‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की यह हताशाभरी चीख-पुकार क्यों ?

जहां मुबई में एकताबद्ध विपक्ष – जिसे अब ‘इंडिया’ के नाम से जाना जाता है – की तीसरी बैठक के लिए प्रतिनिधियों की जुटान हुई, वहीं मोदी सरकार ने 18-22 सितंबर को संसद के असाधारण सत्र की उद्घोषणा कर दी है. हाल ही में संपन्न संसद के मानसून सत्र के तुरंत बाद इस सत्र की जिस तरह से घोषणा की गई है – और वह भी विपक्ष के साथ कोई सलाह-मशविरा किए बगैर तथा स्थापित संसदीय तौर-तरीकों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए – उससे सरकार की मंशा पर संदेह उठना बिल्कुल वाजिब लगता है.

इंसाफ और नागरिकों की आजादी के लिए नया आपराधिक विधेयक बड़ा खतरा

- मैत्रोयी

11 अगस्त 2023 को अमित शाह ने पूरी आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव के लिए तीन विधेयक पेश करते यह दावा किया कि यह गुलामी के सभी निशानियों का अंत कर देगा और इन कानूनों की क़ुव्वत से सभी भारतीयों के संविधान सम्मत अधिकारों की हिफाजत होगी, साथ ही इसका उद्देश्य सजा की बजाय इंसाफ देना है.

मोदी की ‘विदेश नीति सफलता’ के झूठे विमर्श को बेनकाब करें

स्वतंत्रता! समानता! भाईचारा! लोकतंत्र के इस उद्घोष से उत्प्रेरित होकर फ्रांस की जनता 1789 मेें राजतंत्रीय दमन के घृणित दुर्ग के खिलाफ विजयी क्रांति में उठ खड़ी हुई थी. पेरिस के बास्तील कैदखाने पर हुए प्रचंड आक्रमण ने लोकतंत्रीय गणतंत्रों के आधुनिक युग के ऐतिहासिक आगमन का सूत्रपात किया था. एक सौ साठ साल बाद स्वतंत्रता की यही भावना गणतंत्रीय भारत के संविधान की बुनियाद बनी, जब राजनीतिक सत्ता ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के हाथों से निकलकर भारतीयों के हाथ में आई थी.

‘प्रतिक्रांति के केंद्र में न्यायपालिका खड़ी थी’ : मोदी के भारत में भारतीय न्यायपालिका के 9 साल

- अवनि चोकशी व क्लिफ्रटन डी रोजारियो

सहूलियत और जरूरत के मुताबिक प्रशासनिक कार्रवाइयों से अलग अदालती फैसले कानून पर आधारित होते हैं, अर्थात सही और गलत पर, और हमेशा चर्चा की सुर्खियों में रहते हैं. कानून शायद राजनीतिक संघर्षों के सभी हथियारों में सबसे घातक है, क्योंकि वह हक और इंसाफ के आभामंडल से घिरा  है. 
- फ्रांज न्यूमैन, बेहेमोथ

विपक्षी एकता के सामने चुनौतियां

आज भारत में कार्यपालिका की लगातार आक्रामकता से चल रहे शासन ने विधयिका को कमजोर कर इसे कानून बनाने के महज वफादार औजार में तब्दील कर दिया है. न्यायपालिका की तरफ से आने वाले किसी भी सुधारात्मक उपाय को कार्यपालिका के अध्यादेशों के जरिये तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दिया जा रहा है. लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने वाले मीडिया को कारगर तरीके से एक रजामंद सहयोगी के बतौर बदल गया है जिसका काम केंद्र सरकार के एजेंडे की वकालत करना, उसकी व्याख्या करना और सर्वोच्च नेता की शान में विज्ञापन करना भर रह गया है.