वर्ष - 28
अंक - 32
27-07-2019

असम में, शुरूआती मानसून की वर्षा से आई भीषण बाढ़ के कहर के पहले ही चरण में राज्य के 33 जिलों के 57 लाख लोग उसका शिकार बन गये, और 36 लोग मौत का शिकार हुए. इसके अलावा सैकड़ों जानवर, जिसमें घरेलू पोसे गये पशु और जंगली जानवर भी शामिल हैं, मारे गये. अभी बाढ़ की दो और किश्तें या चरण आना बाकी है.

विशालकाय ब्रह्मपुत्र नदी, जो असम के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक बहती है और हर साल बाढ़ लाती है, का बेसिन 5,80,000 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाला है जो चीन, भारत, बांग्लादेश और भूटान में फैला है. चूंकि इस नदी का उदगम बर्फीले ठंड वाले शुष्क क्षेत्र तिब्बत में है, इसलिये वह अपने साथ अत्यधिक मात्रा में गाद या तलछट लाती है, जिसको यह नदी पहाड़ियों से असम के बाढ़-संभावित समतलों में गिरकर जमा करती जाती है. जब इस गाद से नदी की चैनलों (वाहिकाओं) में रुकावट आ जाती है तो यही गाद बाढ़ का कारण बनती है.

जहां इस किस्म की गाद का बनना और जमा होना एक प्राकृतिक परिघटना है, वहीं बहुत हद तक मानव-निर्मित नीतियों के चलते यह अत्यधिक विनाशकारी परिणाम देने लगी है. न सिपर्फ भारत बल्कि चीन के भी जल-ग्रहण क्षेत्रों (केचमेंट एरिया) में आबादी में वृद्धि भी इसका एक कारक है.

लिबरेशन के सितम्बर 2017 के अंक में एक लेख में संदीपन ठाकुर ने लिखा था: ‘नदियों की बदलती प्रकृति का प्राथमिक कारण विकास के अवैज्ञानिक माॅडलों और नदियों के प्रबंधन के अवैज्ञानिक तरीकों में निहित है. हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर ली गई विशाल निर्माण परियोजनाएं, जैसे ढोला-सादिया सेतु, बोगीबील सेतु, अरुणाचल प्रदेश में पारदेशीय उच्चपथों (हाइवे) का निर्माण, दिबांग बांध, सियांग बांध और सर्वाधिक विवादास्पद लोअर सुबनसिरी वृहत् बांध (बिग डैम) आदि. असम के सुप्रसिद्ध बांध-विरोधी कार्यकर्ता अखिल गोगोई द्वारा जाहिर किये गये आंकड़ों के अनुसार, अकेले बोगीबील सेतु के निर्माण के लिये असम और अरुणाचल प्रदेश दोनों जगह की नदियों से 7.5 लाख शिलाखंड (बाउल्डर्स) निकाले गये हैं. उनके अनुसार, अरुणाचल प्रदेश की लोअर दिबांग घाटी में निर्माणाधीन दिबांग बहुउद्देश्यीय परियोजना में लगभग 193 लाख क्यूबिक मीटर पत्थरों की जरूरत होगी, जो लगभग 32 लाख ट्रकों में भरे पत्थरों के बराबर है. स्वाभाविक है कि इस आवश्यकता को पूरा करने के लिये पहाड़ों और समतलों में नदियों से शिलाखंडों और बड़े पत्थरों को संग्रहित करना होगा. अब भूगर्भ-भौतिकशास्त्रियों का कहना है कि एक-एक विशाल शिलाखंड या पत्थर अपने नीचे इतनी तलछट या बालू दबाये होता है, जो कि उसके वजन का चार गुणा होता है. जब शिलाखंड या विशाल पत्थर को हटाया जाता है तो उसके नीचे की तलछट या बालू खुलकर सामने आ जाता है और जब जलस्तर ऊंचा होने लगता है तो वही तलछट या बालू नीचे की ओर बहने लगता है. इसका परिणाम यह होता है कि नदी पहले ही गाद से भर जाती है जिसकी वजह से उसकी ऊंचाई किनारों से भी अधिक हो जाती है. और अंततः यह गाद उस समूचे क्षेत्र में जाकर जमा हो जाती है जहां जहां बाढ़ का पानी पहुंचता है. अपर असम में (असम के उत्तर-पूर्वी हिस्से में) स्थित धेमाजी और लखीमपुर आदि जिलों में गाद भरे धान के खेत होने का यही मुख्य कारण है. “विकास” के नाम पर जलमय भूमि और प्राकृतिक जल-संचय के साधनों के विनाश ने इस विपदा का प्रतिकार करने वाली प्राकृतिक प्रणाली का भी विनाश कर दिया है जिससे समस्या कई गुणा बढ़ गई है.’

अन्य किस्म के समाधानों की भी खोज की जानी चाहिये. गुवाहाटी विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर दुलाल चंद्र गोस्वामी, जो पर्यावरणविद् और ब्रह्मपुत्र के मामले में विशेषज्ञ हैं, ने इंडियन एक्सप्रेस संवाददाता को बताया कि “स्थायी किस्म के समाधान के लिये इस समस्या के प्रति ‘बेसिन-वाइड एप्रोच’ (सम्पूर्ण तटवर्ती नजरिया) अपनाना जरूरी है.” उनका कहना है कि हमें एक “एकीकृत तटवर्ती (बेसिन) प्रबंधन” प्रणाली की जरूरत है, जिसमें इस विशाल नदी के बेसिन के साझीदार चारों देश शामिल रहें – यानी चीन, भारत, भूटान और बांग्लादेश : केवल असम में, जब वहां बाढ़ अपना प्रकोप दिखलाती है, इस समस्या का निपटारा करने की बातें करना कोई समाधान नहीं है – जरूरत इस बात की है कि चारों देश एक साझी समझदारी पर पहुंचें कि जल-ग्रहण क्षेत्रों (केचमेंट) में क्या क्या उपाय अपनाये जायें. लेकिन एक के बाद एक आने वाली सरकारों के दृष्टिकोण में बाढ़ प्रबंधन की इस किस्म की समग्र योजना का अभाव रहा है.

पहले से सावधानी के कदम नहीं उठाये गये

सरकार असम में तटबंधों (इम्बैंकमेंट) की समुचित देखभाल और सुरक्षा करने में नाकाम रही है. तटबंधों की मरम्मत व देखभाल का जिम्मा ठेकेदारों को सौंप दिया गया है, जो सरकारी अधिकारियों से सांठगांठ करके भ्रष्टाचार की प्रणाली कायम किये हुए हैं. और न ही सरकार ने किसी किस्म की पूर्व-चेतावनी जारी करने या, बाढ़-संभावित क्षेत्रों को पहले ही तुरंत खाली किये जाने की कोई प्रणाली विकसित की है. खबर है कि असम-भूटान सीमांत के गांवों के लोगों ने एक दूसरे को जलस्तर के बढ़ने के बारे में चेतावनी देने के लिये ह्वाट्सएप ग्रुप बना लिया है. अगर आम नागरिक खुद कामचलाऊ ढंग से ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं तो फिर भला सरकार उन्हें एक कारगर ढंग से चेतावनी देने की प्रणाली क्यों नहीं मुहैया करा सकती? केन्द्र सरकार ने असम में खाद्य प्रबंधन के लिये कोष जारी करने में भी देरी करके अक्षम्य अपराध किया है.

बाढ़ और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के बीच

जैसी कि खबर है, बाढ़-पीड़ित लोग, खासकर कमजोर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इस डर से अपना घर-बार खाली करके अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थान की ओर पलायन करने में अनिच्छुक हैं कि इस वजह से राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) में उनका नाम दर्ज करने का दावा कमजोर हो जायेगा, अगर उनके पास अपना दिखलाने योग्य कोई घर ही नहीं होगा. राष्ट्रीय आपदा से निपटने वाले बल नेशनल डिजास्टर रिस्पान्स  फोर्स (एनडीआरएफ) के परवेश कुमार ने इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार को बताया कि वह असम के मौरीगांव जिले के तुलसीबाड़ी गांव की रहने वाली रीना बेगम को समझाने की कोशिश कर रहा था कि वह अपने अधडूबे घर को छोड़कर अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थान पर चली जाये. लेकिन उन्होंने इन्कार कर दिया और पूछा, “हम भला अपना घर कैसे छोड़ सकते हैं?” भले ही उस समय वह खुद कमर भर पानी में डूबे खड़ी थी.