डंडों, लोहे की छड़ों और बड़े हथौड़ों से लैस नकाबपोश नौजवान लड़कों-लड़कियों के एक ग्रुप द्वारा जेएनयू के छात्रों और शिक्षकों पर बर्बर हमले की तस्वीरों ने एक बार फिर भारत में बढ़ती फासीवादी हिंसा को समूची दुनिया के सामने उजागर कर दिया है. हिंसा की तीव्रता से कहीं ज्यादा इसके पूरे पैटने से मोदी शब्दावली ‘सब कुछ ठीक-ठाक है’ में अभी तक यकीन रखने वालों की आंखें खुल जानी चाहिए.
इस हमले के ठीक पहले जारी किए गए व्हाट्सऐप संदेशों के स्क्रीनशाॅट साफ-साफ बताते हैं एबीवीपी हमला सुनियोजित किस्म का था, जिसमें जेएनयू और दिल्ली विवि के सुपरिचित एबीवीपी कार्यकर्ताओं समेत जेएनयू के अंदर व बाहर के लोगों की संलिप्पता थी. कई वीडियो क्लिप्स नकाबपोश लोगों को जेएनयू की सड़कों पर मंडराते और हमलों को अंजाम देने के बाद पुलिस की मौजूदगी में ठसक के साथ बाहर दिखा रहे हैं. इससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि इस पूरी घटना को पुलिस और जेएनयू के सुरक्षा गार्डों की मिलीभगत से अंजाम दिया गया था. यह भी दिखता है कि हमलावरों ने चुन-चुन कर लोगों को अपना निशाना बनाया. जहां वामपंथी छात्र कार्यकर्ताओं तथा मुस्लिम व कश्मीरी छात्रों को खास तौर पर हमले का निशाना बनाया गया; वहीं जिन कमरों में भाजपा से जुड़ाव प्रदर्शित करने वाले पोस्टर व पुस्तकें थीं, ताकि वे हमले से छात्रों को बचाने आने वाले दिल्ली के नागरिकों को रोकने की खातिर जेएनयू की ओर आने वाली सड़कों को जाम कर सकें.
इस आतंकपूर्ण हमले के प्रति मोदी सरकार और जेएनयू प्रशासन का जवाब जाने-पहचाने तर्ज पर ही आया. निरपेक्ष लहजे में इस हिंसा की भर्त्सना करते हुए मोदी के मंत्रियों ने – खासकर वहां की छात्रा रह चुकीं निर्मला सीतारमण और सुब्रमनियम जयशंकर ने जो कुछ हुआ, उसके लिए जेएनयू छात्रों पर ही आरोप मढ़ने की कोशिश की. प्रशासन ने फीस वृद्धि के खिलाफ चल रहे आंदोलन के संदर्भ में जेएनयू छात्रा संघ की अध्यक्ष आयशी घोष के खिलाफ एफआइआर दर्ज करा दिए – और देखिए, एफआइआर ठीक उस समय दर्ज कराए गए, जब हमलावर पूरी तरह वहां सक्रिय थे! और अब, जबकि मोदी-समर्थक मीडिया भी इस मनगढ़ंत संघी विमर्श को प्रदर्शित करने में दिक्कत महसूस कर रहा है, हाशिये पर के एक नए गिरोह को इस हमले की जिम्मेदारी लेने के लिए जिस किसी तरह से राजी करवा लिया गया है. तथाकथित ‘हिंदू रक्षा दल’ ने एक वीडियो क्लिप जारी करके न केवल इस जेएनयू हमले की जिम्मेदारी ली है, बल्कि उसे अन्य विश्वविद्यालयों में भी इसी किस्म के हमले करने की धमकियां भी दे डाली है!
5 जनवरी केा जेएनयू पर हुए नकाबपोशी हमले के पहले इस विश्वविद्यालय के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार चलाए गए थे और बहस-मुबाहिसा, लोकतंत्र व शैक्षिक उत्कृष्टता के उस माहौल के खिलाफ अनवरत युद्ध चलाया जा रहा था जिसके चलते जेएनयू उच्च शिक्षा और शोध के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विशिष्ट संस्थान बना है. जेएनयू छात्रों के लिए जिन शब्दों और उक्तियों का इस्तेमाल किया गया – जैसे कि टुकड़े टुकड़े गैंग, सरकारी पैसे पर पलने वाले मुफ्तखोर आदि – और जिस तरह से जेएनयू को तमाम बुराइयों का राष्ट्र-विरोधी अड्डा के बतौर चित्रित किया गया, उस सब का एक ही मकसद था कि लोगों के मन में इस संस्थान को बदनाम किया जाए और 5 जनवरी की तरह होने वाले संगठित हमले के लिए रास्ता साफ किया जा सके और इसे वैध ठहराया जा सके.
जेएनयू की यह घटना जामिया मिलिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जादवपुर विश्वविद्यालय जैसे अन्य संस्थानों पर हुए हमलों और नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शांतिपूर्ण जन प्रतिवादों पर क्रूर दमन – जिसमें उत्तरप्रदेश, असम व बिहार के कम से कम तीन दर्जन लोगों की जान गई है – की पृष्ठभूमि में घटित हुई है. सीएए विरोधी प्रतिवादों की व्यापकता और तीव्रता तथा महाराष्ट्र व झारखंड जैसे राज्यों में सत्ता से बेदखली के चलते घबराकर मोदी-शाह शासन ने अब तमाम किस्म के प्रतिवादों के खिलाफ क्रूर चौतरफा युद्ध छेड़ दिया है. देश का यह बदला हुआ मिजाज नौजवानों के बीच तथा विश्वविद्यालयों व अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में और सरकार में सबसे अच्छी तरह दिख हरा है. अगर मोदी-शाह शासन सोचता है कि वह छात्रों के खिलाफ युद्ध छेड़ कर अपनी तमाम विभाजनकारी, विनाशकारी व गैर संवैधानिक नीतियों के साथ चल सकती है, तो इसे मूर्खों का स्वप्न विलास ही कहा जाएगा.
सीएए ने देशव्यापी जनजागरण की प्रक्रिया शुरू कर दी है, जिसमें संविधान की ‘प्रस्तावना’ न केवल भविष्य-दृष्टि मूलक वक्तव्य के बतौर उभरी है, बल्कि वह ‘हम, भारत के लोग’ के लिए कार्रवाई का घोषणापत्र भी बन गई है. दिल्ली के हृदयस्थली में स्थित जामिया व जेएनयू के छात्रों पर हमलों ने इस जन संकल्प को और मजबूत बनाया है, तथा इन संघर्षशील छात्रों के प्रति स्वतःस्फूर्त समर्थन और देश का बंटवारा करने इसे बर्बाद करने पर आमादा दमनकारी शासकों के खिलाफ आक्रोश लगातार फैलात और बढ़ता जा रहा है. निजीकरण और श्रम अधिकारों के हनन के खिलाफ केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा 8 जनवरी को की गई अखिल भारतीय हड़ताल को किसानों, ग्रामीण मजदूरों तथा छात्रों ने भी अपना पूरा समर्थन दिया है. इस प्रकार जागृत जनता की एकता व संकल्पबद्धता अंतिम विश्लेषण में हमेशा ही निरंकुश शासन के दमन व उदंडता से कहीं ज्यादा ताकतवर सिद्ध होती है. उम्मीद है कि साल 2020 मोदी-शाह निजाम को लोकतंत्र का यह बुनियादी पाठ जरूर पढ़ाएगा.