वर्ष - 28
अंक - 9
16-02-2019

अगर मोदी सरकार ने यह सोचा था कि उसको राफेल सौदे के मामले में सर्वोच्च न्यायालय से ‘क्लीन चिट’ मिल गई है, और अब तो इस विषय पर बात खतम ही मान ली गई है, तो इससे बड़ी उनकी और क्या गलती हो सकती है. राफेल का भूत और डरावना बनकर लौट आया है. बजट पेश किये जाने के बाद दिये गये अपने लम्बे-चौड़े भाषण का अच्छा-खासा वक्त मोदी को इस सौदे का बचाव करने में ही खर्च हो गया, और उसके बाद से तो खुद प्रतिरक्षा मंत्रालय के अंदर से उठाई गई आपत्तियों के बारे में एक के बाद एक विस्फोटक खुलासे हो रहे हैं, और राफेल सौदे में कौल-करार की प्रक्रिया और सौदे की शर्तों के बारे में कई राजों का पर्दाफाश हुआ है. अब यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार अभी तक इस सौदे की शर्तों और उसके निहितार्थों के बारे में सर्वोच्च न्यायालय और जनता को बहकाने-भरमाने में लगी हुई थी.

अब कुछेक तथ्य तो पानी की तरह साफ हो गये हैं. भारत और फ्रांस के बीच हस्ताक्षरित इस सौदे को, मोदी की खुद अपनी सरकार के प्रतिरक्षा मंत्रालय द्वारा जाहिर की गई गंभीर चिंताओं और आपत्तियों को ठुकराते हुए, प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा ही सम्पूर्णतः अंतिम रूप दे दिया गया था. हालांकि इसको दो देशों के बीच हुए सौदे के रूप में सामने पेश किया जा रहा है, फिर भी इस सौदे के पीछे फ्रांस सरकार द्वारा दी गई सार्वभौमिक गारंटी नहीं है. इस सौदे में कोई भी भ्रष्टाचार-विरोधी उपधारा नहीं शामिल की गई है, जबकि भारत की किसी भी सरकार द्वारा प्रतिरक्षा सामान की खरीद में मानक प्रचलन के बतौर इस किस्म की उपधारा शामिल रहना अनिवार्य है. और यह सौदा 36 ऐसे विमानों का किया गया है जिनका पूरा का पूरा निर्माण फ्रांस में ही होगा, जो कि “मेक इन इंडिया” के ध्येयवाक्य का सम्पूर्ण रूप से उल्लंघन है और इसमें भारत को टेक्नालॉजी हस्तांतरित करने का कोई प्रावधान निहित नहीं है.

हम जानते हैं जब तक मोदी ने अप्रैल 2015 में अपनी पैरिस की यात्रा के दौरान एक सम्पूर्ण रूप से नये सौदे की घोषणा नहीं की थी, तब तक प्रतिरक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय की ओर से हमें उस पुराने सौदे के बारे में ही बताया जा रहा था जिसमें भारतीय साझीदार के बतौर हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) शामिल था. अब हम यह भी जानते हैं कि मोदी की यात्रा से पन्द्रह दिन पहले अनिल अम्बानी फ्रांसीसी प्रतिरक्षा मंत्री के कार्यालय में गये, उन्होंने इस सौदे के सम्बन्ध में अपनी रुचि जाहिर की थी और इस बात का उल्लेख किया था कि एक मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग तैयार किया जा रहा है जिस पर मोदी की यात्रा के दौरान दस्तखत किये जायेंगे. लगभग इसी समय अनिल अम्बानी ने भारत में अपनी निजी प्रतिरक्षा उद्योग की कम्पनी को पंजीकृत (इन्कारपोरेट) करा लिया था. यहां हमें अपने पाठकों को यह ध्यान दिलाने की जरूरत नहीं कि अनिल अम्बानी मोदी के डेलीगेशन में शामिल थे और उनकी अभी अभी जन्मी प्रतिरक्षा कम्पनी रिलायन्स डिफेन्स ने सौदे में प्रमुख भारतीय साझीदार के बतौर एचएएल का स्थान कब्जा कर लिया था.

भाजपा विपक्ष पर वायु सेना के खिलाफ साजिश रचने का आरोप लगाकर राफेल सौदे का बचाव करने की कोशिश कर रही है. यह इतना हास्यास्पद बचाव है कि इस किस्म के बहाने की कोई सोच भी नहीं सकता. जब वीपी सिंह, भाजपा एवं अन्य विपक्षी पार्टियों ने राजीव गांधी सरकार के दिनों में बोफोर्स सौदे के बारे में सवाल उठाया था, तो क्या वे भारतीय सेना को कमजार करने की कोशिश कर रहे थे? अगर वायु सेना की ही बात की जाय तो भाजपा को ही इस सवाल का जवाब देना होगा कि उन्होंने 126 विमानों की खरीद के सौदे की जगह केवल 36 लड़ाकू जेट विमानों पर समझौता क्यों कर लिया? उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा समानान्तर रूप से समझौता वार्ता चलाये जाने के बारे में प्रतिरक्षा मंत्रालय द्वारा उठाई गई आपत्तियों को क्यों ठुकरा दिया, जिसकी वजह से भारत की मोल-तोल की क्षमता कमजोर हो गई, विमानों की कीमतें कई गुना बढ़ गईं और भारत को एक ऐसा समझौता करने पर मजबूर कर दिया गया जिसमें फ्रांसीसी सरकार की कोई सार्वभौमिक गारंटी नहीं शामिल है? कुछ लोग जो जेट विमानों की तुरंत आवश्यकता का तर्क दे रहे हैं वह भी बिल्कुल निराधार है क्योंकि ये विमान भी 2021 तक नहीं हाथ में आयेंगे, और उस समय तक ये विमान तो टेक्नालॉजी के लिहाज से पुराने पड़ ही जायेंगे!

कुछ लोग घोटाले के आरोप का यह कहकर खंडन करने की कोशिश कर रहे हैं कि अभी तक तो हमें कोई ऐसा पैसे का लेनदेन सामने नहीं दिखाई पड़ा है जिससे भाजपा या मोदी सरकार को फायदा पहुंचा हो. अभी हाल में राजनीतिक पार्टियों को कॉरपोरेट कम्पनियों द्वारा फंड दिये जाने सम्बंधी जो कानूनों में संशोधन हुआ है, उसके अनुसार तो पैसे के लेन-देन की राह पहले ही कानूनी तौर पर अदृश्य कर दी गई है. मगर पैसे का लेन-देन इसी बीच हो चुका है या फिर भविष्य में उसे अंजाम दिया जायेगा, इसके बारे में तो हम बस अंदाजा ही लगा सकते हैं, मगर अनिल अम्बानी की अभी-अभी पंजीकृत की गई प्रतिरक्षा कम्पनी को इस किस्म के सौदे में प्रमुख भारतीय साझेदार बना देना अपने आप में बहुत बड़ा घोटाला है. अब यह पर्याप्त रूप से स्पष्ट हो चुका है कि इस कम्पनी को चुनने का निर्देश और किसी ने नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री मोदी ने दिया था. यह उतना ही बड़ा घोटाला नजर आता है जिसे संदिग्ध ढंग से चोरी-छिपे प्रधानमंत्री ने इस सौदे को अपने हाथों हड़प लिया और उसको अंतिम रूप दे दिया, जिसके दौरान उन्होंने न सिर्फ पिछली सरकार द्वारा शुरू की गई समझौता वार्ता से कन्नी काट ली, बल्कि उनकी अपनी सरकार की समझौता-वार्ता टीम ने इस सौदे की जो आधारशिला रखी थी उसको भी दरकिनार कर दिया.

अप्रैल 2015 में राफेल सौदे पर हस्ताक्षर करना, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले नवम्बर 2016 में नोटबंदी की घोषणा करना, और 2018 का अंत आते आते सीबीआई में रातोंरात तख्तपलट करना - ये तीनों उस मनमाने, साजिशाना और निरंकुश तानाशाही रवैये के तीन बड़े उदाहरण हैं, जिससे मोदी सरकार अपना शासन चलाती रही है. तमाम प्रमुख फैसले सम्पूर्ण रूप से केन्द्रीकृत ढंग से लिये गये हैं, जिसकी डोर नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और अजित डोभाल की तिकड़ी के हाथों में है. किसी भी मंत्रालय से अथवा किसी भी संस्थान से आने वाले किसी भी असहमति के स्वर को सीधे, प्रणालीबद्ध ढंग से दरकिनार कर दिया जाता है या फिर उसका दमन कर दिया जाता है. पिट्ठू पूंजीवाद एक ऐसे स्तर पर पहुंच गया है जहां प्रधानमंत्री एक लुभावने, बड़े पैमाने के प्रतिरक्षा सौदे में कार्यतः एक असफल साबित हो चुके व्यवसाय-मालिक के हित में बिचौलिये की भूमिका अदा करते हैं, जो दूरसंचार (टेलीकम्युनिकेशन) क्षेत्र में दीवालिया हो रहा है. जो नये सबूत रोशनी में आ रहे हैं उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निरर्थक साबित कर दिया है. राफेल सौदे पर संयुक्त संसदीय जांच कमेटी नियुक्त करना अनिवार्य हो गया है. और भारत की जनता के लिये, अब यह अनिवार्य बन गया है कि भारत के इतिहास में इस सबसे भ्रष्ट, साम्प्रदायिक और निरंकुश अत्याचारी शासन को आगामी लोकसभा चुनाव में सत्ता से उखाड़ फेंकें.