वर्ष - 28
अंक - 41
28-09-2019
– सौरभ नरुका

आर्थिक मंदी (स्लोडाउन) की चर्चाएं आज चारों ओर हो रही हैं और दिन-प्रतिदिन आर्थिक गतिविधियां कम-से-कमतर होते जाने के साथ आम लोग इस स्लोडान का असर महसूस करने लगे हैं. इसे नजरअंदाज करने के सारे सरकारी प्रयास नाकाम हो गए और हर दिन आॅटोमोबाइल, टेक्सटाइल्स, जमीन व आवास कारोबार आदि पर असर डालने वाले स्लोडाउन की खबरें सामने आ रही हैं. जहां आॅटो क्षेत्र की बिक्री लगातार 10 महीनों से कम होती गई है, वहीं औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि इस जून महीने में नाटकीय रूप से 2 प्रतिशत के निम्न स्तर पर गिर गई. ‘सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन’ मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार औद्योगिक उत्पादन इस वित्तीय वर्ष की अप्रैल-जुलाई तिमाही में 3.3 प्रतिशत रही, जो पिछले वर्ष की इसी अवधि में 5.4 प्रतिशत रही थी. आइआइपी के आंकड़े भी दिखाते हैं कि विनिर्माण क्षेत्र में काफी स्लोडान हुआ है जहां पिछले वर्ष 7 प्रतिशत की वृद्धि के मुकाबले इस वर्ष जुलाई में सिपर्फ 4.2 प्रतिशत की वृद्धि रह गई. पूंजीगत सामग्री क्षेत्र – जो निवेश का बैरोमीटर माना जाता है – में पिछले वर्ष की जुलाई में 2.3 प्रतिशत वृद्धि के मुकाबले इस वर्ष की जुलाई में 7.1 का संकुचन हुआ है (‘द हिंदू’, 12 सितंबर 2019). इस वर्ष अगस्त माह में आॅटो सेक्टर में बिक्री 40 प्रतिशत तक कम हो गई. अब यह बिक्री की गिरावट भारी वाणिज्यिक वाहनों के क्षेत्र में भी देखी जा रही है, जो आम आर्थिक गतिविधियों में आ रही तेज गिरावट को ही दिखाती है.

रिकाॅर्ड बेरोजगारी का बढ़ता स्तर

इन क्षेत्रों में लाखों रोजगारों का नुकसान हुआ है और अब चुनाव के बाद सरकार को यह मानना पड़ा है कि बेरोजगारी के स्तर को पिछले 45 वर्षों में सबसे ऊंचा दिखाने वाले एनएसएसओ के आंकड़े सही हैं. इसने आकलन किया है कि सिर्फ टेक्सटाइल्स क्षेत्र में 5 लाख रोजगार खत्म हुए हैं, और यह आशंका जाहिर की है कि अगर यही प्रवृत्ति आॅटो के क्षेत्र में भी जारी रही, तो यहां भी आने वाले कुछ महीनों में लगभग 10 लाख कामगार बेरोजगार बना दिये जाएंगे. ‘सोसाइटी ऑफ इंडियन आॅटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स (एसआइएएम) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार इस आॅटो सेक्टर में अभी तक लगभग 2.30 लाख मजदूरों का रोजगार छिन चुका है. टेक्सटाइल (सूती कपड़ा) उद्योग में – जहां लगभग 4.5 करोड़ कामगार नियोजित हैं – यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि इस क्षेत्र में लगभग एक तिहाई नौकरियां खतरे में हैं.

एक अन्य बड़ा रोजगार देने वाला क्षेत्र है रियल इस्टेट (जमीन कारोबार). यहां भी रोजगार के आंकड़े में बड़ा झटका लगने की संभावना है और आने वाले चंद महीनों में इस क्षेत्रा के दस लाख से भी ज्यादा लोगों का रोजगार छिन जाने की भविष्यवाणी की जा रही है. चौक-चौराहों पर लगने वाले श्रम बाजार में खड़े कैजुअल मजदूरों को काम मिलना मुश्किल हो रहा है और खबर तो यह मिल रही है कि इन्हें महीना में बमुश्किल 10 दिनों का काम ही मिल पा रहा है. एनएसएसओ सर्वेक्षण के मुताबिक पहले ही रोजगार का स्तर काफी गिर गया है और यह कहना मुश्किल नहीं है कि आर्थिक सुस्ती छाने के स्थिति में नियोजन का यह स्तर और भी नीचे चला जाएगा. जहां तक निर्यात क्षेत्र का सवाल है, तो वैश्विक मांगों में कमी आने के चलते इस क्षेत्र की स्थिति भी अंधकारपूर्ण है ; तथा रोजगार देने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र, यानी कृषि क्षेत्र, वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में 2 प्रतिशत की वृद्धि दर पर गतिरुद्ध हो गया है.

मोदी ने आर्थिक तबाही लाई

भारतीय अर्थतंत्र पर समग्र वैश्विक आर्थिक मंदी का असर तो पड़ा ही है, जो खुद में एक के बाद दूसरी बनने वाली सरकारों के द्वारा संपूर्णतः नव-उदारवादी नीतियां अपनाने का नतीजा है. मोदी सरकार भी अंधाधुंध तरीके से इन्हीं नीतियों को थोप रही है और वस्तुतः अपने प्रचंड बहुमत के साथ इसे इन नीतियों का खुला व मुखर समर्थक और सबसे बड़ा चैंपियन बनकर गर्व भी महसूस हो रहा है. मोदी सरकार ने खुद को कभी भी पूर्ववर्ती सरकार की इन नीतियों से अलग नहीं किया, इसीलिये मौजूदा आर्थिक सुस्ती को वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों के असर की आड़ में छिपाने की इसकी कोशिशों को महज पाखंड ही कहा जा सकता है. मोदी सरकार ने जिस अंधाधुंध तरीके से इन नीतियों को थोपा है और देश के अर्थतंत्र को बदतर बनाया है, उसे देखते हुए कई लोग तर्क दे रहे हैं कि पूर्ववर्ती सरकारों ने इन नीतियों  को कम-से-कम इस गति से लागू किया था कि वे 2008 की बदतर वैश्विक आर्थिक स्लोडान के असर से भारतीय अर्थतंत्र को थोड़े बेहतर तरीके से बचाने में कामयाब हुई थीं.

दूसरी ओर, नोटबंदी और जीएसटी के मोदी सरकार के राक्षसी फैसलों ने रोजगार में तबाही लाकर अर्थतंत्र को मुश्किलों में डाल दिया, क्योंकि श्रम-बहुल छोटे व मंझोले उद्यमों पर ही इन फैसलों का सबसे बुरा असर पड़ा था. यहां यह गौरतलब है कि इन फैसलों के पीछे मोदी सरकार की पहली मंशा यही थी कि इस स्लोडाउन के बोझ को मेहनतकश अवाम के कंधों पर डाल दिया जाए और छोटे-मंझोले कारोबार को विस्थापित कर बड़ी पूंजी के लिये ‘बाजार की गुंजाइश’ को बढ़ाया जाए. जहां छोटे व मंझोले कारोबार पर पड़े नोटबंदी और जीएसटी के असर को अब व्यापक रूप से स्वीकार किया जा रहा है, वहीं यह गौर करना जरूरी है कि कॉरपोरेटों द्वारा उत्पन्न बड़े पैमाने के एनपीए (नहीं लौटाया गया ट्टण) – जिससे मोदी के क्रोनियों को फायदा मिला है – के साथ बैंक सेक्टर का संकट और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) का संकट – जो आइएल एंड एफएस तथा देवन हाउसिंग परिघटना में सबसे अच्छी तरह जाहिर हुआ है – अब पूरी तरह वित्तीय संकट का रूप ले चुके हैं. यह आशंका अब गहराती जा रही है कि यह वित्तीय संकट व्यक्तिगत उपभोक्ता बैंक ट्टण पर भी बुरा असर डालेगा और आम लोगों को आर्थिक सुस्ती और रेकाॅर्ड बेरोजगारी की पृष्ठभूमि में इतनी कमाई भी करते जाना मुश्किल हो जाएगा, जिससे कि वे अपना ईएमआइ (इक्वेटेड मंथली इंस्टालमेंट) का भुगतान कर सकें. ‘नीति’ आयोग के उपाध्यक्ष को भी हाल में यह स्वीकार करना पड़ा है कि यह वित्तीय संकट पिछले 70 वर्षों का बदतरीन संकट है. वित्तीय विनियमन (डिरेग्युलेशन) ने एनबीएफसी के मार्फत ‘छाया’ (शैडो) बैंकिंग को संभव बना दिया है, जिससे ट्टण के जोखिम को आंकना और भी मुश्किल हो गया है, और फलतः नियामक एजेंसी के लिए संकट के समय में भी कोई सार्थक हस्तक्षेप करने की गुंजाइश सीमित हो गई है.

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के आरक्षित कोष की शर्मनाक लूट

पूर्ण विकसित वित्तीय संकट के समय में एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए मोदी सरकार ने रिजर्व बैंक के भंडार से 1.76 लाख करोड़ रुपये निकाल लिये – यह कहते हुए कि बैंक के पास ‘अतिरिक्त पूंजी’ है. इस सार्वजनिक धन का एक हिस्सा काॅरपोरेटों द्वारा उत्पन्न एनपीए संकट झेल रहे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में डाला जाएगा. सार्वजनिक क्षेत्र के संकटग्रस्त बैंकों में पैसा डालने और अपने राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक के भंडार का इस्तेमाल करना दरअसल ऐसा ही है, जैसे कि घरेलू खर्चा चलाने के लिए अपने जेवरात बेचना. स्वतंत्र भारत के अब तक के इतिहास में किसी सरकार ने रिजर्व बैंक से इतनी विशाल राशि की निकासी नहीं की थी. इसके पहले भी रिजर्व बैंक से राशि निकाली गई है, लेकिन उसके एक हिस्से का इस्तेमाल आपदाओं के दौरान होने वाले ‘कंटिंजेन्सी’ खर्च के लिये किया जाता था, जबकि उसका एक हिस्सा ‘लाभांश’ के रूप में केंद्र सरकार को मिलता था. 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद दरअसल रिजर्व बैंक का 99 प्रतिशत अधिशेष (सरप्लस) सरकार द्वारा निकाल लिया गया और निकाली गई इस राशि में से सरकार ने ‘अतिरिक्त पूंजी’ के नाम पर उसका एक हिस्सा हड़प भी लिया.

जो सरकार रिजर्व बैंक के आकस्मिक भंडार का इतना बड़ा हिस्सा लेने को इतना उतावला हो गई, उसी सरकार ने तब बिल्कुल भिन्न रास्ता अपनाया जब रिजर्व बैंक की हालिया रिपोर्ट में यह बात खुल कर सामने आई कि वित्तीय वर्ष 2018-19 में बैंक घोटालों में फंसी राशि 71,500 करोड़ रुपये से भी ज्यादा हो गई है. यह समझना मुश्किल नहीं कि इन बैंक घोटालों से सबसे ज्यादा फायदा मौजूदा शासक समूह के क्रोनी मित्रों को ही मिला है, और इनमें से कुछ लोग, जैसे कि नीरव मोदी, विजय माल्या और मेहुल चोकसी विदेश भी भाग गए हैं. ऐसे घोटालेबाजों से ट्टण वापस लेने में मोदी सरकार की गंभीरता को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि इस सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक लोकहित याचिका (पीआइएल) में लिखित हलफनामा पेश किया कि वह ऐसे 88 घोटालेबाजों – जिनमें से प्रत्येक के पास 500 करोड़ रुपये से ज्यादा का ट्टण है – के नाम नहीं बता सकती है, क्योंकि ऐसा करने से उनकी साख को बट्टा लगेगा जो कि देश के अर्थतंत्रा के लिये अच्छी बात नहीं होगी ! बहुप्रशंसित, बहुप्रचारित बैंकरप्सी कोड भी नाकामयाब हो गया और मोदी शासन के अंतर्गत इन डूबे ट्टणों की वापसी की दर गिरती ही चली गई.

मोदी सरकार सिर्फ रिजर्व बैंक के आरक्षित कोष पर ही हाथ नहीं मार रही है, बल्कि यही काम सरकार एलआइसी (जीवन बीमा निगम) के साथ भी कर रही है. जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी, तो उस वक्त सार्वजनिक क्षेत्र में एलआइसी का सकल निवेश 11.9 लाख करोड़ रुपये के बराबर था. वित्तीय वर्ष 2018-19 के अंत तक यह राशि लगभग दोगुनी, यानी 22.6 लाख करोड़ रुपये हो गई. इस राशि का अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र के खस्ताहाल बैंकों में निवेशित हुआ और राजकीय स्वामित्व वाली फर्मों के शेयर खरीदने में खर्च हुआ. पिछले वर्ष मोदी सरकार ने एलआइसी को बाध्य किया कि वह आइडीबीआइ बैंक में अपने शेयर को बढ़ाकर 51 प्रतिशत करे और इस प्रकार उस बैंक में 21,000 करोड़ रुपये की राशि निवेशित करे. ‘बिजिनेस स्टैंडर्ड’ के एक विश्लेषण के मुताबिक इसका नतीजा यह निकला कि एलआइसी के इक्विटी पोर्टफोलियो में 57,000 करोड़ रुपये (अर्थात 10.5 प्रतिशत) का क्षरण हुआ. कुल मिलाकर बात यह है कि मोदी सरकार अपने क्रोनियों को फायदा पहुंचाने के लिये सार्वजनिक धन का अप्रत्यक्ष उपयोग कर रही है.

वित्तीय संकट उभरने के बाद यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ट्टण-प्रेरित वृद्धि के जरिये मांगों को संभाले रखने के दिन लद गए हैं. इस वित्तीय संकट की पृष्ठभूमि में स्पष्टतः कमजोर पड़ती मांग के चलते पैदा हुआ यह स्लोडाउन विदेशी पूंजी के पलायन से और गहरा हो जाएगा, क्योंकि विदेशी पूंजी का पलायन अपने ही तरीके से मंद पड़ती वास्तविक अर्थव्यवस्था पर चोट कर रहा है.

भुगतान संतुलन की बिगड़ती स्थिति और गिरता रुपया

मोदी शासन की पहली पारी में निर्यात वृद्धि किसी नई ऊंचाई को नहीं छू सका और वस्तुओं के निर्यात की औसत वृद्धि पिछले पांच वर्षों में 75 प्रतिशत के मुकाबले सिकुड़ कर 12 प्रतिशत रह गई. सेवाओं के निर्यात में भी मोदी शासन की उस पारी में सिर्फ 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि उसके पहले के पांच वर्षों में सेवा निर्यात में 54 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी. बहरहाल, चिंताजनक होेते हुए भी भुगतान संतुलन की स्थिति बेकाबू नहीं हुई. इसकी बड़ी वजह थी उन दिनों अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत का कम बना रहना, जिससे भारत का आयात बिल नियंत्रण में रहा और साथ ही मोदी सरकार के ‘सुधारों’ के वादे को देखते हुए विदेशी पोर्टफोलियो निवेश भी जारी रहा. लेकिन अब अगस्त 2019 में निर्यात में 6 प्रतिशत की कमी आई है और सऊदी अरब के तेल क्षेत्रों पर हमले होने के चलते कच्चे तेल की कीमतों में भी इजाफा होता जा रहा है. इन दोनों वजहों से भारत के भुगतान संतुलन का चालू खाता घाटा दबाव में आ गया है जो पहले ही बढ़कर वित्तीय वर्ष 2019 में जीडीपी का 2.1 प्रतिशत हो गया था. समग्र आर्थिक स्लोडाउन की स्थिति में एफपीआइ और एफआइआइ निवेशकों के मौजूदा पलायन से रुपया की कीमत (डाॅलर के मुकाबले) और लुढ़केगी – कई लोग तो यह आशंका जाहिर कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में इसकी कीमत अपने मौजूदा ऐतिहासिक निम्न स्तर (72 रुपया प्रति डाॅलर) से भी नीचे गिर जाएगी.

खौफजदा निवेशकों को दी गई
टैक्स रियायतें भी नाकाम हुईं

वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर 5 प्रतिशत पर खिसक आने से शेयर बाजार भी थर्रा उठा और नए वित्त मंत्री द्वारा बजट पेश किये जाने के बाद बाजार से 14 लाख करोड़ रुपये निकल गए. बाजार में सुस्ती छाने और आर्थिक गतिविधियों में गिरावट आने से मोदी सरकार को कुछ सूझ नहीं रहा है, क्योंकि वित्त मंत्री द्वारा टैक्स रियायतों की घोषणा से भी बाजार में  तेजी के कोई लक्षण नहीं दिख रहे हैं. अति-धनिकों पर लगाए गए आय कर सरचार्ज को वापस लेने से भी समस्या नहीं सुलझी, तथा विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआइआइ) और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों द्वारा भारतीय बाजार से अपने पैसे निकालते जाने के चलते रुपये की कीमत का गिरना जारी रहा. घरेलू मोर्चे पर नकारात्मक संकेत मिलने के बाद यह आकलन किया जा रहा है कि जुलाई और अगस्त (2019) माह में लगभग 30,000 करोड़ रुपये का विदेशी पोर्टफोलियो निवेश भारतीय बाजार से निकल चुका है, जबकि चीन व अमेरिका के बीच जारी व्यापार युद्ध की अंतरराष्ट्रीय खबरों ने मामले को और जटिल बना दिया है.

राजकोषीय और मौद्रिक उपायों की गुंजाइश नहीं: आर्थिक सुस्ती ढांचागत चरित्र का है

काॅरपोरेटों के पूर्ण समर्थन के बल पर निर्मित मोदी सरकार-2 नव-उदारवादी नीति ढांचे से परे झांकने की स्थिति में ही नहीं है और इसीलिये सरकार मंडराते आर्थिक संकट से छुटकारा पाने के लिये ब्याज दरों में कटौती, श्रम सुधार, निजीकरण एजेंडा का आक्रामक क्रियान्वयन और टैक्स रियायतों के अलावा कुछ नहीं सोच पा रही है. लेकिन वास्तविकता तो यह है कि ढांचागत चरित्र की यह आर्थिक सुस्ती आमदनी असमानता में रेकाॅर्ड वृद्धि के चलते पैदा हुई है, जिसके चलते सकल घरेलू मांग में गिरावट आई है.

मोदी सरकार अंधाधुंध तरीके से नव-उदारवादी नीतियां लागू कर रही है और इसी के साथ पिछले पांच वर्षों में उनके क्रोनीवाद ने आमदनी की असमानता में रेकाॅर्ड इजाफा किया है – कामगारों की विशाल बहुसंख्या की वास्तविक मजदूरी में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई, फसलों के अलाभकारी मूल्य के चलते किसानों व अन्य ग्रामीण तबकों की आमदनी कम हो गई तथा ‘मनरेगा’ व अन्य कल्याणकारी योजनाओं के मदों में बजटीय आवंटन घटा दिया गया और पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर भारी-भरकम टैक्स लाद दिये गए. नोटबंदी और जीएसटी ने हालात को बदतर बना दिया – अनिश्चितता का माहौल पैदा हुआ, दहशत फैला और छोटे-मंझोले व्यवसाय पर करारी चोट पड़ी. सिर्फ एक तथ्य को देखने से ही स्थिति की भयावहता स्पष्ट हो जाएगी कि मोदी शासन के अंतर्गत प्रति वर्ष बढ़ने वाली राष्ट्रीय संपदा में 1 प्रतिशत सबसे धनी लोगों का हिस्सा 49 प्रतिशत से बढ़कर 73 प्रतिशत हो गया.

इसके चलते देश की सकल मांग में गिरावट आई है, क्योंकि राष्ट्रीय संपदा में बढ़ा हुआ अंश अगर गरीबों के बजाय धनिकों की जेब में जाता है तो उसके उपभोग किए जाने की गति कम हो जाती है. जमीन के कारोबार और आवास निर्माण में पैसा झोंकने का नव-उदारवादी नुस्खा भी उपयोग की गति को तेज नहीं करेगा, क्योंकि इसके लिये ट्टण देने वाला वित्तीय क्षेत्र खुद ही चरमरा गया है. वैश्विक वित्त के दबाव में आकर सरकार एफआरबीएम ऐक्ट के प्रतिबंधों से हटने को तैयार नहीं है; ऐसी स्थिति में सरकार के पास वह राजकोषीय गुंजाइश ही नहीं बचती है कि वह बुनियादी ढांचा (इंफ्रास्ट्रक्चर) के क्षेत्र में सरकारी निवेश बढ़ाकर सकल घरेलू मांग में इजाफा कर सके.

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्थतंत्रा में आई सकल मांग में कमी ‘चक्रीय’ नहीं, बल्कि संरचनात्मक किस्म की समस्या है, और इसकी जड़ में निहित है समग्र नव-उदारवादी परियोजना के तहत बढ़ती जा रही आय असमानता. निजी उपभोग खर्च, जो जीडीपी का 55-60 प्रतिशत अंश होता है, मार्च तिमाही (यानी, मार्च-मई) में 7.2 प्रतिशत से गिरकर जून तिमाही (यानी, जून-अगस्त) में सिर्फ 3.1 प्रतिशत रह गया.

सच तो यह है कि मोदी शासन के अंतर्गत भारतीय अर्थतंत्र रोजगार-विहीन वृद्धि के जमाने से निकलकर रोजगार-ह्रास के जमाने में पहुंच गया है, जिसमें निरपेक्ष अर्थ में भी रोजगार कम होते जा रहे हैं. श्रम बल साझेदारी की दर 2011-12 में 55.9 प्रतिशत से गिरकर अब 49.8 प्रतिशत हो गई है. यह आंकड़ा बताता है कि मोदी शासन के अंतर्गत लोग नौकरी पाने की आशा छोड़ते जा रहे हैं जिससे सकल मांग में और भी गिरावट आ सकती है. वस्तुतः ‘सबका साथ, सबका विकास’ मोदी शासन का सबसे बड़ा ‘जुमला’ बनता जा रहा है, जबकि सच्चाई है ‘सबका साथ, किंतु सिर्फ अडानी-अंबानी का विकास’ जो अर्थतंत्र को तबाह कर रहा है.

निकलने का रास्ता: आर्थिक व रोजगार अधिकारों के लिए जनता की दावेदारी

जहां आर्थिक सुस्ती के बरक्स शासक वर्गों का समूचा विमर्श रियायतों के लिए काॅरपोरेटों की मांग पर केंद्रित है, वहां सच्चाई यह है कि इस स्लोडाउन की सबसे बड़ी चोट मजदूर वर्ग, मेहनतकश अवाम और गरीब जनता पर पड़ रही है, क्योंकि आज यही लोग हैं जिनके जिंदा रहने के लिए काम मिलना लगातार मुश्किल होता जा रहा है. इसीलिये आज जरूरत इस बात की है कि सम्मानजनक मजदूरी, सुरक्षित रोजगार, कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि, ‘मनरेगा’ जैसे रोजगार कार्यक्रमों के लिये आवंटन, सार्वजनिक क्षेत्र में खाली पड़े पदों पर बहाली तथा पेट्रोल-डीजल पर ऊंचे करों में कटौती जैसी बुनियादी मांगों पर वर्ग-आधारित आंदोलन निर्मित किए जाएं ; और साथ ही, निजीकरण के एजेंडा को पीछे धकेलने तथा जनता के आर्थिक व रोजगार से जुड़े अधिकारों को देश के राजनीतिक आर्थिक विमर्श के केंद्र में स्थापित करने हेतु वैकल्पिक जन-पक्षीय नीति भविष्यदृष्टि (विजन) को सामने लाया जाए.

सरकार पर दबाव डालना होगा कि वह सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश व खर्च में वृद्धि करे, धनिकों पर कर लगाए और गरीबों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों पर व्यय में इजाफा करे, ताकि असमानता में कमी आए और सकल मांग में वृद्धि के लिए घरेलू मांग में बढ़ोत्तरी लाई जा सके. ट्रेड यूनियन आंदोलन को आक्रामक जुझारू दिशा में संचालित करना होगा, जिससे कि सरकार के आक्रामक निजीकरण एजेंडा को रोका जा सके. समावेशी और समतावादी भारत के निर्माण की भविष्यदृष्टि के साथ मजदूर वर्ग, किसानों, छात्रों व नौजवानों के एकताबद्ध व बड़े पैमाने के जन आंदोलन ही फासिस्ट बुलडोजर को पीछे धकेल सकते हैं, जो आज सांप्रदायिक नफरत और आतंक के इंधन पर चलाया जा रहा है और जो आम जनता को अकथनीय आर्थिक तकलीफों, बेरोजगारी व घटती आमदनी का शिकार बना रहा है तथा उनके ही कंधों पर नव-उदारवादी संकट का बोझ डालकर आर्थिक स्लोडाउन के असर से शासक काॅरपोरेटों को राहत देने की कोशिश कर रहा है.