वर्ष - 29
अंक - 28
15-07-2020

चीन और भारत, दोनों देशों द्वारा नियुक्त विशेष प्रतिनिधियों (स्पेशल रिप्रेजेन्टेटिव्स) के बीच 5 जुलाई को हुई वार्ता के बाद लद्दाख में चीन और भारत के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर सैनिक टकराव से बचने और तनाव को शिथिल करने के शुरूआती स्वागतयोग्य संकेत दिखाई दे रहे हैं. भारतीय पक्ष से विशेष प्रतिनिधि के बतौर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल थे जबकि चीन की तरफ से विशेष प्रतिनिधि चीनी विदेश मंत्री वांग यी थे. वार्ता के बाद दोनों देशों द्वारा जारी वक्तव्यों में सीमावर्ती क्षेत्रा में शांति और अमन-चैन बहाल करने तथा द्विपक्षीय सम्बंधें में सुधार करने पर जोर दिया गया है तथा दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच टकराव न होने देने और पीछे हटने की बात की गई है. दोनों पक्षों ने सुलह-समझौता तक पहुंचने के लिये द्विपक्षीय सम्बंधें के स्थापित खाके के जरिये वार्ताएं जारी रखने की आवश्यकता बताई है.

दोनों पक्षों के परस्पर पीछे हटने का प्रस्ताव वास्तविक नियंत्रण रेखा के इर्द-गिर्द एक बफर जोन (रिक्त स्थान जिसमें किसी पक्ष की सेना न रहे) कायम करने का संकेत देता है. जबकि इससे दोनों पक्षों के बीच टकराव के मौके कम होने की स्थिति बनेगी, पर यह धारणा अभी भी मौजूद है कि भारत गलवान घाटी, पांगोंग त्सो और डेस्पांग के समतल क्षेत्र में कुछ भूभाग पर नियंत्रण खो बैठा है. स्पष्ट है कि अगर 21 जून को हुई “सर्वदलीय बैठक” में मोदी द्वारा भारतीय भूभाग में चीनी सेना की किसी भी घुसपैठ या सीमा के अंदर प्रवेश से साफ तौर पर इन्कार किये जाने की रोशनी में, सेनाएं पीछे हटाने के प्रस्ताव को देखा जाय तो यह पीछे हटना भारत को तनातनी के पूर्व जो यथास्थिति मौजूद थी वहीं तक पीछे नहीं ले जायेगा. एलएसी पर ठीक-ठीक क्या स्थिति है, इसके बारे में मोदी सरकार द्वारा साधी गई चुप्पी भ्रम पैदा करने वाली है और वह फौजें पीछे हटाने के समझौते के बाद तो और भी ज्यादा संदिग्ध लग रही है. इसीलिये द्विपक्षीय वार्ता की प्रक्रिया फिर से शुरू होने का स्वागत करते हुए भी हम मोदी सरकार से एलएसी की स्थिति के बारे में एक श्वेतपत्र जारी करने की अपनी मांग पर डटे हुए हैं.

अगर टकराव से बचना और तनातनी कम करने के लिये फौजों को पीछे हटाना ही असली मकसद है, अगर दोनों देशों के बीच मौजूद मतभेद को बिगाड़कर विवाद में तब्दील नहीं करना है, तो इसके लिये हमें केवल चीनी पक्ष से ही संयम बरतने की उम्मीद नहीं करना चाहिये. भारत को भी इस दिशा में सक्रिय पहलकदमी लेना होगा. हमारे साथ चीन का जो सीमा विवाद है उसके एक ऐसे युद्ध में तब्दील होने की आशंका है जो न तो भारत के हित में होगा और न ही चीन के. अभी ऐसा लग रहा है कि भारत और चीन दोनों ही युद्ध की दिशा में कदम बढ़ाने से बचने की कोशिश कर रहे हैं जो सही भी है. मगर क्या यह जरूरी है कि सीमा विवाद के साथ साथ तनाव बढ़ाने के लिये एक व्यापार युद्ध छेड़ दिया जाये? हम सीमा विवाद को महज सीमा विवाद की तरह क्यों नहीं देख पाते, जिसका चीन के साथ हमारे रिश्तों के समूचे आयामों पर कोई असर न पड़ने दें?

चीनी कम्पनियों द्वारा निर्मित 59 ऐप्स को अचानक प्रतिबंधित करने की बिना सोचे समझे की गई प्रतिक्रिया ऐसा जवाब है जिससे परिपक्व भारत को बचना होगा. जब रवि शंकर प्रसाद ने (बिना चीन का नाम लिये) “भारत की हिफाजत, सुरक्षा, प्रतिरक्षा, संप्रभुता और अखंडता की रक्षा के लिये तथा ... भारत की जनता के आंकड़ों और निजता की रक्षा के हित में” इस प्रतिबंध की घोषणा की तो वे खुद ही मखौल का पात्र बन गये. यह दावा तब किया गया जबकि हाल ही में 17 मार्च को केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने स्पष्ट रूप से संसद को बताया था कि हमें टिक टाॅक से कोई खतरा नहीं है. इसलिये इसको प्रतिबंधित करने का कोई प्रस्ताव नहीं है. और जहां तक आंकड़ों की चोरी और निजता पर हमले का सवाल है, कई अमरीकी और हमारी अपनी भारतीय कम्पनियां एवं ऐप्स इसके लिये कोई कम दोषी नहीं हैं.

इसके अलावा चीनी उत्पादों के बहिष्कार की उन्माद भरी रणहुंकार भी सोचने की चीज है. चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है और चीन से आयात सामान भारत के मैन्युफैक्चरिंग उद्योगों में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, खासकर औषधि उद्योग में, जिसमें भारत विश्व स्तर का निर्यातक देश है. चीन पर, या कहिये कि किसी भी अन्य देश पर हमारी निर्भरता कम करना और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना एक बात है, मगर भारत के अपने ही उपभोक्ताओं एवं व्यापारियों को निशाना बनाने के लिये बहिष्कार के आह्वान का इस्तेमाल करना तथा भारत में जारी परियोजनाओं को तथा निवेश को खतरे में डालना तथा करोड़ों भारतीय नागरिकों, चाहे वे मजदूर हों या व्यापारी या निवेशक, के आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचाना तो कत्तई भारत के हित में नहीं हो सकता.

हाल ही में लेह से दिये गये अपने भाषण में प्रधनमंत्री मोदी ने विस्तारवाद की निंदा की और विकासवाद को बढ़ावा देने की पैरवी की. यह एक तथ्य है कि चीन आर्थिक और बुनियादी ढांचे का विकास के एजेंडा का इस्तेमाल करके अपना प्रभाव और भागीदारी बढ़ा रहा है और भारत ऐसे हर आंचलिक मंच अथवा पहलकदमी (इनीशियेटिव), जिसमें चीन शामिल है, से बाहर रहकर चीन से प्रतियोगिता नहीं कर सकता है. भारत उसके पड़ोस का एकमात्र ऐसा देश है जो विवादास्पद और विशाल पैमाने के बहुदेशीय बेल्ट एंड रोड इनीशियेटिव (बीआरआई) से बाहर है, इसके अलावा भारत ने एसियान देशों (ब्रुनेई, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलयेशिया, म्यांमार, फिलीपाइन्स, सिंगापुर, थाइलैंड और वियतनाम) की साझेदारी वाले रीजनल काम्प्रिहेन्सिव इकनाॅमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) से भी बाहर रहना तय किया है और वर्तमान में वह एसियान के मुक्त व्यापार साझीदारों (आस्ट्रेलिया, चीन, जापान, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया) से भी अलग है. विडम्बना यह है कि भारत शुरूआत से ही आरसीईपी की योजना का अभिन्न अंग था, जिसने 2013 से होने वाली समझौता वार्ताओं के सभी अट्ठाइस राउंडों में भाग लिया था, और यहां तक कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद भी दो राउंडों की मेजबानी भी की थी (छठे राउंड की, जिसे 1 से 5 दिसम्बर 2014 को नई दिल्ली में आयोजित किया गया था और 19वें राउंड की, जिसे 24-28 जुलाई 2017 को हैदराबाद में आयोजित किया गया था), और इस अंचल को आजकल अमरीका द्वारा तथा कई एसियान देशों द्वारा खुद ही इंडो-पैसिफिक या भारत-प्रशांत अंचल कहा जा रहा है.

हमारे अपने ही पड़ोस में या फिर वृहत स्तर पर इंडो-पैसिफिक अंचल में इस बढ़ते अलगाव की स्थानपूर्ति करने के लिये भारत द्वारा रणनीतिक तौर पर अमरीका और इजरायल को अधिकाधिक गले लगाना कोई विकल्प नहीं हो सकता. हमें समझना होगा कि अमरीका द्वारा अपनी फौजों को यूरोप से हटाकर भारत के पड़ोस में ला तैनात करना केवल अमरीका द्वारा गड़बड़ी पैदा करके अपना उल्लू सीधा करने (और इस मकसद से गड़बड़ी को बढ़ाये रखने) की कवायद के अलावा और कुछ नहीं है. अमरीका सचमुच भारत को अपने दोस्त के बतौर कितना मूल्य देता है इसका तो बारम्बार पर्दाफाश हो चुका है और एकदम हाल ही में ट्रम्प प्रशासन द्वारा ऑनलाइन शिक्षा के लिये वीजा रद्द करने की घोषणा से एक बार फिर खुलासा हो गया है, जिससे भारतीय छात्र बड़े पैमाने पर प्रभावित होंगे.

आत्मनिर्भरता के नारे का इस्तेमाल केवल चीन के संदर्भ में चुनिंदा रूप से नहीं किया जा सकता, और खासकर अमरीका की बढ़ती जीहुजूरी को छिपाने और यहां तक कि उसे जायज ठहराने के लिये तो बिल्कुल नहीं किया जा सकता. चीन के साथ सीमा विवाद को व्यापार तथा अन्य द्विपक्षीय अथवा आंचलिक और बहुपक्षीय सम्बंधें से अलग करना और विदेश नीति की दीर्घकालीन दिशा को घरेलू राजनीति के अल्पकालिक हिसाब से मुक्त करना वक्त की मांग है. एक प्रमुख राज्य में चुनाव से पहले घरेलू राजनीति और विदेश नीति का ऐसा सम्मिश्रण जो भारत को अपने पड़ोसी देशों के साथ युद्ध की दिशा में धकेल रहा हो, भारतीय जनता और भारतीय लोकतंत्र के लिये केवल विनाशकारी ही सिद्ध हो सकता है.