वर्ष - 31
अंक - 50
03-12-2022

- एन साई बालाजी

जलवायु परिवर्तन से हलकान दुनिया की बढ़ती परेशानियों से निबटने के लिए संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) व उसके तत्वावधान में होने वाली काॅन्फ्रेंसेस ऑफ पार्टीज (कोप-सीओपी) के तहत सभी पक्षकार देशों का 27वां शिखर सम्मेलन मिस्र के शर्म अल-शेख  में 6 नवंबर से 18 नवंबर 2022 तक आयोजित हुआ. कोप 27 का यह सम्मेलन ऐसे दौर में हुआ जब पूरी दुनिया में अतिविषम चरम मौसमी  घटनाओं में काफी तेजी से बढ़ोतरी देखी जा रही है. भारत, पाकिस्तान सहित अनेक देशों  के शहरों में भारी बाढ़ से लेकर पूरे यूरोप में  सदी की सबसे भीषण गर्मी और लू के कहर ने जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से सभी देशों को एकजुट होकर निपटने की विफलता को सामने ला दिया है.

कोप 27 शिखर सम्मेलन का आयोजन 2015 के पेरिस समझौते की पृष्ठभूमि में किया गया था जिसमें अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत ऐतिहासिक उत्सर्जन के आधार पर  विभेदित उत्तरदायित्व (सीबीडीआर) के सिद्धांत को नजरअंदाज कर दिया गया था – इसके मुताबिक जलवायु परिवर्तन का समाधान निकालने का दारोमदार सभी देशों पर था, लेकिन प्राथमिक जिम्मेदारी विकसित देशों को संभालनी थी, क्योंकि वे अतीत और वर्तमान में अधिकांश ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं. लेकिन, पेरिस समझौते के तहत ग्रीनहाउस उत्सर्जन में कटौती की प्रतिबद्धता को सभी देशों  के लिए स्वैच्छिक कर देना अमीर देशों की अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे हटना भी था, क्योंकि यह 1997 के क्योटो प्रोटोकाल की तरह कानूनी तौर पर बाध्यकारी नही है. दुनिया ने 2015 के बाद से देखा है कि कैसे उत्सर्जन में कटौती को स्वैच्छिक किये गए बदलाव ने जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी वजह  ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लिए ऐतिहासिक रूप से सबसे ज्यादा जिम्मेदार – औद्योगिक, विकसित और धनी देशों  को किसी भी जवाबदेही से मुक्त कर जलवायु संकट से निबटने के इरादों को कमजोर कर दिया है.

कोप 27 (मिस्र) शिखर सम्मेलन में नुकसान और क्षति का मुद्दा

कोप 27 शिखर सम्मेलन की शुरुआत  ‘नुकसान और क्षति’ (लाॅस एन्ड डैमेज) – जलवायु जनित आपदाओं से देशों को हुए  नुकसान की भरपाई के  लिए  मुआवजा देने – जैसे अहम मुद्दे के साथ हुई. इसी तरह अगले पांच सालों में खतरनाक मौसम की घटनाओं के खतरे के बारे में  धरती पर सभी को आगाह करने का मौजूदा मुद्दा भी कोप 27 सम्मेलन में उठा. इस मुद्दे को शामिल करके संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव एंटोनियो गुएटेरेस ने शुरुआती सालों में गरीब देशों  की परेशानियों की अनदेखी किये जाने की आलोचना की भरपाई करने की कोशिश की है. खासतौर से जलवायु संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब और विकासशील देशों के लिए समावेशी एजेंडे के अभाव ने यूएन फ्रेमवर्क (यूएनएफसीसीसी) की जलवायु समानता (इक्विटी) की तलाश को बुरी तरह दागदार कर दिया है. ‘नुकसान और क्षति’ से लेकर अतिविषम चरम मौसमी घटनाओं के खतरे  की चेतावनी देने के तरीकों को शामिल करके यूएनएफसीसीसी अपनी साख में आयी गिरावट को पाने की कोशिश कर रही है.

पर, क्या कोप 27 पहले के वैश्विक जलवायु सम्मेलनों में विकसित देशों द्वारा किए गए नुकसान की भरपाई कर सकता है?  क्या जलवायु परिवर्तन के बढ़ते भीषण खतरों से निबटने  के लिए माकूल कदम उठाए जा रहे हैं?

अतिविषम चरम मौसमी घटनाओं के बार-बार होने की वजह से दुनिया में ही रही भारी तबाही को देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि वैश्विक जलवायु वार्ता सही दिशा में जा रही है? पाकिस्तान में आयी भीषण बाढ़ से मची तबाही इसका उदाहरण है. जून 2022 में आये इस खतरनाक सैलाब  में 1,700 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें लगभग 400 बच्चे थे और लाखों लोग विस्थापित हो गए. इस भीषण सैलाब से लगभग 40 बिलियन डाॅलर का नुकसान आंका गया है और इसी तरह से 2020 में बांग्लादेश और भारत में अम्फान चक्रवात की वजह से 15 बिलियन डाॅलर नुकसान का अनुमान है. वैश्विक ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी)  उत्सर्जन में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की हिस्सेदारी का प्रति व्यक्ति औसत पूरी दुनिया और विकसित देशों के बरक्स काफी कम रहने के बाबजूद जलवायु परिवर्तन के जो गहरे असर पड़े हैं वे बेहद  गैर-मुनासिब है.

यादगार समझौता या ऐतिहासिक नाइंसाफी?

कोप 27 शिखर सम्मेलन हफ्तावारी छुट्टियों में तब्दील हो गया क्योंकि दो सप्ताह लंबी चली वार्ता कोई अहम उपलब्धि हासिल करने में विफल रही. कोप 27 के अध्यक्ष सामेह शौकरी ने समापन सत्र में ‘नुकसान और क्षति’ (लाॅस एन्ड डैमेज) फंड पर देशों की सांकेतिक सहमति बनने का उल्लेख किया.फंड का विचार ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के असर से पस्त देशों के लिए रास्ता खोलना है. हालांकि, फंड का विचार केवल ‘खासतौर से असुरक्षित देशों’ के लिए है, जिससे इसके द्वारा कवर किए गए देशों का दायरा कमतर हो जाता है. गुंजाइश के दायरे कमतर होने के बावजूद क्या यह नया फंड विकासशील और गरीब देशों के लिए आशा की किरण है या नाउम्मीदी का अंधेरा है? इतिहास पर नजर डालें तो ऐसा लगता है कि भविष्य में यह एक और विवाद का विषय बन जाएगा.

उदाहरण के लिए, तहकीकात से पता चलता है कि विकासशील देशों को अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के नेट जीरो लक्ष्य को हासिल करने के लिए लगभग 2 ट्रिलियन डाॅलर सालाना की जरूरत है. हालांकि, जलवायु फंड के पिछले रिकाॅर्ड और सालों से उठ रहे मुद्दों को देखते हुए विकसित देशों के जरिए इस नए फंड में जलवायु के नुकसान के बदले भुगतान वापस अदा करने करने का वादा धूमिल दिखता है. इसके अलावा, अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों द्वारा जलवायु फंड के वित्तपोषण के लिए निजी क्षेत्र की जिम्मेदारी को बढ़ाना बुरे बदलाव का संकेत दे रहे हैं. यह देखना दिलचस्प है कि इससे पर्यावरणीय न्याय और समानता  कैसे हासिल होगी?

(अगले अंक में जारी)