वर्ष - 27
अंक - 45
27-10-2018

पिछले दो हफ्तों में फिल्म, पत्रकारिता, कला-जगत, शैक्षणिक जगत और सामाजिक कार्यकर्ताओं की दुनिया में बड़ी हस्ती रखने वाले आदतन यौन-उत्पीड़कों का पर्दाफाश करते हुए महिलाओं द्वारा अपनी जबानी यौन-उत्पीड़न की कहानी खुद कहने की बाढ़ सी आ गई है. पिछले वर्ष हॉलीवुड में यौन हमला करने वाले हार्वे वीनस्टीन जैसे शिकारियों का पर्दाफाश करने वाली अमरीकी महिलाओं की तरह ही इन महिलाओं ने भी मीटू हैशटैग का इस्तेमाल करते हुए मांग की है कि महिलाओं के यौन हिंसा के अपने अनुभव वर्णन को स्वीकार्यता दी जाय और उन पर विश्वास किया जाय. शक्तिशाली और सम्मानित पुरुषों पर आरोप लगाने पर होने वाले संभावित अलगाव के आशंकाबोध को तोड़ते हुए मीटू आंदोलन ने कई महिलाओं के अंदर जबान खोलने और अपने उत्पीड़कों का पर्दाफाश करने का साहस पैदा किया है.

एक पत्रकार प्रिया रमानी ने वरिष्ठ पत्रकार और मोदी मंत्रिमंडल के सदस्य केन्द्रीय मंत्री एम.जे. अकबर के बारे में खुलासा किया कि वे जिन अखबारों और पत्रिकाओं के सम्पादक रहते हैं उनमें काम करने वाली युवा महिलाओं को अपना शिकार बनाते हैं. जल्द ही कई अन्य महिलाएं भी लम्बे अरसे तक अकबर द्वारा यौन-उत्पीड़न और परेशानी का सामना करने के अपने-अपने अनुभवों का वर्णन करने सामने आईं.

जब अकबर के मंत्री पद से इस्तीफे या उन्हें हटाये जाने की मांग जोर पकड़ने लगी तो अकबर अपनी रट पर अड़े रहे और उन्होंने इस्तीफा देने से इन्कार कर दिया तथा उन पर आरोप लगाने वालों को झूठा बताते हुए कहा कि मीटू का तूफान “आम चुनाव के चंद महीने पहले खड़ा किया गया है” जिसके पीछे मोदी सरकार को शर्मसार करने का राजनीतिक “एजेन्डा” छिपा हुआ है. अकबर का मंत्री पद पर बने रहना और जिस तरह वे अपना बचाव किये जा रहे थे उसके ढर्रे से यह साफ जाहिर हो गया कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा पार्टी अकबर द्वारा मामले को निर्लज्जतापूर्वक दबाने की कोशिश में मददगार हैं. अकबर ने खुलेआम धमकी देते हुए प्रिया रमानी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया. मगर जब प्रिया रमानी के समर्थन में बीस महिला पत्रकार सामने आ गईं जिन्होंने अकबर के हाथों यौन उत्पीड़न के अपने-अपने किस्सों का बयान करना शुरू कर दिया तो मजबूर होकर अकबर को पद से इस्तीफा देना पड़ा. यह मोदी सरकार की ताकत के खिलाफ मीटू अभियान की विराट विजय थी.

अकबर के यह दावे कि ये आरोप राजनीति से प्रेरित हैं, बिल्कुल बेबुनियाद हैं क्योंकि मीटू अभियान ने सभी रंगों की राजनीतिक पार्टियों के यौन-अपराधियों का भंडाफोड़ किया है. अगर मोदी के समर्थक और अकबर जैसे दक्षिणपंथी, नाना पाटेकर, चेतन भगत और आलोक नाथ जैसे लोगों का पर्दाफाश हुआ है, तो इसी तरह विनोद दुआ और कलाकार जतिन दास जैसे प्रमुख भाजपा-विरोधी चेहरों और आवाजों के भी मामले सामने आये हैं.

यौन-उत्पीड़न के मामले को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिये. प्रगतिशील और वामपंथी संगठनों, पार्टियों और संस्थाओं को भी अपनी-अपनी कतारों में यौन-उत्पीड़न और नारी-विद्वेष को रोकने और उसके खिलाफ कार्यवाही करने की जिम्मेवारी और जवाबदेही लेनी होगी. जो महिलाएं जाने-माने और प्रभावशाली पुरुषों द्वारा किये गये यौन-उत्पीड़न की घटनाओं का पर्दाफाश कर रही हैं, वे भारी जोखिम उठाकर ऐसा कर रही हैं और उन्हें अपनी निजी मानसिक शांति और सुरक्षा की कीमत पर, और अपने पेशे के कैरियर का जोखिम उठाकर ऐसा करना पड़ रहा है. पांच साल पहले जिस पत्रकार का तरुण तेजपाल ने बलात्कार किया था, उन्हें अभी भी न्याय का व्यर्थ इंतजार करना पड़ रहा है, क्योंकि तेजपाल ने धूर्ततापूर्वक पुलिस और अदालत को चक्कर खिला दिया है और कानूनी प्रक्रिया को अनिश्चितकाल के लिये रुकवा दिया है.

शिकायत दर्ज कराने वाली महिलाओं को मानहानि के मुकदमे की धमकियां दी जा रही हैं. प्रिया रमानी के साथ-साथ, आलोकनाथ के खिलाफ बलात्कार की शिकायत करने वाली फिल्म प्रोड्यूसर विनता नंदा, और नाना पाटेकर द्वारा यौन-उत्पीड़न का पर्दाफाश करने वाली तथा पाटेकर के समर्थकों की भीड़ हिंसा का शिकार बनी तनुश्री दत्ता भी मानहानि के मुकदमों में फंसाई गई हैं, जिनकी कोशिश है कि शिकायत करने वालों को चुप करा दिया जाय और डराकर अपनी बात कहने से रोक दिया जाय. भाजपा के सांसद राजीव चन्द्रशेखर द्वारा संचालित एक संस्था में कार्यरत एक महिला कर्मचारी को, चंद्रशेखर के एक घनिष्ठ सहयोगी पर यौन-उत्पीड़न का आरोप लगाने के चलते अपने काम से हाथ धोना पड़ा; उस सहयोगी ने अदालत से एक मुंहबंदी का आदेश निकलवा दिया है, जिससे महिला कर्मचारी पर अपने मामले के बारे में कुछ भी बोलने-बताने की रोक लग गई है.

लेकिन महिलाएं इसके खिलाफ लड़ रही हैं. अकबर के समर्थक यौन-उत्पीड़न की शिकायतों को हवा में उड़ाने और भारत की गरीब और मजदूर वर्ग की महिलाओं की “वास्तविक” चिंताओं की तुलना में तुच्छ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. उनको याद दिलाना चाहिये कि एक दलित महिला भंवरी देवी के ‘साथिन’ के बतौर काम करने के दौरान भोगे गये यौन-उत्पीड़न के अनुभव और उसके बाद हुए सामूहिक बलात्कार की शिकायत पर ही 1997 में सर्वोच्च न्यायालय को कार्यस्थल पर यौन-उत्पीड़न के खिलाफ विशाखा गाइडलाइन जारी करना पड़ा था. दुनिया भर में कार्यस्थलों पर और फैक्टरियों में महिला मजदूरों को अंकुश में रखने के लिये यौन-उत्पीड़न के औजार का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाता है और भारत इसका अपवाद नहीं है. मीटू आंदोलन के आवेग ने अमरीका में घरेलू मजदूरों, खेत मजदूरों, फैक्टरी मजदूरों, रेस्टोरेंट में कार्यरत मजदूरों, सफाई मजदूरों एवं अन्य मेहनतकशों द्वारा व्यापक रूप से फैले यौन-उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई के प्रति समर्थन जुटाने का प्रयास शुरू कर दिया है.

महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने वादा किया है कि वे मीटू की शिकायतों पर न्याय करने के लिये चार अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों का एक पैनल नियुक्त करेंगी. मगर आसानी से समझा जा सकता है कि इस किस्म के कदम लोगों की आंखों में धूल झोंकने के प्रयास हैं, जिनका मकसद मीटू की बाढ़ को शांत करना और उसे अपने नियंत्राण में लेना है. अकबर के मामले में भाजपा द्वारा लम्बे अरसे तक बरती गई चुप्पी और फिर त्यागपत्र देने में देर करना, तथा यौन उत्पीड़न की शिकायत करने वाली महिला कर्मचारी को चुप कराने और काम से निकालने की सजा देने में भागीदार अपने सांसद राजीव चन्द्रशेखर पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करने से इन्कार ने एक बार फिर इस बात का खुलासा कर दिया है कि भाजपा का “बेटी बचाओ” का जुमला कितना खोखला है.