से आजादी के संघर्ष में शहीद हुए तीन देशभक्त नायकों – रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां और ठाकुर रोशन सिंह की साझी शहादत-साझी विरासत के अवसर पर 19 दिसंबर 2019 को भारत ने एक बार फिर अखिल भारतीय ऐतिहासिक जनउभार देखा. इस बार यह जनउभार भूरे साहबों – संघ-भाजपा, मोदी-शाह की स्वेच्छाचारी निरंकुश हुकूमत के खिलाफ था, उस हुकूमत के खिलाफ जो दश को टुकड़े-टुकड़े कर देने, देश में तबाही मचा देने, लोकतंत्र व संविधान को खत्म कर फासीवादी शासन लागू करने पर आमादा है. नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय पापुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) उसकी इसी मंशा का इजहार करता है. इसके सिवा वह कुछ नहीं है. भारत को एक धार्मिक राष्ट्र-हिन्दु राष्ट्र में तब्दील करने की आरएसएस की बुनियादी परियोजना को अंजाम देने की योजना के तहत यह सब किया जा रहा है. लिहाजा यह जनउभार लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता व अखंडता एवं भारत की गंगा-जमुनी तहजीब की विरासत को स्थापित करने का इजहार कर रहा था. इस जनउभार में अखिल भारतीय स्तर पर जनता के विभिन्न हिस्सों व तबकों की जोशीली व आक्रोशपूर्ण शिरकत दिखी.

इतिहास इस बात का गवाह है कि साम्राज्यवादी गुलामी, गोरे साहबों की हुकूमत से आजादी के संघर्ष के दरम्यान हमारी राष्ट्रीय एकता का निर्माण हुआ था. उसी संघर्ष के दरम्यान तमाम छोटी राष्ट्रीयताओं, विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों, जातियों और जनता के विभिन्न हिस्सों की विशाल एकता बनी थी और एक नए राष्ट्र के बतौर भारत का उदय हुआ था. उस आजादी के संघर्ष के बाद शायद पहली बार 19 दिसंबर के अखिल भारतीय जनउभार में उस राष्ट्रीय एकता की एक झलक दिखी. हमारे देश के सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय मुस्लिम, जिसे हिन्दुत्ववादी शक्तियां मुख्य निशाना बनाकर भारत को एक हिन्दु राष्ट्र बनाने का मनसूबा बांधे हुए है, की इस जनउभार में जबरर्दस्त शिरकत दिखी. मुस्लिम समुदाय ने इस तरह आजादी के संघर्ष के दिनों की अपनी ऐतिहासिक विरासत-साझे संघर्ष की विरासत को पुनर्जीवित व बुलंद किया. और, यह हुआ ‘साझी शहादत-साझी विरासत’ के ऐतिहासिक दिवस पर.

jahanabad

 

बहरहाल, इसके साथ ही इस जनउभार में अन्य अल्पसंख्यक समुदायों, छोटी राष्ट्रीयताओं, मजदूरों-किसानों, व्यवसायी वर्गों, छात्र-नौजवानों, महिलाओं, बौद्धिक जगत के लोकतांत्रिक व प्रगतिशील लोगों आदि की बढ़चढ़कर भागीदारी थी. और, अंतराष्ट्रीय जगत की प्रगतिशील व लोकतंत्रपसंद जनमत का समर्थन भी मिला. बिहार ने ऐतिहासिक दिवस 19 दिसंबर के बंद के बाद फिर 21 दिसंबर को भी बंद का आयोजन किया और दोनों ही दिन बंद उल्लेखनीय जनभागीदारी के साथ शानदार सफल रहा.

मोदी-शाह सरकार सहित भाजपा की तमाम राज्य सरकारें अंग्रेजी हुकूमत की तर्ज पर आंदोलन का दमन करने के लिए क्रूर हथकंडे का इस्तेमाल कर रही थीं और वह आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में जारी है. इस उभार ने मोदी-शाह हुकूमत को एक प्रभावी आघात किया है, और वह झांसा देने के लिए अब नई चालबाजी अख्तियार करने की कोशिश कर रही है.

बहरहाल, अंगेजी हुकूमत से आजादी के संघर्ष के दरम्यान राष्ट्रीय स्तर पर एक स्थापित राजनीतिक नेतृत्व था जो कांग्रेसियों के हाथ में था. इस आंदोलन में अभी कोई स्थापित राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व नहीं है. वामपंथ को इस अभाव को पूरा करने के लिए, खासकर क्रांतिकारी वामपंथ को, आगे आना होगा. वामपंथ ने नागरिकता संशोधन बिल-एनआरसी के खिलाफ ऐतिहासिक दिवस 19 दिसंबर केा अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिवाद का आह्वान करके एक पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की है. पिफर भी, यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और साथ ही वामपंथ के लिए एक ऐतिहासिक अवसर भी है. लिहाजा वामपंथ केा इस अवसर को गिरफ्त में लेना चाहिए.