डीयू में एबीवीपी की गुंडई हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय में एबीवीपी की एक भीड़ ने शैक्षिक परिषद की मीटिंग के बाहर प्रदर्शन किया और विवि के कुलपति से मांग की कि वे कुछ प्रोफेसरों को उनके हवाले कर दें. इन्हीं प्रोफेसरों की कोशिशों से अंग्रेजी और साथ ही, इतिहास तथा राजनीति विज्ञान विभागों के पाठ्यक्रमों में सांप्रदायिकता-विरोधी, जातिवाद-विरोधी और समलैंगिक विषय-वस्तु शामिल किए जा सके थे. खून की प्यासी इस लिंच भीड़ से बचाने के लिए सात प्रोफेसरों को कुलपति के कार्यालय से छिपते-छिपाते बाहर निकाला गया.
आरएसएस की छात्र शाखा और उसके शिक्षक संगठन एनडीटीएफ ने भी एक छोटी कहानी ‘मनीबेन उर्फ बीबीजान’ पर आपत्ति उठाई थी. 15 वर्ष पूर्व बीए तृतीय वर्ष के पाठ्यक्रम में शामिल की गई इस कहानी में गुजरात के दंगे में मुस्लिमों के खिलाफ की गई हिंसा का उल्लेख है, जब वहां के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी थे.
वे लोग साहित्य में जाति पर एक पेपर का विरोध कर रहे थे, और साथ ही ‘समलैंगिकता की छानबीन’ संबंधित एक कोर्स (पाठ्यक्रम) पर भी आपत्ति जता रहे थे जिसमें ‘भारत में समलैंगिक प्रेम’ पर रूथ वनिता का एक पाठ शामिल है – इस पाठ में भारतीय पुराण कथाओं में वर्णित नायकों का उल्लेख है. ये आपत्तियां उठाने वाले एनडीटीएफ के प्रतिनिधि ने कहा कि अगर ये चीजें दूसरे देश में पढ़ाई जाएं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी, ‘लेकिन हिंदू समाज में इसे स्वीकार नहीं किया जाएगा’.
अंग्रेजी विभाग में सहायक प्राध्यापक और शैक्षिक परिषद के सदस्य सैकत घोष, जिनके खिलाफ एबीवीपी ने हिंसक नारे लगाए थे और जिन्होंने बाध्य होकर इनमें से कई आपत्तियों को स्वीकार कर लिया था, ने कहा, “हमलोगों ने जिस पाठ्यक्रम का प्रस्ताव किया था, उसके पक्ष में तमाम तर्क हमारे पास थे. लेकिन उनके पास शक्ति है. और आज के भारत में जिनके पास शक्ति है, वही सही कहलाता है.”
जेएनयू प्रशासन ने छात्रों के दीवाल पोस्टरों को फाड़ डाला, जो कि जेएनयू की एक खास विशेषता होती है. प्रशासन ने कहा कि इन पोस्टरों से दीवाल गंदे होते हैं और इससे ‘दीवाल विरूपण कानून’ का उल्लंघन भी होता है.
जेएनयू की स्थापना 1969 में हुई थी. पिछले वर्ष ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में दिल्ली के वास्तुशिल्प पर एक कहानी छपी थी जिसमें जेएनयू के भवन-निर्माता सीपी ककरेजा के परिजनों द्वारा दिया गया एक छोटा विवरण छपा था :
“कुलपति जी पार्थसारथी जेएनयू के अपने कार्यालय में थे, जब वास्तुशिल्पी सीपी ककरेजा तेजी से अंदर आए. जेएनयू में 1971 में पहली बार छात्रा संघ का चुनाव हो रहा था और ईंट से बनी नई इमारतें पोस्टरों से अटी पड़ी थीं. उन्होंने आहें भरते कहा कि वे लोग भवन को बर्बाद कर देंगे. मृदु स्वभाव के पार्थसारथी ने जवाब दिया – यह लोकतंत्र में खड़ा परिसर है. इन भवनों को छात्रों से बात करने दीजिए. इन्हें उनके लिए कैनवस बन जाने दीजिए.”
जेएनयू का संघी प्रशासन आज अचानक यह फैसला क्यों करता है कि जेएनयू की दीवालों को पोस्टरों से मुक्त कर देना चाहिए ? इसका जवाब आरएसएस के हिंदी मुखपत्र पांचजन्य में नवंबर 2015 में छपा एक कवर स्टोरी है जिसका शार्षक था – ‘जेएनयू : विखंडनवाद का गढ़’. उस कवर स्टोरी में किसी अश्विनी मिश्रा का एक लेख था जिसमें जेएनयू के पाठ्यक्रम में, और साथ ही जेएनयू के दीवाल पोस्टरों पर ‘मानवाधिकार, महिलाओं के अधिकार, धार्मिक आजादी, भेदभाव व बहिष्करण, लैंगिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता’ की मौजूदगी पर आपत्ति उठाई गई थी. उस लेख में कहा गया था कि – ‘धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यक अधिकार, मानवाधिकार तथा समाज के वंचित तबकों के अधिकार’ की बात बोलकर छात्र कार्यकर्ता अपना मकसद पूरा करते हैं; और कि ‘इस तरह के जहर की लहलहाती फसल तमाम विश्वविद्यालयों में उनकी दीवालों पर भरे पड़े नारों, पोस्टरों और पुस्तिकाओं में दिख सकती है’ जो ‘भारतीय संस्कृति, सभ्यता और समाज को विखंडित कर देना चाहते हैं.’
हां, अब जेएनयू के कुलपति आरएसएस के इस एजेंडा को लागू कर रहे हैं, और जेएनयू की दीवालों को धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों, महिलाओं तथा समाज के वंचित तबकों के अधिकारों से संबंधित पोस्टरों से मुक्त करा रहे हैं.