लखनऊ के अकबर नगर से उजाड़े गए गरीबों की कहानी


- मीना सिंह

‘लखनऊ बचाओ संघर्ष समिति’ की ओर से 1 अगस्त 2024 को महिला संगठनों के एक प्रतिनिधिमंडल ने अकबरनगर के विस्थापित परिवारों से वसंत कुंज जाकर मुलाकात की, उनकी पीड़ा से रूबरू हुए और उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में आने वाली परेशानियों की जानकारी ली. प्रतिनिधिमंडल में मीना सिंह (ऐपवा), नाइश हसन (सामाजिक कार्यकर्ता), मधु गर्ग (ऐडवा) और कांति मिश्रा (भारतीय महिला फेडेरेशन) मुख्य रूप से षामिल थीं.

एसकेएम ने दिल्ली में लगाई किसान-मजदूर महापंचायत

देश को कॉरपोरेट लूट से बचाने व संविधान-लोकतंत्र की रक्षा का लिया संकल्प

-- पुरुषोत्तम शर्मा

18 फरवरी 1946 के नेवी विद्रोह के शहीदों को सलाम!

भारत की आजादी की लड़ाई के कई प्रसंग बेहद कम चर्चित हैं. 1946 का नेवी विद्रोह भी हमारे स्वाधीनता संग्राम का एक कम चर्चित लेकिन गौरवशाली अध्याय है. यह देश की अवाम यहां तक कि अंग्रेजों की रक्षा के लिए बनी सेनाओं के भीतर मुक्ति का विस्फोटक प्रकटीकरण था. यह तो सभी जानते हैं कि अंग्रेजी राज में सेनाओं में हिन्दुस्तानियों के साथ जबरदस्त भेदभाव होता था. लेकिन वह 1857 रहा हो या 1946 जब भी सेनाओं के अन्दर से विद्रोह की चिंगारी फूटी, वह सिर्फ सिपाहियों या नाविकों के साथ भेदभाव पर ही सीमित नहीं रही, बल्कि जनता की मुक्ति का व्यापक सवाल भी इन विद्रोहों ने सामने रखा.

कर्पूरी जी के विजन और विचारों का भाजपा ने कब सम्मान किया?

तीन दशकों के लंबे इंतजार के बाद अंततः कर्पूरी जी को भारत रत्न का सम्मान हासिल हुआ. राष्ट्रपति द्वारा इसकी घोषणा के तुरत बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया कि उनकी सरकार की नीतियों में कर्पूरी जी का ही विजन है. गरीबों की शिक्षा और कमजोर वर्गों के उत्थान की प्रेरणा उन्हें कर्पूरी जी से ही मिलती है. पूरा संघ गिरोह मोदी को ऐसे पेश करने लगा मानो कर्पूरी जी के असली वारिस और सामाजिक न्याय के असली योद्धा मोदी ही हैं. जाहिर सी बात है कि विरासत हड़पने की ही राजनीति करने वाली भाजपा कर्पूरी जी को हड़पने की कोशिश क्यों नहीं करेगी? वह भी ऐसे वक्त में जब लोकसभा का चुनाव हमारे सामने है.

जब गांधी ने कहा: मुसलमानों के दिलों में विश्वास पैदा करने में बिहार की कामयाबी पूरी दुनिया में असर करेगी

महात्मा गांधी के जीवन के अंतिम दो वर्ष उनके जीवन के सबसे अर्थपूर्ण समय साबित हुए. वे 1947 में विभाजन की दिशा में बढ़ते दबाव और उससे जुड़ी सांप्रदायिक हिंसा से वे स्तब्ध और हतप्रभ थे. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. बंगाल और बिहार के गांव-गांव का दौरा किया. यही वजह रही कि इन इलाकों में सांप्रदायिक हिंसा उस पैमाने पर नहीं फैल सकी जैसा कि पंजाब में हुआ. सितंबर 1947 तक उनके दिल्ली पहुंचते-पहुंचते पंजाब की परिस्थिति बहुत विकराल हो चुकी थी.

जब सांप्रदायिकता और पत्रकारिता में भेद मिट जाए, तब इसका विरोध कैसे करना चाहिए?

- रवीश कुमार

जब पत्रकारिता सांप्रदायिकता की ध्वजवाहक बन जाए तब उसका विरोध क्या राजनीतिक के अलावा कुछ और हो सकता है? और जनता के बीच ले जाए बग़ैर उस विरोध का कोई मतलब रह जाता है? इस सवाल का जवाब दिए बिना क्या यह समय बर्बाद करने जैसा नहीं है कि ‘इंडिया’ गठबंधन का तरीका सही है या नहीं.