चो वह ‘भारत माता’ हो या ‘गऊ माता’, ऐसा लगता है मानो भारतीय राजनीति में आजकल ‘मातृत्व’ हिंसा और नफरत का बहाना मात्र रह गया है. खास तौर पर, हमारे प्रभावी राजनीतिक विमर्श में किसी लड़की की परवरिश का मतलब हो जाता है उसे अपनी स्वायत्तता, खासकर किसी निषिद्ध समुदाय या लिंग के किसी व्यक्ति से प्यार करने की स्वायत्तता पर अमल करने से रोकना. और उसी विमर्श में किसी लड़के की परवरिश का मतलब होता है उसे अन्य समुदायों अथवा अन्य देशों के लोगों से नफरत करने का प्रशिक्षण देना. क्या ऐसे अन्य रास्ते भी हैं जिनमें भारतीय राजनीति में परवरिश का प्यार और वेदना झलकती दिखाई दी हो?
1997 में जब छात्र नेता चंद्रशेखर (जो मेरा घनिष्ठ मित्र और सहयोद्ध रहा था) की एक अपराधी डाॅन एवं राजद के सांसद शहाबुद्दीन के निर्देश पर हत्या कर दी गई थी, तब उसकी मां कौशल्या देवी ने न्याय की मांग करते हुए एक दीर्घकालीन आंदोलन का नेतृत्व किया था. सन् 2016 से राधिका वेमुला अपने बेटे – अम्बेडकरवादी कार्यकर्ता रोहित, जिसने केन्द्र सरकार के मंत्रियों एवं संघी नेताओं के दबाव पर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न के विरोध में खुद अपनी जान ले ली – को न्याय दिलाने की मांग पर चले संघर्ष का नेतृत्व करती आ रही हैं. रोहित की मृत्यु के बाद जो आक्रोश भड़का उसे ठंडा करने की नाकाम कोशिश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि रोहित “भारत माता का लाल” था – जबकि भाजपा ने मां राधिका और उनके बेटे रोहित की लानत-मलामत करना जारी रखा! जेएनयू के छात्र नजीब (जो एबीवीपी के एक कार्यकर्ता समूह द्वारा पिटाई करने के बाद से कैम्पस से ही लापता है) की मां फातिमा नफीस भी अपने बेटे को खोजने के लिये एक आंदोलन कर रही हैं.
हरियाणा की चंदरपती अपने बेटे मनोज को न्याय के लिये लड़ रही हैं – मनोज को उसकी पत्नी बबली के साथ हरियाणा में (बबली के परिवार के सदस्यों द्वारा) मार डाला गया क्योंकि उन्होंने एक ही गोत्र का होते हुए शादी की थी. सन् 2002 में अपने बेटे नीतीश कटारा के अपहरण और “ऑनर किलिंग” ने नीलम कटारा को प्यार के खिलाफ होने वाले जातिगत-पितृसत्तात्मक अपराधों के विरोध में अथक योद्धा में बदल दिया.
ये माताएं हमें एक ऐसी राजनीति देती हैं जो मातृत्व की मानवता और वेदना को पुनस्र्थापित करती हैं. ‘मां भारती’ के जुमलेबाजी के बिल्कुल विपरीत, ये महिलाएं, अपने बच्चे को खोने की असहनीय पीड़ा के अहसास के साथ, मां की छवि को, मातृत्व के प्रेम, प्रसव-वेदना और क्षति को पुनस्र्थापित करती हैं.
सन् 1979 में सत्या रानी चड्ढा की बेटी शशि बाला, जिसे शादी किये बस एक साल हुआ था, उन हजारों नवविवाहिता वधुओं में से एक थी जिनकी मौत ‘रसोईघर में चूल्हे में आग लगने’ से हो चुकी है, क्योंकि उनके माता-पिता पति और सास-ससुर द्वारा की गई दहेज की मांग को पूरा नहीं कर पाये. सत्या रानी जानती थीं कि उनकी बेटी ने आत्महत्या नहीं की है – क्योंकि शशि बाला का पति अपनी पत्नी को धमकियां दे रहा था कि अगर वह दहेज की मांग को पूरा न कर सकी तो उसे मार डाला जायेगा. उसी साल, एक महिला मजदूर शाहजहान आपा ने भी दहेज हत्या में अपनी बेटी नूरजहां को खो दिया.
1980 के दशक में दिल्ली की सड़कों पर जो विशाल पैमाने पर दहेज-विरोधी आंदोलन फूट पड़े थे, उनके बीच सत्या रानी और शाहजहान की एक-दूसरे से मुलाकात हुई – और अपनी बेटियों की मौत के तीन वर्ष बाद उन दोनों ने मिलकर शक्ति वाहिनी नाम से एक नारीवादी संगठन की स्थापना की जिसका मकसद था घरेलू हिंसा का सामना कर रही महिलाओं की मदद करना. जैसा कि शाहजहान आपा ने बताया, उन्होंने अन्य बेटियों के अधिकारों की रक्षा के लिये संघर्ष करने के आवेग के बतौर (अपनी) बेटियों की मौत का इस्तेमाल करने का संकल्प लिया.
शाहजहान आपा ने बाद में बताया, “हमारे समाज में, मर्द को शादी करने पर एक मुफ्त नौकरानी मिल जाती है, लेकिन मुझे यकीन है कि शादी में मर्द और औरत दोनों साझीदार बन जाते हैं और दोनों का दर्जा समान होता है. आज हमारी अपनी सरकार हमसे वादाखिलाफी कर रही है, पुलिस हमसे वादाखिलाफी कर रही है... लेकिन हर दिन मैं बस में चढ़ती हूं, जो मुझे मेरे ऑफिस तक पहुंचा देती है ताकि मैं उन महिलाओं से मिल सकूं जिनके पास और कोई ठांव नहीं है. हिंदी में एक कहावत है, ‘मेरी शक्ति, मेरी बेटी’.
हमारा मुख्य धारा का राजनीतिक विमर्श बेटियों को बचाने और माताओं को पूजने के कानफाड़ू नारों से भरा पड़ा है. फिर भी एक ऐसे देश में जहां बेटियों को अवांछित और त्याज्य समझा जाता है, ऐसा क्यों है कि इन दो माताओं के बारे में हम इतना कम जान पाते हैं, जिन्होंने अपनी बेटी के प्रति प्यार और उसे खो बैठने के अहसास को दूसरी जरूरतमंद औरतों को दी जाने वाली शक्ति में बदल दिया?
इमरजेन्सी के दौरान 1 मार्च 1976 को केरल में कालीकट रीजनल इंजीनियरिंग काॅलेज (जिसे आज कालीकट एनआईटी के नाम से जाना जाता है) के एक छात्र को, जिसका नाम रंजन था, पुलिस उठा ले गई और उसे एक डिटेंशन कैंप में ले जाया गया. उसके बाद वह “लापता” हो गया. उसके पिता प्रोफेसर टीवी ईचर वारियर, जो हिंदी के रिटायर्ड शिक्षक रहे हैं, ने अपने बेटे की निष्फल तलाश शुरू कीविभिन्न मंत्रियों को, मुख्यमंत्री को सच्चाई मालूम थी मगर उनके सामने किसी ने स्वीकार नहीं किया. उनके अविचल संघर्ष के फलस्वरूप आखिर में सच्चाई सामने आ गई. राजन की मौत पुलिस हिरासत में बर्बर यातना के बाद हुई थी.
राजन को एक ‘नक्सलाइट’ मानकर गिरफ्तार किया गया था जबकि उसके किसी भी अपराध में शामिल होने का कोई सबूत नहीं था. उसकी कहानी इमरजेन्सी और उसके दौरान नागरिक आजादी एवं मानवाधिकारों पर हमले का पर्याय बन गई. उसको एक खास किस्म की बर्बर यातना दी गई थी जिसे मलयालम में “उरुट्टल” (रोलर चलाना) कहते हैं, जिसके दौरान उसकी जांघ पर एक भारी लकड़ी का लठ्ठे का रोलर चलाया गया, और उसके बाद एक पुलिस अफसर ने भारी बूटों से उसके पेट पर लातें मारी थीं.
प्रोफेसर ईचर वारियर ने अपने बेटे की खोज के बारे में एक किताब लिखी. इस किताब में उन्होंने बताया कि कैसे राजन की मां (जो अब मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गई हैं) ने कभी यह उम्मीद नहीं छोड़ी थी कि उनका बेटा वापस आ जायेगा. उन्होंने अपनी पुस्तक के अंत में कोट्टायम डिटेंशन कैंप के अपने दौरे का वर्णन किया है, जहां उनके बेटे को यातना दी गई थी और उसकी हत्या कर दी गई थी. उनके अंतिम शब्द पाठक के सामने एक सवाल खड़ा करते हैं और एक चुनौती भी पेश करते हैं. “मेरे पास अभी तक इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि मैं बदले की भावना महसूस करता हूं कि नहीं. मगर मैं दुनिया के सामने एक सवाल पेश करता हूं: आप क्यों मेरे निर्दोष बच्चे को उसकी मौत के बाद भी बारिश में भीगते क्यों खड़ा किये हो?
मैं दरवाजा बंद नहीं करता. बारिश अंदर आये और मुझे भिगो दै. कम से कम मेरा अदृश्य बेटा जान सके कि उसके पिता ने कभी दरवाजा बंद नहीं किया.”
राजन के पिता ने लिखा, “मुझे नई पीढ़ी को उस बेंच और रोलर के लिये नहीं छोड़ना चाहिये”. इन शब्दों से आज हमें शर्म आनी चाहिये और परेशान होना चाहिये क्योंकि ये बर्बर यातनाएं – ‘उरुट्टल’ की यातना समेत – हमारे पुलिस थानों में आज भी जारी हैं. इस किस्म की यातनाएं महज इमरजेन्सी की ज्यादती नहीं थीं, वे भारत में पुलिस की बेपरवाह, रोजमर्रे की कार्रवाई की अभिन्न अंग हैं. गरीबों के लिये, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के लिये हर दिन ही ‘इमरजेन्सी’ है, शासन में चाहे कोई भी बैठा हो.
फिर उसी केरल में 2018 में एक 67-वर्षीया एकल माता प्रभावती अम्मा को उन पुलिसवालों को सजा दिलाने में कामयाबी मिल गई, जिन लोगों ने उनके बेटे उदयकुमार पर यातना के उसी तरीके का इस्तेमाल किया था. रद्दी बटोरने वाले उदयकुमार को 13 साल पहले पुलिस ने छोटी-मोटी चोरी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था – और हिरासम में यातना देकर उसको मार डाला था. प्रभावती ने बताया कि उनका परिवार इतना गरीब था कि उनके पास उदयकुमार का फोटो खिंचवाने तक का कभी पैसा नहीं रहा, उनके पास उदयकुमार का जो एकमात्र फोटो है वह उनके बेटे की लाश का है. जब एक स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने उनके बेटे की हिरासत में हत्या के आरोप पर पुलिस अधिकारियों को सजा सुनाई, तब प्रभावती ने भी ठीक वही कहा जिसे ईचर वारियर ने दशकों पहले कहा था: “मुझे अपने बेटे के लिये इतना करना ही चाहिये था, ताकि किसी दूसरी मां को उस तकलीफ से न गुजरना पड़े जिससे मुझे गुजरना पड़ा है.”
इन पिताओं और माताओं ने अपना सब कुछ खो दिया जब उनके बेटों को पुलिस उठा ले गई, उनको यातनाएं दीं और उनकी हत्या कर दी – उन्होंने इसलिये संघर्ष किया ताकि दूसरों को उसी अंजाम से बचाया जा सके. एक समाज के बतौर, हिरासत में यातना के प्रति हमारी संवेदनहीन सहनशीलता इन माताओं-पिताओं को निराश करती है. इससे भी ज्यादा घृणित बात यह है कि इस किस्म की हिरासत में यातना को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा” और फ्मातृभमि की रक्षा” के बतौर जायज ठहराया जाता है, और मानवाधिकर एवं नागरिक आजादी के उसूलों को “राष्ट्र-विरोधी” बताकर तिरस्कृत किया जाता है.
"यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि आप दुनिया को संभवतः नहीं बदल सकते हैं, मगर यह भी जानकर कि साहित्य दुनिया के लिये अपरिहार्य है, आप दुनिया को बदलने के लिये लिखते हैं... लोग दुनिया को जिस नजरिये से देखते हैं, उसके अनुसार दुनिया बदलती है, और लोग दुनिया को जिस नजरिये से देखते हैं उसे अगर आप एक मिलीमीटर भी बदल सकते हैं, तो आप दुनिया को बदल सकते हैं.” – जेम्स बाल्डविन
“कल का गीत लिये होठों पर आज लड़ाई जारी है”. – महेश्वर
वर्ष 2012 के दिसम्बर और 2013 के जनवरी महीनों में चले जिस बलात्कार-विरोधी आंदोलन ने दिल्ली को अपने आगोश में ले लिया था, उसके दौरान ‘बेखौफ आजादी’ की मांग करते हुए – और साथ ही “नारी मुक्ति, सबकी मुक्ति” की मांग के भी निर्भीक नारे लगते हुए सुने गये थे.
महिलाएं (और यकीनन हम सब, महिलाएं, एलजीबीटीक्यू व्यक्ति, पुरुष) तभी पूरी तरह से आजाद हो सकते हैं जब समूची मानवजाति मुक्त होगी – और जैसा कि मुझे लगता है, उसके लिये हमें समूचे उत्पीड़क, शोषणमूलक ढांचे के जुए को उतार फेंकना जरूरी होगा. दूसरे शब्दों में, इसके लिये एक क्रांति की जरूरत होगी, मानव जन एक-दूसरे के सम्बंध में और प्रकृति के सम्बंध में किस प्रकार स्थित हैं, इस नजरिये में सम्पूर्ण बदलाव की जरूरत होगी.
अक्सर मुझसे पूछा जाता है कि समस्त ऊंच-नीच अनुक्रम से मुक्त, क्रांति को सम्पन्न कर चुकी दुनिया की कल्पना करने से फायदा ही क्या, अगर हमारे जीवनकाल में ऐसा यथार्थ में होने नहीं जा रहा?
क्रांतिकारी लक्ष्य एक लम्बे अभियान में कुतुबनुमा की तरह होते हैं – अपने मुकाम पर पहुंचने में काफी लम्बा वक्त लग सकता है, और हो सकता है कि वह मुकाम अभी दिखाई न दे रहा हो, मगर कुतुबनुमा इस बात को सुनिश्चित करता है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और हम अपना रास्ता नहीं खो बैठेंगेे.
अगर आप एक थाउजेंड पीस जिगसा पजल (ऐसी पहेली जिसमें किसी पूर्ण आकृति के अव्यवस्थित रूप से बिखरे एक हजार टुकड़ों को उनकी सही जगह पर सजाने से ही पूरी तस्वीर बनती है) को हल करना चाहते हैं तो आपके दिमाग में पूरी तस्वीर पहले से ही होनी चाहिये. पूरी तस्वीर के बिना आप छोटे-छोटे टुकड़ों को मिलाकर नहीं सजा सकते.
यह जरूरी है कि हम आज की लड़ाइयों में कल का गीत होठों पर लिये रहें – और यही चीज आपकी आज की लड़ाइयों को सार्थक बनाती है तथा उन्हें दिशा देती है. हमारे लिये एक ऐसे दिन की उम्मीद रखना और उसे साकार करने के लिये काम करना जरूरी है, जब समस्त महिलाएं और समूची मानवजाति आजाद होगी, और तमाम किस्म के ऊंच-नीच के ढांचे इतिहास बन जायेंगे – और सिर्फ तभी हम आज की लड़ाइयों को अलग-थलग, एक-दूसरे से सम्पर्कहीन टुकड़ों के बजाय सम्पूर्ण रूप में देख पायेंगेे.
क्रांतिकारी लक्ष्य अच्छे-अच्छे विचारों को मिलाकर बने कोरे सपने नहीं होते. क्रांतिकारी लक्ष्य मजबूती से जमीन पर टिके होते हैं – और साथ मिलकर काम करने वाले मानव जन उन सपनों को धरती पर साकार कर सकते हैं. उस क्रांतिकारी मुकाम पर अपनी नजरें मजबूती से टिकाये र खने से हम पहचान पाते हैं कि कैसे हम अपने लिये जिन निकटवर्ती लक्ष्यों को तय करते हैं उनको हासिल करना भी तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक महिलाओं के लिये स्वायत्तता उनके केन्द्र में नहीं होती.
‘स्वायत्तता’ महज किसी व्यक्ति द्वारा तय की गई ‘पसन्द’ नहीं होती – यह किसी सुपरमार्केट में बिकने वाले विभिन्न सामानों में से चुनने जैसी चीज नहीं है. नारीवादी नजरिये से ‘स्वायत्तता’ आवश्यक रूप से स्वायत्तता ही है – जिस हद तक संभव हो सके – सामाजिक एवं आर्थिक ढांचों से स्वायत्तता, और यह महज अपने लिये स्वायत्तता नहीं होती, जिससे दूसरी महिलाओं की, अन्य उत्पीड़ित लोगों की आजादियों को चोट पहुंचे.
मेरे दिमाग में प्राची त्रिवेदी हैं, जो निशा पाहूजा द्वारा 2012 में निर्मित डाक्युमेंटरी फिल्म ‘द वल्र्ड बिफोर हर’ की एक पात्र हैं. प्राची एक युवती हैं जो दुर्गा वाहिनी के एक कैंप में प्रशिक्षक हैं, जहां ग्रामीण भारत से युवतियों को लाकर हथियार चलाना और मुसलमानों से नफरत करना सिखलाया जाता है. प्राची के पिता विश्व हिंदू परिषद के नेता हैं, जिन्होंने प्राची को झूठ बोलने की सजा के बतौर उसका पैर जला दिया था – मगर प्राची कहती हैं कि उनके लिये ऐसा करना उचित ही था, क्योंकि उन्होंने प्राची को जन्म के समय ही मार डालने के बजाय, जैसा कि भारत में अन्य बहुतेरी लड़कियों के जन्म लेने साथ ही किया जाता है, जिंदा रहने दिया था. प्राची प्रचलित अर्थों में नारी-सुलभ नहीं हैं, और शादी करने में उनकी कोई रुचि नहीं है: मगर वे स्वीकार करती हैं कि उनके पिता ही उसका कोई निर्णय करेंगे. महिलाओं को दुर्गा वाहिनी कैंप में हथियार चलाने, नारे लगाने और मार्शल आर्ट सीखने में जो रोमांच महसूस होता है, उसको चारों ओर से एक विचारधारा घेरे रहती है जो कहती है कि महिलाओं को पुरुषों के मातहत रहना होगा; महिलाओं का मकसद है बच्चे पैदा करना; और महिलाओं को सिपर्फ तभी अपनी घरेलू भूमिका से बाहर निकल कर रणभूमि के लिये तैयार होना है जब मुसलमानों से देश को ‘बचाने’ के लिये – यानी अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा करने के लिये – उनकी जरूरत आ पड़े. यह नारीवादी स्वायत्तता नहीं है. एक युवती जो दुर्गा वाहिनी में शामिल होती है, थोड़े समय के लिये वह अनुभव करती है, जिसे आजादी का स्वाद जैसा लग सकता है – लेकिन उनको यह स्वायत्तता किसी पितृसत्तात्मक नजरिये वाले पिता की और एक फासीवादी संगठन की ‘अनुमति’ से केवल उसी हद तक मिलती है जिस हद तक वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों से नफरत कर सकती हो और उनके खिलाफ हिंसा में शामिल हो सकती होे.
उसी फिल्म में दो अन्य युवतियों की बात है जो मिस इंडिया सौंदर्य प्रतियोगिता में भागीदार हैं. क्या सौंदर्य प्रतियोगिता की यह दुनिया उन्हें स्वायत्तता प्रदान करती है? युवतियों के शरीर को बोटोक्स (शरीर से झुर्रियों को मिटाने के लिये एक न्यूरोटाॅक्सिक सौंदर्य प्रसाधन का इस्तेमाल) एवं अन्य अपमानजनक जांच-परख से गुजरना पड़ता है (मसलन जब उन सभी के चेहरे ढक दिये जाते हैं ताकि जज केवल उनकी टांगों को देखकर उसके आधार पर फैसला कर सकें). सौंदर्य प्रतियोगिता हर महिला को अन्य महिलाओं के साथ तीखी प्रतिद्वंद्विता करनी होती है, हरेक को बस अपने और केवल अपने स्वार्थ में. और फिर, सौंदर्य प्रतियोगिता न सिर्फ आपस में एकजुटता की इजाजत नहीं देती, वह व्यक्त्वि का भी क्षय कर देती है: इस हद तक कि किसी प्रतियोगी की मां भी प्रतियोगियों की कतार में अपनी बेटी को नहीं पहचान पाती, क्योंकि सब की सब एक जैसी लगती हैं!
दुर्गा वाहिनी कैंप और सौंदर्य प्रतियोगिता का बूट कैंप (प्रशिक्षण शिविर), दोनों ही युवतियों को ऐसा कुछ दिया जाता है जिसे ‘स्वायत्तता’ के नाम पर चलाया जा सकता है. मगर दोनों में एक हद तक खुद से नफरत की मांग की जाती है: दुर्गा वाहिनी महिलाओं को बर्बर पितृसत्ता को अपना लेने और उसका एजेंट बन जाने को कहती है, जबकि मिस इंडिया सौंदर्य प्रतियोगिता चाहती है कि महिलाएं फ्सौंदर्य” की अवधारणा को अपना लें, और इसे आवश्यक बना देती है कि उनके शरीरों को तमाम किस्म के “सुधारों”, तिरस्कार और अपमान के हवाले कर दिया जाए. इसके अलावा, यकीनन, दुर्गा वाहिनी के कैंप में युवा लड़कियों और महिलाओं को मुस्लिम पुरुषों एवं महिलाओं से नफरत करना सिखलाया जाता है, और उन्हें अन्य ऐसी हिंदू महिलाओं की भी स्वायत्तता पर हमला करने के लिये प्रशिक्षित किया जाता है, जो किसी मुसलमान लड़के से प्यार या शादी कर सकती हैं!
उत्पीड़क और शोषणमूलक ढांचों से स्वायत्तता छीनने के लिये सामूहिक संघर्ष चलाने, आपस में एक-दूसरे से ऊर्जा ग्रहण करने की आवश्यकता होती है, एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करने की नहीं. इसी कारण से स्वायत्तता की नारीवादी तलाश का मतलब मुठ्ठी-भर अन्य पुरुषों एवं महिलाओं के साथ प्रतिद्वंद्विता में चंद विशिष्ट महिलाओं द्वारा “उच्च पदों पर पहुंचने के लिये अदृश्य बाधाओं पर विजय प्राप्त करना” (ब्रेकिंग द ग्लास सीलिंग) नहीं हैहाल ही में प्रकाशित ‘फेमिनिज्म फाॅर द 99%: ए मैनिफेस्टो’ में जोर देकर कहा गया है, “हमें बहुसंख्यक महिलाओं को कूड़ा साफ करने के लिये छोड़कर, चंद महिलाओं द्वारा उच्च पदों पर पहुंचने के लिये अदृश्य बाधाओं पर विजय प्राप्त करने में कोई रुचि नहीं है.”
भारत की कला परम्परा में हमारे पास ‘अभिसारिका’ – वह महिला जो अपने प्रेमी से मिलने के लिये तूफानी रात में घर से बाहर निकल कर तमाम किस्म के खतरों का सामना करती है, सांपों भरे जंगलों को पार करती है – की अद्भुत छवि हैजो महिलाएं दिसम्बर 2012 में दिल्ली में हुए बलात्कार के खिलाफ मोमबत्तियां और मशालें लेकर सड़कों पर उतर पड़ी थीं, उनकी तुलना अभिसारिका से करते हुए शुद्धब्रत सेनगुप्ता ने लिखा था कि अभिसारिका को हमेशा प्रकाश के स्रोत के रूप में देखा जाता है. “उसकी आकांक्षा एक ज्वाला है जो उसके आस-पास की हर चीज को रौशन कर देती है. पंजाब के लोकगीतों में वह कोई जुगनूं हो सकती है, बेचैन, भटकती जुगनी. और एक साथ मिलकर सड़कों पर उतरी महिलाएं, जो हर घंटे, रात की हर घड़ी को अपनी मुठ्ठी में बांध लेने को उतारू हैं, अपनी धधकती, लहलहाती ज्वाला से एक शहर के समूचे जंगल को रौशन कर सकती हैं.”
यह जरूरी है कि आज हर महिला अभिसारिका बन जाये – अपनी आकांक्षाओं के साथ – हां जरूर अपने प्रेमियों के लिये, मगर केवल मौज में सड़क पर टहलने के लिये भी, या किसी नुक्कड़ पर एक कप चाय के लिये, पढ़ने और शोध करने के लिये, जोखिम भरे कारनामों के लिये, आंदोलनों के लिये, क्रांति के लिये भी – अपने इर्द-गिई हर चीज को रौशन कर देने के लिये. और जब ढेर सारी महिलाएं अभिसारिका बन जायेंगी, तो सड़कें और अंधेरी रातें कहीं ज्यादा सुरक्षित हो जायेंगी. जब हम रात में सड़क पर खड़ी एक अकेली महिला की कल्पना करते हैं – तो हम खतरे की कल्पना करने लगते हैं, मगर यदि हम अपने काम पर या मौज-मस्ती के लिये जाती महिलाओं से भरी सड़क की कल्पना करते हैं तो ऐसी सड़क तुरंत महिलाओं के लिये सुरक्षित महसूस होने लगती है!
ये अभिसारिकाएं उन नजरियों को बदल सकती हैं, जिनसे हम अपने सम्बंधों, अपने समाज, अपने परिवारों, अपने आंदोलनों की कल्पना कर सकते हैं और उन्हें बदल सकते हैं. यह साबित करने की चिंता करने के बजाय कि वे फ्बिगड़ैल” (बात न मानने वाली) नहीं बल्कि “अच्छी” (आज्ञाकारी) बेटियां, बहनें या संगी/जीवनसाथी हैं, वे खुद ही, उस स्वायत्तता की ‘अनुमति’ या वैधता की मांग करने की जरूरत महसूस करने के बजाय, अपने स्वायत्त देह में आनंदप्रद और निश्चिंत महसूस करने के तरीके तलाश सकती हैं. उम्रदराज महिलाएं भी अभिसारिका बन सकती हैं – वे अपनी स्वायत्तता का सम्मान कर सकती हैं और साथ ही अपने परिवारों में नवयुवतियों एवं लड़कियों की स्वायत्तता का भी.
अगर आप एक मां या पालक हैं, तो आप पूछ सकती हैं, फ्चलो ‘बेखौफ आजादी’ के बारे में बातें करना तो ठीक है, मगर यकीनन मेरी बेटी को इस दुनिया में डर लगेगा ही जहां यौन हिंसा की घटनाएं इतनी बेलगाम होती रहती हैं.” हां, जरूर – लेकिन एक मां की हैसियत से आपको यह शक्ति तो हासिल है कि आप अपनी बेटी को इस डर से आजाद कर दें कि अगर वह यौन उत्पीड़न अथवा हिंसा के बारे में आपको बताती है तो आप उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद करवा देंगी. अपने आप में यह अपनी बेटी को बेखौफ आजादी का उपहार देने की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम होगा. इसी प्रकार, आप अपने बच्चे (किसी भी लिंग का) को इस डर से आजाद कर सकती हैं कि अपने माता-पिता को यह बताने से कि वे समलैंगिक या ट्रांसजेंडर हैं, उनको माता-पिता का प्यार अथवा स्वीकृति नहीं मिलेगी.
हम यकीनन फासीवाद के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, ब्राह्मणवाद के खिलाफ, पितृसत्ता के खिलाफ और विपरीतलिंगी सम्बंधों को ही नियम मानने की विचारधारा के खिलाफ अपने संघर्षों के केन्द्र में नारी स्वायत्तता को रख सकते हैं और हमें ऐसा ही करना होगा. हम महिलाओं को “अच्छी” और “बिगड़ैल” औरतों में विभाजित करने की, यहां तक कि महिलाओं के अंदर भी जड़ जमाये बैठी आदत से छुटकारा पा सकते हैं और उसे त्याग सकते हैं. अपने घर में, कार्यस्थल में, अपने समुदायों और मुहल्लों में हम अपने आपको और अन्य महिलाओं को संगठित होने, अभियान चलाने, समर्थन और एकजुटता हासिल करने तथा संघर्ष करने में सक्षम बनाने के तरीकों की तलाश कर सकते हैं.
क्या यह किताब दुनिया को बदल देगी? शायद नहीं. मगर यदि आप और हम नारी स्वायत्तता और स्वायत्त नारी को जिस नजरिये से देखते हैं, उसको यह किताब एक मिलीमीटर भी बदल सकती हो – अगर हम महिलाओं की बेखौफ आजादी, उनकी वीरा स्वतंत्रम की तारीफ करना और उसकी कामना करना शुरू कर सकें – तो शायद हम दुनिया को बदल सकते हैं!