श्रम कानूनों में संशोधन, भूमि अधिग्रहण कानून और सार्वजनिक क्षेत्र उद्यमों (पीएसयू) का निजीकरण – ये मोदी शासन की दूसरी पारी के तीन सर्वप्रमुख एजेंडा हैं. खुद अमित शाह ने इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए बैठक आयोजित की. बैठक से बाहर निकल कर श्रम मंत्री ने एलान किया कि वे लोग पहले ‘मजदूरी बिल संहिता’ और ‘पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा कार्य स्थिति बिल संहिता’ पारित करेंगे और इसके बाद ‘औद्योगिक संबंध तथा सामाजिक सुरक्षा व कल्याण बिल संहिता’ का निर्माण करेंगे.
आरएसएस और भाजपा की श्रमिक शाखा भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) भी अपने मौजूदा स्वरूप में इन प्रस्तावित संहिताओं के खिलाफ शोर मचा रहा है, क्योंकि अगर इसके अनुसार ईएसआई और पीएफ को प्रस्तावित सामाजिक सुरक्षा फंड में विलय किया गया तो बीएमएस को भय है कि संगठित श्रमिकों के बीच उनका समर्थन आधार कहीं खत्म न हो जाए. ‘मजदूरी बिल संहिता’ पर तहेदिल से समर्थन और ‘पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा कार्य स्थिति बिल संहिता’ पर भी कुछ हद तक समर्थन जाहिर करते हुए बीएमएस ‘औद्योगिक संबंध संहिता’ के चंद प्रावधानों को लेकर घबड़ाया हुआ है. बीएमएस को छोड़कर देश की तमाम मान्यता प्राप्त ट्रेड यूनियनें इन चारों संहिताओं का पूरी तरह विरोध कर रही हैं और पिछले वर्ष उन्होंने दो-दिवसीय देशव्यापी हड़ताल भी संगठित की थी.
मोदी सरकार ने अभी लागू 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को खत्म करते हुए मजदूरी, औद्योगिक संबंधों, सामाजिक सुरक्षा व कल्याण तथा पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य व कार्यस्थितियों से जुड़ी चार संहिताओं को लागू करने का फैसला लिया है, ताकि काॅरपोरेटों और विदेशी पूंजी के लिए “व्यवसाय करना आसान” बनाया जा सके ! यह कदम श्रमिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए अब तक लागू कानूनों पर संपूर्ण हमला है.
भाजपा शासित राजस्थान कई वर्षों तक उन बदलावों का प्रयोगस्थल रहा है, जो बदलाव अब मोदी सरकार करना चाहती है. राजस्थान ने औद्योगिक विवाद अधिनियम को संशोधित किया ताकि जिन कंपनियों में 300 से कम श्रमिक नियोजित हैं, वहां छंटनी और लाॅक आउट करने के लिए काॅरपोरेटों को राज्य सरकार से इजाजत न लेनी पड़े. राजस्थान को श्रम सुधारों के माॅडल के बतौर उछाला गया. लेकिन, वहां कोई पूंजी नहीं आई ! यह ऐसा कठोर सत्य है जिसे सीआइआइ व नीति आयोग के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित “रोजगार व आजीविका निर्माण” सम्मेलन में पूर्व श्रम सचिव को भी स्वीकार करना पड़ा था. इसके बावजूद किसी तर्क या कारण के बगैर ही नीति आयोग के पंडित इस बात पर अड़े रहे कि ‘कठोर’ श्रम कानूनों के चलते ही पूंजी नहीं आ रही है.
मोदी हजारों करोड़ रुपये के सरकारी खर्च पर दुनिया के हर देश की खाक छानते रहे, लेकिन वे कोई भी उल्लेखनीय वास्तविक निवेश आकर्षित न कर सके. यहां तक कि ‘व्यवसाय आसान बनाने का सूचकांक (2014)’ भी कहता है कि भारत में जितनी भी कंपनियों से पूछताछ की गई उनका महज दसवां हिस्सा ही यह समझता था कि श्रम कानून निवेश के लिए प्रमुख बाधक है.
मंद वृद्धि व कमजोर निवेश तथा बढ़ती बेरोजगारी के असली कारणों पर ध्यान देने के बजाय सरकार इस मंद वृद्धि को बहाना बनाकर मजदूरों के अधिकारों से छुट्टी पाना और बड़े काॅरपोरेटों को शोषण व लूट की खुली छूट मुहैया कराना चाहती है.
पिछली सरकार ने एक समिति गठित की थी जिसे राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी अथवा फ्लोर मजदूरी निर्धारित करना था जो देश के किसी भी हिस्से में श्रमिकों के लिए देय होगी. इस समिति ने 9750 रुपये प्रति माह (375 रुपये प्रति दिन) की अनुशंसा की – यह एक नई गणना-पद्धति पर आधारित थी जिसमें प्रत्येक श्रमिक के लिए 2400 कैलोरी ऊर्जा निर्माण हेतु आवश्यक कैलोरी ग्रहण को नजरअंदाज कर दिया गया था. समिति का कहना था कि कैलोरी ग्रहण के बजाय आहार ग्रहण उसका प्रमुख सरोकार था.
समिति ने उपभोक्ता सामग्रियों में भी हेराफेरी कर दी जिसके आधार पर कीमत स्तरों और तदनुकूल न्यूनतम मजदूरी की गणना की जाती है. इस पद्धति को अपनाते हुए समिति ने सिफारिश दी कि अंचल 1, अंचल 2, अंचल 3, अंचल 4 और अंचल 5 के लिए जुलाई 2018 में राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी प्रति दिन (प्रति माह) क्रमशः 342 रु. (8,892 रु.), 380 रुपये (9,880 रु.), 414 रु. (10,764 रु.), 447 रु. (11,622 रु.) तथा 386 रु. (10,036 रु.) निर्धारित किया जाना चाहिए – इसमें सेक्टर, कुशलता, पेशा तथा ग्रामीण-शहरी इलाकों का कोई लिहाज नहीं किया गया था.
दुर्भाग्यवश, यह ऐसी समिति थी जिसने जनवरी 2019 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, जबकि उसी सरकार द्वारा गठित सातवें वेतन आयोग ने नवंबर 2015 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में कहा था कि किसी भी श्रमिक को, यहां तक कि ठेका श्रमिक को भी, 18000 रुपये से कम की मजदूरी नहीं दी जानी चाहिए. अगर हम बाद के तीन वर्षों में हुई मुद्रास्फीति की क्षतिपूर्ति की गणना करें तो आज यह मजदूरी कम से कम 20,000 रुपये प्रति माह होनी चाहिए.
केंद्र सरकार के किसी भी श्रमिक के लिए इस सातवें वेतन आयोग ने केंद्र सरकार के सबसे कम वेतन भोगी, न्यूनतम स्केल के नियमित कर्मचारी के बराबर वेतन की अनुशंसा की है जो आज की तिथि में 25000-45000 रुपये से कम नहीं होना चाहिए.
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उन नियोजकों की याचिकाएं खारिज कर दीं जो राज्य सरकार द्वारा निर्धारित लगभग 15000 रुपये की न्यूनतम मजदूरी देने पर आपत्ति जता रहे थे. दिल्ली में भी (श्रमिकों, खासकर डीटीसी मजदूरों के संघर्षों की पृष्ठभूमि में) उच्च न्यायालय ने नरम रुख अपनाते हुए दिल्ली की ‘आप’ सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी को संशोधित करने व उसमें वृद्धि करने की इजाजत दे दी.
तमिलनाडु, महाराष्ट्र आदि राज्यों में औसत न्यूनतम मजदूरी 15000-16000 रुपये के करीब है. लेकिन दुर्भाग्यवश, मोदी द्वारा गठित समिति 10,000 रुपये से भी कम की राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी अथवा ‘फ्लोर मजदूरी’ की सलाह दे रही है.
चूंकि विभिन्न राज्यों में बाजार कीमतों पर आधारित न्यूनतम मजदूरी का स्तर हमेशा बढ़ता रहता है, इसीलिए अब मोदी सरकार ‘फ्लोर मजदूरी’ अथवा राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी की अवधारणा सामने ला रही है, जो कई राज्यों में मिलने वाली न्यूनतम मजदूरियों से काफी कम है. नीति आयोग फ्लोर मजदूरी के बारे में इस समिति की सिफारिशों की तारीफें कर रहा है.
अभी तक, न्यूनतम मजदूरी प्रावधानों का अनुपालन अनिवार्य है – हालांकि व्यवहार में बहुत कम नियोजक ही वास्तव में इस कानूनी तौर पर अनिवार्य मजदूरी की अदायगी करते हैं. अब मोदी सरकार ‘फ्लोर मजदूरी’ को अनिवार्य बनाने की कोशिश कर रही है और न्यूनतम मजदूरी के बारे में सिर्फ जुबानी जमाखर्च कर रही है ताकि इसका स्वाभाविक अंत हो जाए.
केंद्र सरकार और नीति आयोग ने पहले से ही सार्वजनिक क्षेत्र की 72 से भी ज्यादा इकाइयों को बंद करने के लिए चुन रखा है. नीति आयोग ने ऐसी 42 इकाइयों को फौरन बंद कर देने की सिफारिश की है.
उड्डयन उद्योग में उभार रहने के बावजूद एयर इंडिया को मृतप्राय होने के लिए छोड़ दिया गया है. बीएसएनएल को 5-जी स्पेक्ट्रम देने से भी इनकार किया जा रहा है, जबकि दूर संचार उद्योग अब 5-जी की ओर आगे बढ़ रहा है. इस उद्योग को पहले ही अंबानियों और मित्तलों को परोसा जा चुका है. एयरटेल और जियो फूल-फल रहे हैं जबकि बीएसएनएल अपने 54,000 कर्मचारियों को ले-आॅफ करने का प्रस्ताव कर रहा है.
यह कहा जा रहा है कि सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों और बीमा कंपनियों का इसीलिए विलय किया जा रहा है ताकि वे मुनाफा कमाने लायक बन सकें और मुख्यतः काॅरपोरेटों द्वारा विशाल मात्रा में लिए गए ऋृण को न चुकाने (बैड लोन) के असर को झेल सकें. जो बात नहीं कही गई है, वह यह है कि उन्हें मुनाफा कमाने वाली कंपनियों के बतौर निजी काॅरपोरेटों के हाथों बेचे जाने के लिए आकर्षक बनाया जा रहा है.
रेलवे पुनर्संरचना से संबंधित विवेक देबराय समिति ने तथा नीति आयोग ने भी जोर दिया था कि सरकार अगले दस वर्षों के दौरान रेलवे में, और वह भी इसके अ-प्रमुख अंशों में – यथा, रेलवे अस्पतालों, स्कूलों, उत्पादन केंद्रों, वर्कशाॅपों, रेलवे पुलिस आदि में – निजी हिस्सेदारी की राह तलाश रही है.
लेकिन अपनी भारी विजय से बढ़े मनोबल के साथ मोदी शासन की दूसरी पारी अब 100 दिनों का ऐक्शन प्लान लेकर सामने आई है, जिसमें मुनाफा देने वाली राजधानी, शताब्दी और पैसेंजर ट्रेनों को निजी कंपनियों के हवाले करने का प्रस्ताव किया गया है. गाड़ियों, पटरियों, स्कूलों, अस्पतालों आदि को निजी कंपनियों के हाथों दिया जाना है और टिकट भाड़े को दुगुना किया जाना है. सरकार यात्रियों को टिकट भाड़े में सब्सिडी छोड़ने के लिए अभिप्रेरित करने का भी प्रयास कर रही है: “इसे छोड़ दो” अभियान शुरू किया जा रहा है. हर बार जब आप टिकट खरीदेंगे तो सब्सिडी का विकल्प नहीं चुनने पर आपका टिकट भाड़ा स्वतः दुगुना कर दिया जाएगा. भारतीय रेलवे को – जो भारत जैसे विशाल देश में जन परिवहन का सर्वाधिक लोकप्रिय और सुगम साधन है – अब कुलीन तबके की आरक्षित सेवा बना दी जाएगी और गरीबों को इसके लाभ से वंचित कर दिया जाएगा.
भारतीय रेलवे में सात उत्पादन इकाइयां हैं, जिनमें चितरंजन लोकोमोटिव वक्र्स (सीएलडब्ल्यू – पश्चिम बंगाल), इंटिग्रल कोच फैक्टरी (आइसीएफ – चेन्नै), डीजल लोकोमोटिव वर्क्स (डीएलडब्ल्यू – बनारस), रेल कोच फैक्टरी (आरसीएफ – कपूरथला) आदि शामिल हैं, जिन्हें बाद में निजी मुनाफाखोरों को सौंप दिया जाएगा. अपने संबद्ध वर्कशाॅपों के साथ उत्पादन इकाइयों का विलय कर एक नई इकाई “इंडियन रेलवे राॅलिंग स्टाॅक कंपनी” का निर्माण किया जाएगा. जब यह नई कंपनी तमाम सरकारी पैसों के खर्च पर वास्तव में मुनाफा देने लायक हो जाएगी, तो इसे बाद के चरण में निजी कंपनियों को सौंप दिया जाएगा. माॅडर्न कोच फैक्टरी (एमसीएफ – राय बरेली) के सीईओ को निर्णय लेने की शक्ति मिल जाएगी और तदंतर सरकार तथा रेलवे बोर्ड को दरकिनार करते हुए चरण-दर-चरण अन्य उत्पादन इकाइयों को भी हस्तगत कर लिया जाएगा.
अभी तक भारतीय रेल में माल गाड़ियां सबसे धीमे चलती थीं और यात्री गाड़ियों को पहले हरा सिग्नल मिलता था. अब यह स्थिति उलट गई है. जब सभी माल गाड़ियों को निकल जाने की इजाजत मिल जाएगी और पटरियां व जगह उपलब्ध होंगी तभी यात्री गाड़ियों को सिग्नल मिलेगा. माल यातायात को बढ़ाने के लिए पूरब और पश्चिम में ‘डेडिकेटेड फ्रेट काॅरिडोर्स (डीएफसी) का निर्माण किया जा रहा है.
इन सौ दिनों के अंदर ‘विकास’ और ‘विश्व स्तरीय सेवा’ के नाम पर 50 रेलवे स्टेशनों को निजीकरण के लिए चुना जाएगा. यह सबको पता है कि रेलवे स्टेशन हमारे देश में अनेक गरीबों का घर होते हैं. अब इसके बाद टिकट लिए बिना कोई व्यक्ति स्टेशन में प्रवेश भी नहीं कर पाएगा (जैसा कि हवाई अड्डों के मामले में होता है) – स्टेशन टाॅयलेट या प्लेटफार्म की छतों के इस्तेमाल की तो बात ही छोड़ दीजिए. गृहविहीन और दीन-हीन लोग अपना यह छोटामोटा “घर” भी खो देंगे.
यह 100-दिवसीय ऐक्शन प्लान रेलवे की पुनर्संरचना का खाका भी तैयार करेगा. रेलवे बोर्ड के पास कुछ नियामक खाका तैयार करने के अलावा और कोई शक्ति नहीं बची रहेगी. जोन और डिविजन स्तरों पर जोनल मैनेजर और डीआरएम ज्यादा शक्तिशाली हो जाएंगे. ‘जनता की सेवा’ के लिए नहीं, बल्कि मुनाफा कमाने के लिए प्रतियोगिता ही रेलवे जोनों की केंद्रीय विषय वस्तु बन जाएगा. रेलवे की पुनर्संरचना भारत के विशालकाय रेल नेटवर्क के संपूर्ण निजीकरण की कुंजी है.
ठेका प्रणाली को अभी भी “द्वितीय प्राथमिकता” के बतौर जारी रखा जा रहा है, जबकि सरकार और नियोजकों की पहली प्राथमिकता “नियतकालिक नियोजन” और “प्रशिक्षण” (एप्रेंटिसशिप) की वर्धित प्रणाली के नाम पर शुद्धरूपेण अस्थायी रोजगार देना है. नियोजन के इन दोनों स्वरूपों में रोजगार की कोई सुरक्षा नहीं है. ‘हायर एंड फायर’ अब ज्यादा आसान हो जाएगा.
प्रशिक्षुओं के मामले में न्यूनतम मजदूरी की अदायगी भी अनिवार्य नहीं रहती है और न्यूनतम मजदूरी का 75 प्रतिशत देना ही पर्याप्त होता है. सरकार का लक्ष्य है कि अगले तीन वर्षों में प्रशिक्षुओं की संख्या को तीन लाख के वर्तमान स्तर से बढ़ाकर तीस लाख कर दिया जाएगा.
नए संशोधनों में सुझाव है कि ठेका श्रमिक ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का दावा नहीं कर सकेंगे – वे अपने राज्यों के हिसाब से केवल न्यूनतम मजदूरी का, और नए बदलावों के संदर्भ में केवल ‘फ्लोर मजदूरी’ का दावा कर सकते हैं.
अपनी पहली पारी में मोदी सरकार को भूमि अधिग्रहण अधिनियम को संशोधित करने तथा भूमि हड़प को आसान बनाने के अपने प्रयासों को वापस करना पड़ा था. इसीलिए, मोदी शासन पुलिस, राज्य और राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करके जमीन हड़पना चाहता है और भूमि बैंकों का निर्माण करना चाहता है, जहां कोई भी उद्योगपति प्रवेश करे और हजारों एकड़ जमीन हासिल कर ले – इसके लिए उसे अत्यंत तुच्छ कीमत अदा करनी होगी अथवा शायद अधेली भी खर्च न करना पड़े; उसे जमीन-मालिक किसानों से मोलभाव करने की भी जहमत नहीं उठानी पड़ेगी और न ही किसी किस्म का प्रतिवाद झेलना पड़ेगा.
नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार कहते हैं कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की जमीनें अधिग्रहित कर सकती है. सार्वजनिक क्षेत्रों तथा सरकार के अन्य अंगों के स्वामित्व वाली जमीनों को लेकर जमीनों की फेहरिस्त निर्मित की जा सकती है और जमीन के टुकड़े और भू-खंडों के समूह तैयार किए जाएंगे ताकि विदेशी पूंजी की जरूरतें पूरी की जा सके.
यह है काॅरपोरेटों का साथ ! काॅरपोरेटों का विकास ! काॅरपोरेटों का विश्वास ! और यह सब है किसान की कीमत पर !
जिन श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है उन तक सामाजिक सुरक्षा पहुंचाने के नाम पर सरकार अभी मौजूद कल्याण बोर्डों और सामाजिक सुरक्षा की तमाम मौजूदा संस्थाओं को समाप्त कर रही है. पीएफ व ईएसआइ तथा बीड़ी, निर्माण व अन्य कल्याण बोर्डों जैसे विशालकाय निगमों के पास जो करोड़ों करोड़ रुपये मौजूद हैं, उसे छीन लिया जाएगा. सामाजिक सुरक्षा अब नियोजकों की नहीं, बल्कि खुद श्रमिकों की जिम्मेदारी बन जाएगी.
सामाजिक सुरक्षा संहिता का मूल उद्देश्य अपने श्रमिकों के प्रति किसी भी किस्म की जवाबदेही से पूंजीपतियों को मुक्त करना ही है. यह संहिता सामाजिक सुरक्षा की बुनियादी अवधारणा – जिसका मतलब यह है कि नियोजक और राज्य श्रमिकों की स्वास्थ्य सुविधाओं, रिटायरमेंट लाभों व अन्य लाभों की जिम्मेदारी ग्रहण करें – से बिलकुल परे हट जाती है. (‘द वर्ल्ड डेवेलपमेंट रिपोर्ट 2019’, जो कार्य की बदलती प्रकृति तथा काम के भविष्य की चर्चा करता है, में कहा गया है, “बढ़ी हुई सामाजिक सहायता और बीमा खतरा-प्रबंधन से निपटने के मामले में श्रम नियमन पर लदे बोझ को हलका करते हैं. इस बढ़ी हुई सामाजिक सहायता और बीमा प्रणालियों के माध्यम से जैसे-जैसे लोग बेहतर तरीके से संरक्षित होंगे, वैसे-वैसे श्रम कानूनों को जहां भी उचित हो, अधिक लचीला बनाया जा सकता है ताकि एक रोजगार छोड़कर दूसरा रोजगार अपनाने की गति बढ़ाई जा सके. उदाहरण के लिए, अगर जमीन-निर्वाह योग्य आमदनी मुहैया कराने की इच्छा हो तो कोई भी देश आमदनियों को पूरित करने तथा श्रम उत्पादकता की तुलना में उच्चतर स्तरों पर निर्धारित की गई न्यूनतम मजदूरियों पर दबाव कम करने के लिए अधिक सामाजिक सहायता का इस्तेमाल कर सकती है. इसी प्रकार, बेरोजगारों को दी जाने वाली समर्थन आमदनी किसी पृथक वेतन के बजाय बेरोजगारी लाभों के जरिए मुहैया कराई जा सकती है.”)
इस प्रकार, विश्व बैंक का नुस्खा यह है कि पूंजी के स्वामियों को अपने खुद के श्रमिक-बल की जिम्मेदारियों से मुक्त कराया जाए और यह जिम्मेदारी अब समाज तथा व्यक्तिगत मजदूरों के कंधे पर डाल दिया जाए. यही वह नुस्खा है जिसे मोदी सरकार अब लागू करना चाहती है.
“प्रधान मंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना” में तीन वर्षों तक नए कर्मचारियों के लिए ईपीएफ (भविष्य निधि) तथा ईपीएस (पेंशन योजना) में सरकारी योगदानों का प्रावधान है जो 15000 रुपया प्रति माह से कम आय वाले श्रमिकों के लिए लागू होगा. यह भी नियोजकों के बोझ को हल्का करने का ही तरीका है, जबकि ईएसआई में नियोजक के अंशदान को घटाकर उसे श्रमिकों की मजदूरी के 1.5 प्रतिशत के बराबर कर दिया गया है. सीआइआइ ने सुझाव दिया है कि अगर आय को 15000 रु. प्रति माह से बढ़ाकर 25000 किया जाता है तो प्रारंभिक स्तर को भी बढ़ा दिया जाए.
ट्रेड यूनियनों के गठन की प्रक्रिया को दुरूह बना दिया गया है और आम श्रमिकों की यूनियनों के पंजीकरण को तो पहले ही नकारा जा चुका है. मजदूरों के मौलिक ‘हड़ताल करने के अधिकार’ को विभिन्न रूपों में छीना जा रहा है. ट्रेड यूनियनों की मान्यता से भी हाथ झाड़ लिया गया है.
जितने भी मौजूदा श्रम कानून हैं, उन्हें मजदूर वर्ग की अकूत कुर्बानियों और जुझारू संघर्षों के बाद ही लागू करवाया गया है. इस संदर्भ में आज मजदूर वर्ग आंदोलन एक बार फिर 8 घंटे के कार्य दिवस और ट्रेड यूनियन अधिकारों की सदियों पुरानी मांग को उठाने के लिए बाध्य हो गया है.
अपनी दूसरी पारी में मोदी शासन श्रम संरक्षा और सार्वजनिक क्षेत्र के संपूर्ण ढांचे को नष्ट कर देना चाहता है, और इसकी भारी खर्चीली चुनावी मुहिम के लिए धन मुहैया कराने वाले भारतीय व विदेशी काॅरपोरेटों के प्रति अपना ऋृण चुकाना चाहता है. भारतीय मजदूर वर्ग के लिए जरूरी है कि वह सांप्रदायिक राजनीति से सीधी टक्कर ले तथा अपनी एकता व एकजुटता को मजबूत बनाए. यह एकता और सांप्रदायिकता-विरोधी धार श्रमिक अधिकारों पर इस हमले के खिलाफ मजदूर वर्ग के कारगर प्रतिरोध की पहली शर्त है.
मोदी सरकार ने रेलवे में 100 दिन का ऐक्शन प्लान जारी कर दिया है. सरकार ने भारतीय रेल की सभी सातों उत्पादन इकाइयों का काॅरपोरेटाइजेशन (भविष्य में जल्द ही निजीकरण) करने के अपने इरादे को पूरी तरह से जाहिर कर दिया है.
उत्पादक इकाइयों को रेलवे से अलग कर इंडियन रेलवे रोलिंग स्टाॅक कंपनी (आइआरआरएससी) में पुनर्संगठित करके उसका काॅरपोटाइजेशन करने के बाद कर्मचारियों पर पड़ने वाले कुछ मुख्य दुष्प्रभाव –
इसलिए मोदी सरकार के 100 दिन के ऐक्शन प्लान (रेलवे को पूंजीपतियों को लुटाने की योजना) का पुरजोर विरोध करना बेहद जरूरी है.
-- आरसीएफ इंप्लाईज यूनियन, रेडिका (कपूरथला)