लोग व्यापक तौर पर जिस बात की उम्मीद लगाये थे, उसके उलट मोदी सरकार पहले से ज्यादा मजबूत आकार में वापस आई है. भाजपा ने अपने बूते पहले से बड़ा बहुमत हासिल किया और अपने वोट प्रतिशत को भी बढ़ा लिया है. पिछले पांच वर्षों के दौरान हमने देखा है कि कैसे मोदी सरकार ने 2014 में मिली विजय का इस्तेमाल न सिर्फ कॉरपोरेट लूट एवं आक्रामकता को बढ़ावा देने में, बल्कि संविधान के खिलाफ लगातार युद्ध छेड़ने में, शासन के विभिन्न संस्थानों की स्वायत्तता तथा नियंत्रण एवं संतुलन कायम रखने की पूरी प्रणाली को तबाह करने और आरएसएस के एजेन्डा को लागू करने में किया. यह सोच पाना मुश्किल नहीं है कि अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार अपने द्वितीय शासनकाल में सत्ता का कैसे इस्तेमाल करेगी. सचमुच, पहले दस दिनों में ही इसके कई शुरूआती संकेत सामने आ चुके हैं.
अपनी धोखेभरी लप्फाजी को चरितार्थ करते हुए मोदी ने समेकित शासन का चतुराई भरा शोर खड़ा किया, और अपनी पार्टी कतारों से जीत के बावजूद विनम्रता अपनाने का आग्रह किया तथा अल्पसंख्यकों को भरोसा दिया कि उनके लिये डरने की कोई बात नहीं है. इसका मकसद शायद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को प्रभावित करना था, जिनके बीच मोदी को ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा अपने कवर पर दी गई शीर्षक पदवी ‘डिवाइडर-इन-चीफ’ (सबसे बड़ा फूटपरस्त) के रूप में जाना जाता है. हां जरूर, देश के अंदर उनके अनुगामियों ने मोदी के कथन को अपने लिये प्रोत्साहन और दंड-भय से मुक्ति के भरोसे के बतौर देखा है और इसीलिये उन्होंने अपनी जीत का समारोह मनाते हुए आतंक की दर्जनों घटनाओं को अंजाम दे डाला है. इसमें विपक्षी कार्यकर्ताओं की हत्या की गई, मतदाताओं को पीटा गया और त्रिपुरा में भाजपा की जीत का समारोह मनाने के लिये चंदा वसूलने के नाम पर विरोधी मतदाताओं पर सजा के बतौर जुर्माना भी लगा दिया गया. पश्चिम बंगाल में अपनी चकित कर देने वाली सफलता से फूले नहीं समाती भाजपा पूरे राज्य को जीत लेने के अभियान में उतर पड़ी है और तृणमूल कांग्रेस में थोक भाव में दल-बदल करा रही है.
नई सरकार का सबसे स्पष्ट संकेत नए कैबिनेट के गठन से मिला, जिसमें अमित शाह को गृहमंत्री के बतौर शामिल किया गया है. अमित शाह को कैबिनेट में मोदी के बाद दूसरा सबसे शक्तिशाली पद मिला है. यहां याद रखना होगा कि जब अमित शाह गुजरात में मोदी मंत्रिमंडल में गृहमंत्री थे तो वहां होने वाली मुठभेड़ों की शृंखला के पीछे उनका ही दिमाग काम कर रहा था, जिसके चलते उनको जेल भी जाना पड़ा था और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गुजरात से तड़ीपार भी कर दिया गया था, मगर बाद में उन्होंने बड़े संदिग्ध तरीकों से अपने आपको बरी करवा लिया. 2019 के चुनाव में मोदी और शाह दोनों ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लागू कराने तथा नागरिकता कानून में संशोधन करने के पक्ष में आक्रामक ढंग से प्रचार किया था, जिसमें उन्होंने आप्रवासियों को घुसपैठिया और दीमक बताया था तथा वादा किया था कि उनको जबरदस्ती देश से बाहर खदेड़ दिया जायेगा. आरएसएस के एजेंडा में शामिल अन्य प्रमुख मुद्दों जैसे अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 और 35-ए का खात्मा आदि को भाजपा के 2019 के चुनाव घोषणापत्र में विशेष महत्व देकर उल्लेखनीय स्थान दिया गया है और हमारे देश के संविधान और गणतंत्र की संस्थागत आधारशिला के खिलाफ मोदी सरकार द्वारा लगातार चलाये जा रहे युद्ध को तीखा करने में अमित शाह स्पष्ट रूप से एक प्रमुख भूमिका निभाएंगे.
मोदी के मंत्रिमंडल में दो अन्य लोगों को शामिल किया जाना सरकार की आगामी दिशा का संकेत देता है. एक है भूतपूर्व नौकरशाह सुब्रह्मण्यम जयशंकर की विदेश मंत्री के बतौर नियुक्ति, जो जनवरी 2015 से लेकर जनवरी 2018 तक मोदी सरकार के तहत विदेश सचिव के पद पर कार्यरत थे. यह बिल्कुल स्पष्ट रूप से दर्शा देता है कि कैसे मोदी सरकार सुनियोजित ढंग से नौकरशाही का राजनीतिकरण कर रही है और उसकी स्वायत्तता को नष्ट कर रही है. हम मोदी को इस दिशा में दो महत्वपूर्ण कदम उठाते पहले ही देख सकते हैं - नए चालू किये गये “लैटरल इन्ट्री” रूट के जरिये नौकरशाही को अपने चुनिन्दा लोगों से भर देना और फिर उन नौकरशाहों को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लेना. अवसरप्राप्त सेना प्रमुख और उच्च पदों पर रह चुके नौकरशाहों के मंत्रिमंडल में शामिल होने की परिघटना से हम इस बात को स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि कैसे आरएसएस की मदद से सरकार हर संस्था में घुसपैठ कर रही है और एक सर्वभक्षी राजसत्ता की नींव रख रही है. कैबिनेट में एक और “चौंकाने वाली नियुक्ति” है ओड़िशा से प्रताप चंद्र षड़ंगी. उनको सादगी और “समाज सेवा” का मूर्तिमान रूप बताया जा रहा है, जबकि वास्तव में उनको सबसे अच्छी तरह जाना जा सकता है ओड़िशा में बजरंग दल की इकाई के मुखिया के बतौर, जिन्होंने वर्ष 1999 में आस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स एवं उनके दो छोटे-छोटे बच्चों को जिंदा आग में जला देने के लिये लोगों को भड़काया था.
अपनी पहली पारी में मोदी सरकार ने “सहकारी संघवाद” का जुमला रचा था , लेकिन हकीकत में उसने ऐसी अतिकेन्द्रीकरण वाली मशीन की भूमिका अदा की जिसने भारतीय राजप्रणाली को किसी भी किस्म के संघवाद से कोसों दूर, क्रमशः बढ़ते एकीकृत राज्य की ओर झुका देने की पूरी कोशिश की. इस पारी में मोदी ने एक और छलभरा खेल शुरू किया है जिसको नारा (एनएआरए) का संक्षिप्त नाम दिया गया है. पूरा नाम प्रतीत होता है नेशनल एम्बिशन एंड रीजनल एस्पिरेशन्स (राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा और आंचलिक आकांक्षा). लेकिन ठीक जैसे भाजपा के लोकसभा सदस्यों में एक भी मुसलमान चेहरा नहीं है, वैसे ही मोदी के मंत्रिमंडल में दक्षिण भारत के राज्यों का बहुत ही सीमित प्रतिनिधित्व है, जो आरएसएस के हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान मॉडल का क्रमशः बढ़ता दबाव झेल रहे हैं. मोदी सरकार का यह संघवाद-विरोधी, विविधता-विरोधी चरित्र नई शिक्षा नीति के मसविदा में इस प्रस्ताव से भी एकदम स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी को सभी गैर-हिंदी भाषी राज्यों में अनिवार्य तीसरी भाषा बना दिया जाए. मोदी सरकार की क्रमशः बढ़ती केन्द्रीयकरण करने की प्रवृत्ति एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़) के अंदर संतुलन पर प्रभाव डाल रहा है, जिसके फलस्वरूप भाजपा के द्वितीय सबसे बड़े संश्रयकारी जद(यू) ने मंत्रिमंडल में प्रतीकी भागीदारी के प्रस्ताव से इनकार कर दिया है.
चुनाव के दौरान मोदी सरकार ने पूरे कार्यकाल में अपने प्रदर्शन की सार्वजनिक जांच से बचने का पूरा प्रयास किया. सरकार ने संकट की चेतावनी देने वाले सकल घरेलू उत्पाद और बेरोजगारी के आंकड़ों को प्रकाशित होने से दबा दिया और शीर्षस्थ सांख्यिकी विशेषज्ञों को इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया. अब जाकर वे आंकड़े आधिकारिक रूप से सामने आये हैं. अब सरकारी तौर पर रिकार्ड में आ गया है कि 2019 की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर पिछले पांच वर्षों में सबसे कम - 5.8 प्रतिशत - पर आ गई थी, जो वृद्धि दर के दहाई के आंकड़े पर पहुंचने के मोदी सरकार द्वारा किये गये लम्बे- चौड़े दावों के बिल्कुल विपरीत है. और जहां वृद्धि की दर अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है, वहीं बेरोजगारी ने पैंतालीस साल पहले के सबसे ऊंचे शिखर को छू लिया है. मोदी सरकार दावा करती है कि उसने भारत को विश्व स्तर पर बढ़ती स्वीकृति दिलाई है, मगर उसके दूसरी बार सत्ता में आने के साथ ही अमरीका ने भारत को जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफरेन्स (जीएसपी) का दर्जा देने से इनकार करने की घोषणा कर दी है. इसका मतलब यह है कि अब अमरीका को निर्यात की जाने वाली लगभग 50 वस्तुएं महंगी हो जायेंगी जिससे भारत के छोटे और मझोले दर्जे के उद्यमों को भारी चोट झेलनी होगी, जो जीएसपी के तहत निर्यात किये जाने वाले मालों का मुख्य हिस्सा उत्पादित करते हैं. सरकार ने अभी तक इसका कोई संकेत नहीं दिया है कि वह इन तमाम आर्थिक चुनौतियों से कैसे निपटेगी. मगर सरकार ने तुरंत सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पीएसयू) के निजीकरण और ट्रेड यूनियन अधिकारों में कटौती का एक रोड मैप जरूर घोषित कर दिया है.
मोदी सरकार ने फिर से वही काम चालू कर दिया है जो वह अपने पहले कार्यकाल में सदैव करती रही है - अर्थतंत्र का विनाश करना, जनता में विभाजन पैदा करना और लोकतंत्र के संस्थागत ताने-बाने को तबाह कर देना. भारत की जनता को भी बिना देर किये अपने प्रतिरोध को फिर जारी रखना होगा.