दिल्ली उच्च न्यायालय ने जेएनयू छात्र कन्हैया कुमार को उनके 9 फरवरी 2016 के दिन कथित “राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के लिए दंडित करने के जेएनयू प्रशासन के काम को खारिज कर दिया - न्यायालय ने कहा कि यह आदेश “अवैधता, अ-तार्किकता और प्रक्रियागत अनौचित्य की बुराई से ग्रस्त है.”
जेएनयू द्वारा गठित “उच्च स्तरीय जांच कमेटी” ने 14 छात्रों पर भारी आर्थिक जुर्माना तथा उमर खालिद के निष्कासन की सिफारिश की थी. उस समय दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन दंगों को स्थगित करते हुए जेएनयू को एक अपीलीय प्राधिकार गठित करने का निर्देश दिया था जो छात्रों की याचिकाओं को सुन सके और जांच कमेटी के फैसलों की समीक्षा कर सके. 5 जुलाई को जेएनयू ने घोषित किया कि अपीलीय पैनल ने जांच कमेटी के अधिकांश फैसलों को सही ठहराया है, हालांकि उसे कुछ मामलों में दंड को थोड़ा कम जरूर किया है. छात्रों ने पुनः उच्च न्यायालय में अपील की, और 20 जुलाई 2018 को जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल की पीठ ने जेएनयू की कार्रवाई को अवैध बताते हुए खारिज कर दिया.
रोचक बात यह है कि जेएनयू प्रशासन ने न्यायालय के समक्ष छात्रों के खिलाफ अपने आरोपों के साक्ष्य के बतौर 9 फरवरी की घटना की जांच के लिए दिल्ली सरकार द्वारा आदेशित मैजिस्टीरियल जांच की रिपोर्ट को पेश किया था. लेकिन डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट (डीएम) संजय कुमार के जांच में छात्रों के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं पाया, बल्कि उन्हीं छात्रों को फंसाने के लिए की गई व्यापक तिकड़मों के ही साक्ष्य प्राप्त हुए.
मैजिस्टीरियल जांच ने पाया कि उस घटना के जो सात वीडियो जांच के लिए भेजे गए थे, उनमें से तीन के साथ छेड़छाड़ की गई थी और उनमें एक तो यू-ट्यूब पर पाई गई एक न्यूज चैनल की क्लिपिंग थी. इन वीडियो में छेड़छाड़ करके ‘बंदूक’, ‘शेर के बच्चे’, ‘हुर्रियत के जवान’ और ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ जैसे शब्द घुसा दिए गए थे. ऐसा कोई वीडियो नहीं मिला जो साबित कर सके कि आरोपी छात्र ‘टुकड़े-टुकड़े’ वाला उकसावामूलक नारा उछाल रहे थे. फिर भी, चैनलों में इस वीडियो को खूब चलाया गया, ताकि जेएनयू छात्रों को ‘टुकड़े टुकड़े गिरोह’ करा दिया जा सके. जी- न्यूज, जो उस दिन एबीवीपी के बुलावे पर जेएनयू गया था, ने पुलिस को अपने न्यूज प्रसारण के वीडियो रिकॉर्डिंग दिए जिसके आधार पर एफआईआर दर्ज किया गया ऋ लेकिन उसने बार-बार आग्रह किए जाने के बावजूद वे रिकॉर्डिंग मैजिस्ट्रेट को नहीं दिए. उक्त मैजिस्ट्रेट ने निष्कर्ष निकाला कि इन वीडियो में “जनता को गुमराह करने की संभावित मंशा के साथ” छेड़छाड़ की गई है.
मैजिस्ट्रेट की जांच में यह भी पाया गया कि जेएनयू प्रशासन ने साक्ष्यों के साथ भी छेड़छाड़ की है. जी- 4 एस (जेएनयू द्वारा नियुक्त सिक्युरिटी कंपनी) के मैनेजर देवेंद्र सिंह विश्ट ने स्पष्टतः दो किस्म के बयान दिए. पहले बयान में उन्होंने उमर खालिद को नारे लगाते बताया. डीएम ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने उमर खालिद के मुंह से इन नारों को निकलते सुना. तब मैनेजर ने अपना बयान बदल दिया. उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने साफ तौर पर उमर खालिद को वे नारे लगाते नहीं सुना था.
जी- 4 एस के एक गार्ड अमरजीत सिंह ने उमर खालिद और अन्य लोगों को नारे लगाते सुने जाने का दावा किया था, लेकिन विस्तार से पूछे जाने पर उसने खालिद के बारे में अपना बयान बदल दिया. डीएम ने पाया कि उमर पर जिन शब्दों को बोलने का आरोप लगाया गया था, वे शब्द उस वक्त नहीं बोले गए थे.
बीपी यादव एक अन्य गवाह है, जिसने जेएनयू जांच कमेटी के सामने एक किस्म का बयान दिया और डीएम के सामने विपरीत किस्म का. उसने जेएनयू की आंतरिक समिति को बताया कि “उसने गंगा ढाबा के नजदीक कन्हैया को राष्ट्र-विरोधी नारे लगाते सुना था.” लेकिन इसी गवाह ने डीएम के सामने कहा कि वह गंगा ढाबा पर मौजूद नहीं था.
स्मरण रहे, इस घटना के दो वर्ष बीत जाने के बाद भी दिल्ली पुलिस राजद्रोह के आरोपी छात्रों के खिलाफ कोई चार्जशीट दायर नहीं कर पाई है. स्पष्टतः यह पूरी घटना जेएनयू को बदनाम करने की सुनियोजित साजिश है ऋ ठीक वैसे ही, जैसे कि टीवी न्यूज रूमों में - लेकिन कोर्ट में नहीं - विभिन्न मनगढ़ंत चिट्ठियां चमत्कारिक ढंग से दिखाकर यह सिद्ध करने का दावा किया जाता है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता “शहरी नक्सल” हैं जो प्रधान मंत्री की हत्या की योजना बना रहे हैं.
जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल ने एक दूसरे मामले की सुनवाई की जो जेएनयू के छात्रों द्वारा उपस्थिति पंजिका में दस्तखत करने को अनिवार्य बनाने के नियम से संबंधित था (यह नियम गैर-कानूनी है, क्योंकि इसे जेएनयू के शैक्षिक परिषद के समक्ष न तो पेश किया गया, न इस पर बहस-मुबाहिसा हुई और न ही इसे पारित किया गया था). 16 जुलाई को दिल्ली उच्च न्यायालय (जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल) ने जेएनयू को निर्देशित किया, रिट पिटिशन के लंबित रहने के दौरान.... उपस्थिति अनिवार्यता के मामले में छात्रों के खिलाफ कोई उत्पीड़नकारी कदम न उठाए जाएं.”
उच्च न्यायालय में सुनवाई की जा रही इस याचिका को पांच संकायाध्यक्षों ने दायर किया था, जिन्हें जेएनयू प्रशासन ने जनवरी 2018 में जारी किए गए ‘अनिवार्य उपस्थिति पंजिका’ सर्कुलर का पालन न करने के लिए हटा दिया था.
जेएनयू से संबंधित तमाम मुकदमों में जेएनयू प्रशासन का प्रतिनिधित्व सीनियर एडवोकेट कर रहे थे, जो भाजपा और मोदी सरकार से करीबी रिश्ता रखते हैं. इस उपस्थिति पंजिका मामले में जेएनयू प्रशासन का प्रतिनिधित्व अमन लेखी कर रहे थे, जो सर्वोच्च न्यायालय में भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जेनरल हैं. अमन लेखी की पत्नी मीनाक्षी लेखी भाजपा सांसद हैं. जब जस्टिस मृदुल ने कहा कि ऐसे आदेश - जिसकी वैधता के बारे में कोर्ट सुनवाई कर रहा है - का अनुपालन न करने के लिए छात्रों को दंडित करने से रोकने के लिए यह कोर्ट आदेश जारी करेगा, तब अमन लेखी ने यह कहते हुए शायद अपनी तमाम शिष्टता खो दी कि, “ये छात्र राष्ट्र के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं, वे राष्ट्र-विरोधी हैं; वे देश को तोड़ देना चाहते हैं और अफजल गुरू का गौरव-गान करते हैं.” जस्टिस मृदुल ने सही तौर पर इस राजनीतिक खटराग को सुनने से इनकार कर दिया जो अदालत के बजाय गोदी टीवी स्टूडियो में ज्यादा जंचता है. तब अमन लेखी ने उस जज से कहा, “आप फैसला कैसे सुना सकते हैं?” इस पर जज ने उन्हें स्मरण कराया, “फैसले सुनाने के लिए हमें किसी की इजाजत नहीं चाहिए.” जब मोदी सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए एएसजी जज से यह पूछता है कि आप कैसे फैसला सुना सकते हैं, तो इससे उसका तात्पर्य है, “आप ऐसा फैसला सुनाने का साहस कैसे कर सकते हैं जिसे मोदी शासन स्वीकार नहीं करता है?” यह जेएनयू के संघी कुलपति के अवैध फैसलों के हक में अपना बल लगाने का सरकारी प्रयास ही है, और साथ ही अदालत को डराने-धमकाने की कोशिश भी. क्या जेएनयू अमन लेखी की फीस भर रहा है या सरकार स्वयं इस बिल को लागू करना चाह रही है ?
20 जुलाई को जी-न्यूज के ‘लोकतंत्र के मंदिर में आस्था की लड़ाई’ शीर्षक एक प्रसारण (शाम 7 बजे) में एंकर मिमासा मल्लिक ने कांग्रेस पार्टी के प्रतिनिधित्व पेनलिस्ट से कहा, ‘चलते चलते बता दीजिए कि राम मंदिर बनना चाहिए, असली हिंदू हैं तो बोल दीजिए चरण सिंह जी, राम मंदिर बनेगा विवादित स्थल पर ये बोल दीजिए, क्लीयर हो जाएगा आपका स्टैंड कि आप हिंदुओं के हितैषी हैं या कि मुसलमानों के हितैषी हैं, जय श्री राम का नारा लगा दीजिए’.
यह तो बिलकुल विभाजनकारी और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाली बात है जो कहती है कि किसी राजनेता को हिंदुओं या मुसलमानों में से किसी एक के हितों का प्रतिनिधित्व करना होगा, और कि उसकी राजनीतिक पार्टी दोनों समुदायों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है. इसका मतलब यह हुआ कि हिंदुओं और मुसलमानों के हित परस्पर विरोधी हैं. इस किस्म की एंकरिंग प्रसारण के मूल्य-संहिता का खुला उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि न्यूज चैनल को “निष्पक्षता की गारंटी” करनी चाहिए. यह एंकरिंग हमारे प्रिय देश भारत को ‘हिंदू’ और ‘मुसलमान’ के आधार पर ‘टुकड़ों’ में बांट देना चाहती है. यह भारतीय संविधान की धारा 15 के भी विरुद्ध है, जो धर्म के नाम पर भेदभाव का निषेध करती है.
ऐपवा की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन ने सबसे पहले इस प्रसारण के बारे में ‘न्यूज प्रसारण मानक प्राधिकार’ के पास शिकायत दर्ज कराई. लेकिन, यह प्रसारण तो अनेक उदाहरणों में से महज एक है. और एंकरों के अलावा ऐसे भाजपा नेताओं की भी भरमार है जो विभाजनकारी बातें करते हैं. संबित पात्र कैराना उप-चुनाव के नतीजे को ‘हिंदुओं की हार, और मुसलमानों की जीत’ के बतौर चित्रित करते हैं. कर्नाटक चुनाव के दौरान भाजपा विधायक संजय पाटिल ने कहा कि यह चुनाव “सड़कों और पीने के पानी को लेकर नहीं, बल्कि हिंदू और मुस्लिम धर्मों को लेकर” हो रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि “जो बाबरी मस्जिद का फिर से निर्माण चाहते हैं ... जो टीपू सुल्तान की जयंती मनाना चाहते हैं ... उन्हें कांग्रेस को वोट देने दीजिए. अगर आप शिवाजी महाराज को चाहते हैं, अगर आप लक्ष्मी मंदिर में पूजा करने वालों को पसंद करते हैं, तो आपको भाजपा को वोट देना होगा.” अप्रैल 2018 में राजस्थान के भाजपा विधायक बीएल सिंघल ने कहा, “मुसलमान समुदाय कभी भी भाजपा को वोट नहीं देता है. मैं भी वोट मांगने उनके पास नहीं जाता हूं. उनसे वोट मांगने का मतलब है कि मैं उनके द्वारा रोज-ब-रोज किए जाने वाले अपराधों से उन्हें बचाने के लिए बाध्य हो जाऊंगा. इसीलिए, मैं उनसे हमेशा अलग ही रहता हूं.” नवंबर 2017 में बाराबंकी जिले में स्थानीय निकाय चुनाव लड़ रही अपनी पत्नी के लिए अभियान चलाते हुए स्थानीय भाजपा नेता रंजीत कुमार श्रीवास्तव ने मुसलमानों को चेतावनी दी कि वे उनकी पत्नी को वोट दें या कष्ट सहने को तैयार हो जाएं. उन्होंने कहा, “आप अपना काम करवाने के लिए डीएम एसपी के पास नहीं जा सकते हैं. आपका कोई नेता भी आपकी मदद नहीं कर सकता है. आपको कुछ और दिक्कतें भी उठानी पड़ सकती हैं. आज भाजपा के अंदर आपकी तरफदारी करने वाला कोई नहीं है. अगर किसी भेदभाव के बगैर हमारे उम्मीदवारों को कारपोरेशन के चुनाव में नहीं जिताते हैं ..... तो आप अलगाव में पड़ जाएंगे और फिर समाजवादी पार्टी आपको बचाने नहीं आएगी. यहां भाजपा का शासन है. इसीलिए मैं मुसलमानों से कह रहा हूं कि वे (हमारे लिए) वोट डालें. मैं कोई भीख नहीं मांग रहा हूं. अगर आप (हमारे लिए) वोट डालोगे, तो आपका ही भला होगा. अगर आप (हमें ) वोट नहीं देते हो, तो जाहिर है कि आप ही मुश्किलों में फंसोगे,” भाजपा नेताओं के ऐसे बयानों का सिलसिला चलता रह सकता है. ये नेतागण और जहर उगलने वाले इनके पालतू टीबी एंकर ही असली ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ हैं.