- जयप्रकाश नारायण
5 जून 2018 को कृषि उत्पाद की बिक्री के लिए मध्य प्रदेश के मंदसौर मंडी में इकट्ठा हुए किसानों पर पुलिस ने बर्बरता पूर्वक गोलियां चलाई जिसमें 5 किसान शहीद हो गए. मध्य प्रदेश की तत्कालीन शिवराज सिंह सरकार ने इस बर्बर गोलीकांड को लेकर हठधर्मिता और निर्दयता दिखाईं. राज्य की बर्बरता ने भारत में किसान आंदोलन के लिए एक नए रास्ते को खोजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा दी. मंदसौर किसानों की शहादत के मौके पर देश के कोने-कोने से इकट्ठा किसान नेताओं और संगठनों के प्रतिनिधियों ने संकल्प लिया कि किसानों की शहादत को हम बेकार नहीं जाने देंगे. किसान आंदोलन के लिए के आगामी मुद्दों को ठोस करते हुए कृषि उत्पादों की बिक्री और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के सवाल पर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएसएससी) का गठन किया गया. एआइकेएसएससी में शुरू में 80 और आगे चलकर 300 से ऊपर किसान संगठन शामिल हुए.
स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने और कृषि उत्पाद का लागत मूल्य सी प्लस टू में 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर एमएसपी तय कर फसल खरीद की गारंटी करने की मांग पर किसान संघर्ष समन्वय समिति ने चार किसान यात्राओं का आयोजन किया जो चारों दिशाओं में किसान नेताओं के नेतृत्व में सफलतापूर्वक संपन्न की गई. समन्वय समिति द्वारा नवंबर 2019 को रामलीला मैदान, दिल्ली में आयोजित दो दिवसीय किसान रैली और सम्मेलन में हजारों किसान इकट्ठा हुए. रामलीला मैदान से जंतर-मंतर तक हुए मार्च में सभी किसान संगठनों के साथ ही राजनीतिक दलों के नेता भी शामिल हुए. इस प्रकार स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने का सवाल आंदोलन का लोकप्रिय सवाल बन गया और किसानों को राष्ट्रीय स्तर पर एकताबद्ध होने और अपने मांगों के लिए आंदोलन चलाने का एक मंच मुहैया करा दिया. एआइकेएसएससी ने भारत सरकार से अपील किया कि वह संसद का दो दिवसीय विशेष सत्र बुलाए और वर्तमान कृषि संकट को संबोधित करते हुए उनकी मांगों पर विचार करें. लेकिन मोदी सरकार के ऊपर किसानों के प्रस्ताव का कोई खास प्रभाव दिखाई नहीं दिया.
मंदसौर के किसान हत्याकांड के बाद चार राज्यों में विधानसभा के चुनाव कराए गए. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में एनडीए को करारी हार का सामना करना पड़ा.यह बात सामने आई कि किसान आंदोलन ने भाजपा की पराजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. आगे चलकर झारखंड से लेकर कर्नाटक में भाजपा के पराजय ने किसान आंदोलन के अंदर नये उत्साह का सृजन किया था. यह दीगर बात है कि सत्ता, पैसा, प्रलोभन और दमन का इस्तेमाल कर बाद में भारतीय जनता पार्टी ने 2 राज्यों में कांग्रेस और संयुक्त मोर्चे की सरकार को तोड़कर अपनी सरकार बना ली. इसमें मध्य प्रदेश का खास महत्व है. क्योंकि मंदसौर की घटना मध्य प्रदेश में ही हुई थी. वहां महाराज कहे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने पूर्वजों की परंपरा को निभाते हुए कांग्रेस के साथ विश्वासघात कर बीजेपी से हाथ मिलाया और शिवराज सिंह, जिनके हाथ व्यापम् घोटाले से लेकर मंदसौर के किसानों और नागरिकों के खून से रंगे थे, की सरकार बन गई और सिंधिया को केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक महत्वपूर्ण जगह मिली.
पुलवामा में सैनिकों की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए 2019 लोकसभा चुनाव से भाजपा ने एक बार फिर से दिल्ली की गद्दी पर वापसी कर ली. यह वापसी पहले की तुलना में ज्यादा विध्वंसक प्रमाणित हुई. सबसे पहले नागरिकता कानून आया और देश भर में नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन फूट पड़ा. यह भारत के लोकतंत्र, संविधान और नागरिकता की मूल अवधारणा को बचाने का आंदोलन था, इसलिए किसान आंदोलन पृष्ठभूमि में चला गया.
2019 में के अंत में कोविड-19 के शुरुआत होते ही दुनिया महामारी के दहशत-भरे दौर में चली गई. चारों तरफ भारी तादाद में लोगों के महामारी से मरने, उद्योग और कारोबार के ठप्प होने और रोजगार के अवसरों के खत्म होने से अफरा-तफरी फैल गई. महामारी के शुरुआती दौर में सरकार की ओर से आपराधिक लापरवाही बरती गई. तब केन्द्र की भाजपा सरकार मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार को गिराने और दिल्ली में एनआरसी विरोधी आंदोलन को दंगा और खून में डुबोकर कुचल देने की साजिश में व्यस्त थी. इसके बाद विश्व का सबसे बर्बर लॉकडाउन भारत में लागू कर दिया गया. महामारी का दौर थोड़ा-सा शिथिल हुआ तो मोदी सरकार ने इस आपदा में भी अवसर तलाशते हुए भारत के मेहनतकश वर्गों पर महामारी से उत्पन्न आर्थिक-राजनीतिक तबाही का बोझ डालने का फैसला किया. 5 जून 2020 को जो मंदसौर के शहीद किसानों की की बरसी का दिन भी था, सरकार ने अध्यादेश लाकर तीन कृषि कानूनों को भारतीय किसानों पर थोप दिया. इसके बाद किसान आंदोलन की यात्रा उस नये रास्ते से आगे बढ़ी जिसे दुनिया आज दिल्ली बोर्डर पर किसान आंदोलनों के महापड़ाव के बतौर देख रही है.
26 अगस्त 2020 की तारीख, जिस दिन लाखों किसान तीन काले कानूनों को निरस्त करने की मांग को लेकर दिल्ली की तरफ कूच किए, एक अमिट तारीख बन चुकी है. भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे क्रूर और हिंसक सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए और बेहद संयम व धैर्य का परिचय देते हुए लाखों किसान विकट ठंड में दिल्ली के चारों तरफ बोर्डरों पर बैठ गए. इस दौरान अपने चरित्रा के अनुरूप मोदी कंट्रोल्ड संघ नीत सरकार ने आंदोलन को तोड़ने की सभी कोशिशें कीं. किसानों से वार्ता का नाटक, 26 जनवरी 1921 का षड्यंत्र और उसके बाद 8 महीने से चुप्पी और इसके बीच आंदोलन में फूट डालने, नेताओं की खरीद-फरोख्त करने और इसे खालिस्तानी, माओवादी-उग्रवादी और आढ़तियां-व्यापारियों का आंदोलन कह कर बदनाम करने का अभियान सरकार लगातार चलाती रही है. पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि का ग्रेटा थनबर्ग से बातचीत को भारत को बदनाम और कमजोर करने की अंतरराष्ट्रीय साजिश के रूप में प्रसारित करना और नेताओं पर फर्जी मुकदमे दर्ज करना - इसकी बानगी भर है. संघ और सरकार ने खुद से प्लांटेड छोटी-बड़ी अराजक घटनाओं को भी अपनी ‘गोदी मीडिया’ के जरिए ऐसे प्रचारित किया जैसे पूरा आंदोलन ही अराजक-लंपट गिरोहों का शरणगाह हो. इस षड्यंत्र को धत्ता बताते हुए 26 जनवरी 2021 को किसानों का ‘लाल किला मार्च’ हुआ और इसके बाद आंदोलन दिल्ली के इर्द-गिर्द के 600 किलोमीटर लंबे इलाके से बाहर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश होते हुए भारत के चारों कोनों में फैल गया.
मोदी और संघ के लिए यही सबसे चिंता का विषय है कि किसान आंदोलन ने मोदी के नेतृत्व में भारत को कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के अधीन लाने की उनकी फासीवादी परियोजना पर रोक लगा दी है. इसी संदर्भ में हमें लखीमपुर के तिकोनिया मंडी के क्षेत्र में घटित किसानों के नरसंहार की घटना को देखने की जरूरत है.
लखीमपुर में बड़ी फार्मिंग का वजूद बड़े दायरे में फैला हुआ है. इसलिए एक ओर यह आधुनिक कृषि का प्रयोग स्थल रहा है तो दूसरी ओर किसान आंदोलन का केंद्र भी. कम्युनिस्ट पार्टियों ने साठ के दशक में लखीमपुर में ग्रामीण भूमिहीनों व मजदूरों के लिए जमीन का आंदोलन चलाया था. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बिड़ला फार्म के खिलाफ चला आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ था और फार्म की भूमि बाद में गरीब भूमिहीन किसानों में बांटी गयी थी. अपनी भौगोलिक संरचना और नदियों के संजाल के साथ नेपाल की तराई में स्थित होने और जंगल तथा घास के विस्तारित मैदानी क्षेत्र के कारण निघासन तहसील क्षेत्र का इलाका बहुत समृद्ध था और पशुपालन और लकड़ी के व्यापार के लिए पूरे उत्तर प्रदेश में जाना जाता था.
आजादी के बाद देश विभाजन में जो लोग विस्थापित हुए उन्हें देहरादून से शुरू होकर सहारनपुर, रामपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, नैनीताल (जिसे आज उधम सिंह नगर कहते हैं), पीलीभीत, लखीमपुर, बहराइच और उससे भी आगे सुदूर स्थित कुशीनगर व देवरिया के खाली पड़े जंगली और दलदली मैदानों तक फैले तराई क्षेत्र में बसाया गया. सरकार ने ‘पुनर्वासन योजना’ के तहत उनको जमीन आवंटित की तथा आवास और कृषि औजार तक मुहैया कराए. इसके साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश में तेज गति से फैल रहे कम्युनिस्ट आंदोलन को देखते हुए पूर्वांचल से गरीब-भूमिहीन छोटे मध्यम किसानों को भी इस इलाके में बसाया गया और ‘उपनिवेशन योजना’ के तहत उन्हें शुरू में 20 एकड़ और बाद में 3 एकड़ तक भूमि आवंटित की गई. तत्कालीन देवरिया के समाजवादी किसान नेता गेंदा सिंह ने, जो कांग्रेस की सरकार में गन्ना कृषि मंत्री बने, इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बाद के दिनों में पूर्वांचल के मजदूर भी इस इलाके में रोजगार की तलाश में आए और तराई में फैलते चले गए. इन मजदूरों में वामपंथी पार्टियों और बाद में नक्सलबाड़ी आंदोलन का गहरा प्रभाव रहा. पलिया जो कभी निघासन तहसील का हिस्सा हुआ करता था, उत्तर प्रदेश में नक्सलवाड़ी आंदोलन का केंद्र बना और शारदा नदी के बायीं तरफ का पीलीभीत जिले का हजारा क्षेत्र और पलिया का इलाका भी किसान आंदोलन के तीव्र आवेग में आ गया. गरीब-भूमिहीन किसानों का सामान्य किसान से बाद में फार्मर बन गए बड़े पंजाबी किसानों और प्रदेश के अन्य हिस्सों से आए नौकरशाह भूस्वामियों के साथ तीखा राजनीतिक संघर्ष चला. शुरू से ही आरएसएस और भाजपा इस इलाके मे बड़े भूस्वामियों और व्यापारियों के लिए ही काम करते रहे हैं और गरीब भूमिहीन मजदूरों के आंदोलन का दमन करने और उन्हें बदनाम करने में लगे रहे हैं. नेपाल के सीमा से सटा हुआ इलाका होने के कारण यह लकड़ी, मादक द्रव्यों, सस्ते अनाज और नेपाली मजदूरों व लड़कियों की तस्करी के एक बड़े इलाके के रूप में भी उभरा. इन धंधों से जुड़ा तस्करां, नौकरशाहों, व्यापारियों और राजनेताओं का एक अपवित्र गठबंधन लखीमपुर खीरी के सामाजिक-आर्थिक जीवन पर काबिज हुआ. अजय कुमार मिश्र टेनी जिन्हें हालिया मंत्रिमंडल विस्तार में गृह मंत्रालय में राज्य मंत्री का पद मिला, इसी गठजोड़ के सबसे ताजातरीन व आक्रामक प्रतिनिधि हैं. वे अपने आपराधिक इतिहास और आर्थिक कारोबार के चलते ‘हिस्ट्रीशीटर’ के रूप में चिन्हित हैं.
शुरू से ही मोदी सरकार और गोदी मीडिया किसान आंदोलन को पंजाब के बड़े फार्मर्स और संपन्न सिख किसानों का आंदोलन और बड़े फार्मरों का आढ़तियों के साथ मिल कर बना अपवित्र गठजोड बता रही है और कृषि कानूनों को इस गठजोड़ के खिलाफ सख्त सुधार का प्रयास बता कर गरीब और कमजोर किसानों की मदद करने का सफेद झूठ प्रचारित कर रही है.
तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ उठ खड़े हुए किसान आंदोलन ने तराई के परिदृश्य को बदल दिया है. आमतौर पर कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन की अगुवाई मध्यम, धनी और संपन्न किसानों के हाथ में है. लेकिन तराई के इलाके में गरीब-भूमिहीनों का आंदोलन चलाने वाली भाकपा(माले) और उसके किसान और मजदूर संगठन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ मैदान में आकर डट गए हैं. अनाज भंडारण की सीमा को खत्म कर और अनाज खरीद के अधिकार को कारपोरेट घरानों के हाथ में देने के बाद पीडीएफ जैसी सरकारी योजनाएं स्वत बंद हो जाएंगी. गरीबों में भुखमरी का संकट खड़ा हो जाएगा. गरीब मजदूरों ने कृषि कानून के पड़ने वाले दुष्प्रभाव को समझ लिया है.
यह इलाका गन्ना सहित नगदी फसलों का क्षेत्र है. इस कारोबार से जुड़ कर ग्रामीण मजदूर नगदी के रूप में कुछ पैसे कमा लेते हैं. लेकिन जैसे-जैसे कारपोरेट घरानों का कृषि में प्रवेश बढ़ेगा, ग्रामीण जीवन नए तरह के शोषण के जाल में फंसता जाएगा और जमीन का संकेंद्रण बहुत तेज गति से बढ़ने लगेगा. इसलिए यहां संगठित ग्रामीण मजदूर आंदोलन किसान आंदोलन का अभिन्न अंग बन गया है.
2017 में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तो उसने ‘भू-माफिया से भूमि खाली कराने का अभियान’ अचने हाथ में लिया. यह अंतर्वस्तु में गरीब-भूमिहीन मजदूरों, छोटे-मंझोले किसानों और जंगलात के अंतर्गत बचे हुए आदिवासी और समाज में विमुक्त जातियों के फैले हुए करोड़ों लोगों, जो कहीं न कहीं ग्राम समाज, जंगल, नदी के किनारे व नहरों-सड़कों के अगल-बगल अपना आशियाना बना कर रहते थे, को उजाड़ने का अभियान था. शारदा नगर से लेकर ढकेरवा होते हुए निघासन, पलिया, बिजुवा, बांकेगंज और मैलानी के इलाके और नेपाल की तराई तक ऐसे परिवार फैले हैं. उन्हें वन विभाग की जमीन पर अवैध रूप से बसनेवाला भू-माफिया घोषित किया गया है और उनके कंधे पर बिस्थापन की तलवार लटकी हुई है. लखीमपुर में भी ऐसे दसियों हजार परिवारों को चिन्हित कर उन्हें भूमि पर अवैध कब्जावर घोषित किया जा चुका है और योगी आदित्यनाथ की सरकार ने जमीन और घर खाली करने के लिए नोटिस दे रखी है. भाकपा(माले) और उसके किसान संगठन ने भू-माफिया के नाम पर उजाडे़ जा रहे लाखों लोगों के पक्ष में तीखा आंदोलन चलाया. इस अभियान को रोक पाने में एक हद तक कामयाबी भी मिली और अनेक गांव और बाजार अभी भी बेदखल होने से बचे हुए हैं.
आज उत्तर प्रदेश बलात्कार, हत्या, अल्पसंख्यकों व दलितों पर जुल्म, गरीब महिलाओं की इज्जत लूटने, पुलिस कस्टडी में मौतों और राज्य प्रायोजित हत्याओं के लिए चर्चित प्रदेश बन चुका है. कोरोना काल में उत्तर प्रदेश की सरकार की बिफलता चर्चा का विषय बनी. इसे ही आज ‘गुजरात मॉडल’ से आगे ‘उत्तर प्रदेश मॉडल’ कहा जा रहा है.
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की घटनाएं मोदी और शाह की योजना के लिए बड़ा धक्का थीं. उन्होंने अपने सबसे विश्वस्त नौकरशाह को उत्तर प्रदेश में भेज कर योगी आदित्यनाथ की सरकार को नियंत्रित करने की कोशिश की, लेकिन वे नाकाम रहे. आज आम राजनीतिक विश्लेषकों और जनता तक में संदेश पहुंच गया है कि कि योगी आदित्यनाथ मोदी और शाह की इच्छा के विपरीत चल रहे हैं.
तराई की बदली परिस्थितियों ने भी जहां किसान आंदोलन के स्पष्ट संकेत दिखने लगे थे, मोदी-शाह को चिंता में डाल दिया. अगर लखीमपुर के आगे घाघरा के उस पार बहराइच, गोंडा, बस्ती, महराजगंज, कुशीनगर और देवरिया के गन्ना उत्पादक क्षेत्र में आंदोलन फैल गया तो उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के लिए गंभीर संकट खड़ा हो जाएगा. किसान आंदोलन के द्वारा 26-27 सितंबर 2021 को दिल्ली में हुए दोदिवसीय किसान सम्मेलन में मिशन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की घोषणा की गई थी. एसकेएम ने भाजपा मुक्त उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का अभियान चलाने का फैसला कर लिया था. इस फैसले के बाद किसान आंदोलन तराई के रास्ते पूरब की तरफ बढ़ रहा था.
यही से टेनी महाराज के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल में पहुंचने का रास्ता खुला और उन्हें गृह मंत्रालय में अमित शाह के अनुसंगी के रूप में काम करने का अवसर मिला. टेनी महाराज ने भी मंत्रिमंडल में जगह पाते ही योगी आदित्यनाथ के प्रतिद्वंदी कहे जाने वाले उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को लेकर कार्यक्रम आयोजित करने का प्रयोग किया और उत्तर प्रदेश दिल्ली, लखनऊ और लखीमपुर के बीच अदृश्य टकराव’की राजनीति का अखाड़ा बन गया.
किसान आंदोलन में अभी तक संघ के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं द्वारा षडयंत्रा रचने और छिटपुट हमला करने की घटनायें सामने आई थीं और दमन के लिए सरकारी तंत्र का प्रयोग (जैसे करनाल की घटना) होता था. लेकिन, जिकोनिया जनसंहार को देखने के बाद अब लगता है कि संघ-भाजपा की सरकार ने अपने रणनीति में बुनियादी बदलाव करने का निर्णय ले लिया है. यह किसान आंदोलन से निपटने की नई रणनीति है जिसमें भाजपा और संघ कार्यकर्ता सरकार के संरक्षण में सीधे किसानों के साथ मुठभेड़ में उतरेंगे.
किसान आंदोलन से टकराव की यह भाजपाई रणनीति सबसे पहले हरियाणा में सामने आई. वहां मुख्यमंत्री खट्टर ने अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा - ‘आप लठ्ठे उठा लो, किसानों पर हमला करो, जेल जाओगे तो हम आपको छुडा लेंगे और बड़े नेता के रूप में आप प्रतिष्ठित हो जाओगे.’ इसी तर्ज पर लखीमपुर के संपूर्णानगर में जनसभा करते हुए राज्यमंत्री अजय कुमार मिश्र टेनी ने कहा - ‘तुम हमें नहीं जानते. मंत्री और विधायक बनने के पहले हमारे इतिहास को देख लो. हम अगर चाहेंगे तो 2 मिनट में संपूर्णानगर पलिया ही नहीं, लखीमपुर छोड़कर जाना पड़ सकता है.’ साफ तौर उनकी इस चेतावनी सिख किसानो को दी गयी थी. बहुत संभव है आने वाले समय में इस तरह के अनेक मंजर देखने को मिलें.
इस शहादत ने भारत में चल रहे किसान आंदोलन को और किसानों के अंदर पल रहे सरकार विरोधी आक्रोश को नई ताकत दे दी है. आज गृह राज्य मंत्री के बेटे और खुद गृह राज्य मंत्री की गिरफ्तारी की मांग तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ मिलकर किसान आंदोलन का एजेंडा बन गई है. तराई के किसान आंदोलन में भी दिल्ली बोर्डर व पंजाब की तरह सिख फार्मरों और किसानों की अग्रणी भूमिका है. इसलिए घटना के बाद एक बार फिर भाजपा ने इस घटना को सांप्रदायिक रंग देने और स्थानीय किसान आबादी को सिख किसानों के खिलाफ खड़ा करने की पुरजोर कोशिश शुरू कर दी है. लेकिन, 7 साल की मोदी सरकार और लगभग पौने 5 साल की योगी सरकार के कारनामों व विध्वंसक कारपोरेट परस्त नीतियों ने किसानों समेत आम लोगों में सरकार विरोधी चेतना और संगठित होने की भावना को तेजी से फैला दिया है. तिकोनिया में किसानों का जो खून बहा, वह सरकार के सारे अपराधों को सामने ला देने और जनता के साथ किए गए उनके विश्वासघात का पूरा हिसाब चुकता करने की तरफ बढ़ेगा. गृह राज्य मंत्री की गिरफ्तारी की मांग पर ‘रेल रोको आंदोलन’ की सफलता ने नए उत्साह और नई संभावना को जन्म दिया है और योगी सरकार द्वारा पैदा किया गया आतंक किसान शहीदों की चिताओं की राख के साथ हवा में उड़ गया है. आने वाले दौर में उत्तर प्रदेश किसान आंदोलन के केंद्र के बतौर लोकतंत्र, संविधान और आजादी के साथ ही देश के धर्मनिरपेक्ष-संघात्मक चरित्र को बचाने की लड़ाई का भी केंद्र बनेगा.