वर्ष - 28
अंक - 37
31-08-2019
वी. शंकर

काॅरपोरेटों ने कानून बनाया

मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने संसद की स्थायी समिति की कई अनुशंसाओं (2018) को दरकिनार करते हुए एक सप्ताह के अंदर मजदूरी कोड बिल को पेश कर पारित करवा लिया. मौजूदा कानूनों और इस नए बिल में सबसे बड़ा फर्क यह है कि कोड में परिभाषा के स्तर पर संदिग्धता, अस्पष्टता और विसंगतियों के लिए पर्याप्त जगह है और इसमें काॅरपोरेट-परस्ती साफ झलकती है. इसीलिए, यह बिल प्रशासकीय व सरकारी हस्तक्षेपों तथा कानून में तोड़-मरोड़ की काफी गुंजाइश पैदा करता है. अगर पहले के कानून ‘जज-निर्मित’ होते थे, तो इसे अब ‘सरकार/नौकरशाह/काॅरपोरेट-निर्मित कानून’ बना दिया गया है. मजदूरी कोड की यह सबसे बड़ी खासियत हे. जो श्रम कानून पहले श्रमिकों की सुरक्षा के लिए होते थे, उसे अब ‘पूंजी के कानून’ में बदल दिया गया है. अगर अतीत में तमाम मजदूर कल्याणकारी कानूनों को बाजार की सनक और अति-मुनाफा की होड़ में पूंजी के अमानवीय हमलों तथा शोषण से मजदूरों को बचाने के लिए लागू किया जाता था, तो अब इन कानूनों का मकसद ही उलट दिया गया है. मौजूदा मजदूरी कोड पूंजी को तमाम किस्म की सुरक्षा प्रदान करने तथा बेरोकटोक मजदूरों का खून चूसने और उनका शोषण तेज करने के मकसद से ही बनाया गया है. करोड़ों श्रमिकों को काॅरपोरेटों तथा मल्टीनेशनल कंपनियों के रहमोकरम पर डाल दिया गया है.

‘आच्छादन’: जनता की आंखों में धूल झोंकना

सरकार दावा करती है कि इस मजदूरी कोड ने संगठित क्षेत्र के कुछ करोड़ औपचारिक श्रमिकों की बजाय समस्त पचास करोड़ श्रमबल को कानून की छांव भेंट की है. यह बिलकुल झूठ है और जनता तथा श्रमिकों के लिए बड़ा धोखा है. वस्तुतः, संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की थी कि 10 से ज्यादा मजदूरों को नियोजित करने वाले तमाम प्रतिष्ठानों में बोनस देय होगा. मजदूरी कोड बिल ने इस सिफारिश को नकार दिया है और 20 से ज्यादा मजदूरों वाले प्रतिष्ठानों के लिए ही बोनस देय रखा है, और इस प्रकार करोड़ों मजदूरों को बोनस के लाभ से वंचित कर दिया है. अनौपचारिक क्षेत्र को इस कोड के दायरे से बाहर कर दिया गया है, जहां किसी प्रतिष्ठान में अमूमन 10 से कम मजदूर होते हैं. अगर इस ‘आच्छादन’ को बढ़ाया भी गया है, तो उसका लाभ प्रबंधकीय, प्रशासकीय, तकनीकी व किरानी कार्यबल को ही मिलेगा – यह मध्यवर्ती तबका आम तौर पर प्रबंधन का हिस्सा होता है और उद्योगपति उनका काफी ख्याल रखते हैं. भाजपा सरकार ने प्रबंधकीय कर्मियों के लिए अपना सरोकार बढ़ाया है और श्रमिकों को भंवर में डूबने छोड़ दिया है.

‘मजदूर’ और ‘कर्मचारी’ की अस्पष्ट परिभाषा:

आउटसोर्सिंग ठेका मजदूरों की विशाल तादाद का बहिष्करण यह कोड ‘कर्मचारी’ तथा ‘श्रमिक’ के बीच क्या फर्क बताता है ? हम अभी तक इस रहस्य को नहीं खोल पाए हैं, क्योंकि इससे संबंधित नियम अभी बने नहीं हैं. स्थायी समिति ने खास तौर पर इस धूर्ततापूर्ण विभेद पर आपत्तियां उठाई हैं. लेकिन, जैसी कि आशा थी, सरकार ने इन आपित्तयों पर कोई तवज्जो नहीं दिया. प्रशिक्षुओं (एप्रेंटिस) को श्रमिक की परिभाषा से पूरी तरह बाहर निकाल दिया गया है, और इस प्रकार उनके पूर्णतम शोषण की इजाजत दे दी गई है. सुपरवाइजर की वेतन सीमा 15000 रुपये तय की गई है, जबकि आज कई राज्यों में खुद न्यूनतम मजदूरी 15000 रुपये मिलती है.

‘स्थायी’ नियोजन की अवधारणा पूरी तरह खत्म कर दी गई. यहां तक कि नियमित कर्मचारियों को मिलने वाले अधिकारों व लाभों को छीन लिया गया है. किसी प्रतिष्ठान में ठेका व अन्य अनौपचारिक कामगारों को स्थायी कर्मियों की समानता में लाने के बजाय स्थायी कर्मचारियों के अधिकार, मजदूरी, नियोजन की शर्तें, कार्य-स्थितियों, आदि में कटौतियां करके इन्हें ही अनौपचारिक मजदूरों के समान बनाया जा रहा है.

‘स्थायी आदेश कानून’ के नियमों में संशोधन लाने के जरिए ‘नियत कालिक नियोजन’ को पिछले दरवाजे से स्थायी चीज बनाया जा रहा है, और इसी को अब देश भर में नियोजन का मुख्य स्वरूप दिया जा रहा है. मजदूरी कोड और इसके बाद आने वाले कानूनों को लागू करके ‘हायर एंड फायर’ (काम लो और निकाल दो) प्रथा को ही अब कानून बना दिया गया है. संगठित क्षेत्र हो या असंगठित अनौपचारिक क्षेत्र, हर जगह के लिए अनौपचारिक नियोजन एक मानक बन गया है. नियतकालिक नियोजन, ठेका व एप्रेंटिस प्रथा और रोजगार के अन्य अनौपचारिक शोषणकारी स्वरूपों को बढ़ावा दिया जा रहा है, ताकि शोषण की तीव्रता को बढ़ाया जा सके.

‘ठेका श्रमिकों’ की परिभाषा सिर्फ उन मजदूरों के लिए लागू होती है जिन्हें प्रमुख नियोजकों के परिसरों में काम करने के लिए किसी ठेकेदार, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो, ‘श्रम आपूरक ठेकेदार’ द्वारा भेजा जाता है; जबकि उसी परिसर में आउटसोर्सिंग वाले कामों में लगे मजदूरों को कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया है. इस कोड में कहा गया है कि ठेकेदारों के प्रतिष्ठानों में काम करने वाले श्रमिक इसके दायरे में नहीं आएंगे. हमलोग देख रहे हैं कि ‘टीमलीज’ जैसी अनेकानेक कार्यबल कंपनियां, जो अन्य काॅरपोरेट कंपनियों  के मानव संसाधन संबंधित मामलों को निपटाती हैं, दावा कर रही हैं कि उनके द्वारा अन्य कंपनियों में काम करने के लिए भेजे गए श्रमिक सिर्फ टीमलीज जैसी कंपनियों के श्रमिक हैं, वे मुख्य नियोजक के श्रमिक नहीं समझे जा सकते हैं. यह कोड ऐसी कंपनियों को आवश्यक कानूनी संरक्षा प्रदान करता है. कानून का उल्लंघन अब अपने-आप में कानून बन गया है.

जो श्रमिक परस्पर सहमत अनुबंधों या समझौतों में नियोजित हैं और जिन्हें कानून के मुताबिक नियमित मजदूरी वृद्धि व अन्य लाभ मिलते हैं, उन्हें अब ठेका श्रमिक की परिभाषा से बाहर निकाल दिया गया है, चाहे वे कहीं भी क्यों न काम करते हों. इसमें कहा गया है, “उनका नियोजन (स्थायी आधार पर रोजगार समेत) नियोजन की शर्तों के परस्पर स्वीकृत मानदंडों से शासित होता है”, और वे ठेका श्रमिक की श्रेणी में नहीं आते हैं. इसमें यह भी कहा गया है कि, (अगर कोई श्रमिक) “वेतन में सावधिक वृद्धि, सामाजिक सुरक्षा आच्छादन तथा ऐसे नियोजन में वर्तमान के लिए लागू कानून के मुताबिक अन्य कल्याणकारी लाभ हासिल कर रहे हैं”, तो उन्हें ठेका श्रमिक नहीं माना जाएगा.

खुद यह परिभाषा ही मजदूरों की एक विशाल तादाद को कानून के दायरे से बाहर निकाल देती है. कोई हैरानी नहीं कि उद्योगपति अब कानूनों से बचने के लिए मजदूरों की अपनी खुद की श्रेणियां बनाएंगे और यह कोड इस किस्म के ‘गैर-कानूनी’ व्यवहार को ही प्रोत्साहित कर रहा है. न तो प्रधान नियोजक किसी कंपनी/पीएसयू/केंद्र या राज्य सरकार से संबंधित कामों में नियोजित तमाम श्रमिकों के लिए जिम्मेदार होगा, और न ही किसी प्रधान नियोजक को चिह्नित ही किया जा सकेगा.

‘स्थायी’ चरित्र के काम में ठेका श्रमिकों के नियोजन पर रोक, किसी रोजगार में ‘आकस्मिक’ काम, श्रम ‘नियंत्रण’ और ‘निगरानी’ जैसी अवधारणाओं को अलविदा कहा जा रहा है. कामों के ‘कोर (प्रधान)’- ‘नन कोर (अ-प्रधान)’, ‘स्थायी’-‘परिधीय’ विभेद को भी खत्म किया जा रहा है, जिसके जरिए कंपनियों को अपने ‘कोर’ कार्यों में ठेका श्रम को नियोजित करने से रोका जाता था. यह कोड महज वैयक्तिक अनुबंधों में शामिल होने और नियमित वृद्धि के बतौर थोड़ा-बहुत महंगाई भत्ता देकर किसी नियोजक को कानून से बच निकलने का पर्याप्त मौका दे देता है. इसलिए, इस कानून का एकमात्र मकसद है मजदूरों को पूंजी और शोषकों की दया पर छोड़ देना. इसका संदेश बिलकुल स्पष्ट है. इस मजदूरी कोड के जरिए एक नई किस्म की गुलामी का अध्याय लिखा जा रहा है.

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अति-मुनाफा के लिए मजदूरी में कमी लाना

इस कोड में कहा गया है कि भत्तों को भी मजदूरी समझा जाएगा, अगर यह 50 प्रतिशत अथवा केंद्र सरकार द्वारा घोषित किसी प्रतिशत से अधिक होता है, जो बुनियादी महंगाई भत्ता और प्रतिधारित (रिटेनिंग) भत्ता के समतुल्य होगा. मजदूरी और भत्तों की परिभाषा को भी सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है. दूसरे, इसमें कहा गया है कि जब महिलाओं के लिए समान मजदूरी का सवाल उठता है, तो उस समय आवास भत्ता (एचआरए), ओवरटाइम मजदूरी और अन्य भत्तों को भी मजदूरी ही माना जाएगा. क्या यह वास्तव में महिला श्रमिक को समान मजदूरी देना हुआ, अथवा कि महिला कामगारों की मजदूरी में कटौती हुई ? जब महिलाओं के लिए समान मजदूरी की बात आती है तो इस कोड ने उनकी कुशलता, प्रयास, जिम्मेदारी और अनुभव को भी विचारार्थ शामिल कर लिया है. यह तो वास्तव में एक मजाक है कि ‘प्रयास’ की कैसे परिभाषित किया जाए ! हाहा, हमें तो नियमों के बनने का इंतजार करना होगा. लेकिन जब न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण का सवाल आएगा, तो उसमें अनुभव और सेवा का कोई ख्याल नहीं किया जाएगा. यह कंपनी का विशेषाधिकार होगा कि वह किसी नए भर्ती हुए श्रमिक को अथवा कई सालों के अनुभवी मजदूर को समान मजदूरी देगी या नहीं. मजदूरी में भेदभाव इस कोड में अंतर्निहित तथ्य है. विभिन्न तबकों के श्रमिकों के बीच असमानता और गरीबी को बढ़ाना इस कोड के पीछे का तर्क है. मजबूत आपत्तियां दर्ज कराने के बावजूद सरकार ने इस मामले में स्थायी समिति की अनुशंसाओं को खारिज कर दिया है.

इसमें भी बड़ी आपदा यह है कि इस कोड में मजदूरी निर्धारण का कोई वैज्ञानिक फार्मूला या तरीका नहीं बताया गया है. भारतीय श्रम सम्मेलनों की अनुशंसाओं और राप्ताकोस ब्रेट मुकदमे के सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में जोर दिया गया है कि  श्रमिकों को इतनी मौद्रिक मजदूरी मिलनी चाहिए, जिससे कि 4 सदस्यों वाले किसी परिवार के लिए प्रति व्यक्ति 2700 कैलोरी ऊर्जा सृजन का खर्च निकल सके. बाद में, सरकार ने उम्रदराज मां-बाप की संरक्षा के लिए भी कानून बनाया था. इस प्रकार, तार्किक रूप से किसी परिवार को छह लोगों की इकाई माना जाना चाहिए. लेकिन, इनमें से किसी चीज पर ध्यान न देकर कह दिया गया कि संबंधित सरकार इसकी गणना का तरीका बनाएगी – और इस तरह से एक बार फिर काॅरपोरेटों के हक में नौकरशाही विकृतियों और हेराफेरी की गुंजाइश बना दी गई है.

हमारे देश में मजदूरी की दो किस्म की प्रणालियां हैं – ‘फ्लोर मजदूरी’ और ‘न्यूनतम मजदूरी’,  क्रूर मजाक यह है कि 2019 में मोदी - 2 सरकार ने ‘फ्लोर मजदूरी’ में 2 रुपये की वृद्धि की है. यह वृद्धि मजदूरी को वास्तव में बढ़ाने की बात तो दूर, वास्तविक मजदूरी में गिरावट को रोकने के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में वृद्धि के समतुल्य भी नहीं है. आज की तिथि में फ्लोर मजदूरी मात्र 178 रुपये प्रतिदिन, अथवा 4628 रुपये प्रति माह है. न्यूनतम मजदूरी ऐक्ट 1948 को रद्द किए जाने के साथ केंद्र सरकार को मजदूरी कोड में यह स्पष्ट करना चाहिए था कि न्यूनतम मजदूरी का भुगतान अनिवार्य है. लेकिन इसके बजाय वह फ्लोर मजदूरी अथवा राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी का प्रस्ताव ला रही है. आज की तारीख में, न्यूनतम मजदूरी कई राज्यों में 15000 रुपया प्रति माह की सीमा छू रही है. दूसरे राज्यों में भी ऐसा ही होने जा रहा है. लेकिन, मजदूरी कोड इस मामले में संदेह पैदा करता है.

इसीलिए, ऐसा लगता है कि मोदी सरकार मजदूरी में गिरावट लाकर काॅरपोरेटों और उद्योगपतियों की मदद कर रही है. अब, मजदूरी का निर्धारण न तो बाजार के जरिए हो रहा है और न ही ऊर्जा आवश्यकता पर आधारित न्यूनतम मजदूरी निर्धारण के लिए मौजूदा वैज्ञानिक मानदंड के अनुसार हो रहा है; बल्कि ये मजदूरियां काॅरपोरेट-परस्त केंद्र सरकार के साजिशाना हस्तक्षेप से तय की जा रही हैं. नियोजकों के लिए मुनाफा – उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि के जरिए नहीं, बल्कि मजदूरों की आमदनी छीन कर! कौशल स्तर और अन्य कारकों के अलावा ‘उद्योग सह अंचल’ फार्मूला मजदूरी निर्धारण का काफी लोकप्रिय मानदंड रहा है. लेकिन मजदूरी कोड में इस रुख को खत्म कर ‘फ्लोर’ मजदूरी के लिए भी ‘अंचल’ का फार्मूला लागू किया जा रहा है.

आठ घंटे के कार्य दिवस का खात्मा

आठ घंटे का कार्य दिवस पूरी दुनिया में मजदूर वर्ग आंदोलन का प्रमुख नारा रहा था. इसे अपना कानूनी अधिकार बनाने के लिए हजारों मजदूरों को कुर्बानियां देनी पड़ी थीं. आज इसे घटा कर छह घंटे का कार्य दिवस बनाने की मांग उठाई जा रही है. लेकिन मोदी सरकार 8 घंटे के कार्य दिवस को भी अनिवार्य बनाने की मंशा नहीं रखती है. स्थायी समिति ने इसे ऐक्ट में शामिल करने की खास तौर पर सिफारिश की थी. लेकिन सरकार कहती है कि “केंद्र या राज्य सरकार सामान्य कार्य-दिवस के घंटों की संख्या निर्धारित कर सकती है.” मजदूरी कोड में न तो न्यूनतम मजदूरी निर्धारण का कोई मानदंड बताया गया है, और न तो इसमें कार्य दिवस के घंटे के बारे में ही कुछ साफ-साफ कहा गया है. यही है मजदूरी कोड जो देश के मेहनतकश अवाम के लिए पूरापूरी एक धोखा है. हमलोग हर वर्ष मई दिवस के अवसर पर 8 घंटे का कार्य दिवस हासिल करने के लिए शहीद मजदूरों द्वारा दी गई कुर्बानियों को याद करते हैं. लेकिन, हमने ऐसी सरकार को चुनकर भेजा है जो काम के घंटे बढ़ाने और इस प्रकार ओवर टाइम मजदूरी से श्रमिकों को वंचित करने की साजिश कर रही है. यह मजदूरों पर बहु-तरफा और प्रणालीबद्ध हमला है.

“हड़ताल के अधिकार” की चोरी

मजदूरी कोड में यह भी कहा गया है कि कोई सूचना दिए बगैर अपनी ड्यूटी से 10 या इससे अधिक मजदूरों की अनुपस्थिति को हड़ताल समझा जाएगा और इसके लिए 8 दिनों की मजदूरी काट ली जाएगी. कटौतियों की शर्तों के नाम पर सरकार हड़ताल को गैर-कानूनी घोषित कर रही है और मजदूरी कोड के जरिए 8 दिनों की मजदूरी काट लेने को अनिवार्य बना रही है. अगर यूनियन या मजदूर हड़ताल के लिए कोई नोटिस नहीं जारी करते हैं, तब भी 8 दिनों की मजदूरी-कटौती लागू कर दी जाएगी. 10 मजदूरों की महज संयोगवश अनुपस्थिति भी 8 दिनों की मजदूरी-कटौती के लिए काफी है. इस कोड में श्रमिकों  के ‘हड़ताल करने के अधिकार’ को चोरी-छिपे छीन लेने की मोदी की मंशा स्पष्ट झलकती है.

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बोनस : नियोजकों का विवेक, मजदूरों का अधिकार नहीं

श्रमिकों को सिर्फ 8.33 प्रतिशत का न्यूनतम बोनस दिया जा सकता है. बोनस के लिए अर्हता और बोनस की अधिकतम सीमा की गणना की अधिसूचना उचित सरकार द्वारा बाद में जारी की जाएगी. लेकिन, यह न्यूनतम बोनस भी कठोर शर्तों के अधीन होगा. पहले पांच वर्षों तक कंपनियों को बोनस भुगतान से पूरी तरह छूट रहेगी और बाद के वर्षों में भी बोनस कंपनी के मुनाफे और आवंटन योग्य अधिशेष से जुड़ा रहेगा. कंपनी जितना भी प्रतिशत बोनस देगी, इसके लिए कंपनी द्वारा पेश तर्कों की जांच-पड़ताल करने हेतु मजदूरों को आवंटन योग्य अधिशेष संबंधी तथ्यों का अध्ययन  करने के लिए कंपनी का बैलेंस शीट मांगने का कोई अधिकार नहीं होगा. केवल संबंधित अधिकारी को ही यह मिल सकता है और वह अधिकारी कंपनी प्रबंधन की रजामंदी से ही वह बैलेंस शीट मजदूरों के साथ साझा कर सकेगा. ‘भुगतान न की गई मजदूरी’ के बतौर बोनस को समझने की अवधारणा खत्म की जा रही है. व्यावहारिक रूप से कहा जाए, तो बोनस का भुगतान अब मजदूरों का अधिकार के बजाय नियोजक का विवेक और अधिकार बन गया है. मजदूरी कोड की यह दूसरी विशेषता है.

मीडिया में बखान किया जा रहा है कि बोनस और लाभों के भुगतान के मामले में प्रमाण का बोझ प्रबंधन के कंधों पर लदा होता है. इसको लेकर काफी शोर-शराबा मचता रहता है. लेकिन , मीडिया इस तथ्य पर खामोश रहता है कि इन्हीं ‘जिम्मेदार’ नियोजकों को ठेका व परस्पर सहमति में साझेदारी, तथा स्टार्ट-अप, स्टैंड-अप, आवंटन योग्य अधिशेष आदि कारकों के जरिए उनकी जिम्मेदारी से छूट दी जा रही है. पुराने कानूनों के अनुसार अगर किसी समझौते अथवा अनुबंध में अनिवार्य वैधानिक प्रावधानों के खिलाफ कोई अनुच्छेद रहता है तो उसे खारिज किया जा सकता है. लेकिन इस नए कोड के अनुसार किसी भी वैधानिक प्रावधान को किसी अनुबंध अथवा समझौता के जरिए खारिज किया जा सकता है. नियोजक आसानी से किसी कानून को धता बता सकता है – बस, इसके लिए उसे उस कानून को और यहां तक कि बोनस को भी परस्पर सहमति के किसी अनुबंध का हिस्सा बना देना होगा. इसी मानदंड के अनुसार, अब न्यूनतम मजदूरी, ईएसआई, पीएपफ, ग्रेच्युइटी तथा अन्य अधिकार व लाभ, जिनमें बोनस भी शामिल है, अनिवार्य नहीं रह जाएंगे. इसके अलावा, इन लाभों की अदायगी अब नियोजक की नहीं, बल्कि खुद श्रमिकों की जिम्मेदारी बना दी जा रही है.

निरीक्षण का मजाक और दंड अनुच्छेद की खिल्ली

मजदूरी कोड में कंपनियों को बढ़ावा दिया गया है कि वे कानून का उल्लंघन करें. पुराने कानूनों में, कम से कम कागज पर, कुछ महीनों के लिए जेल की सजा समेत कई दंडात्मक प्रावधान थे, जो उल्लंघन की प्रकृति पर निर्भर होते थे. अब, निरीक्षण की व्यवस्था को प्रणालीगत तरीके से ध्वस्त किया जा रहा है. जनता अथवा सरकार के प्रति किसी भी जवाबदेही के बगैर लूटने-खसोटने की कुंजी चोरों को थमा दी जा रही है. खुद अपराधी कंपनियों के द्वारा स्वयं के लिए अच्छे आचरण का सर्टिफिकेट जारी किया जा सकता है. ‘निरीक्षक’ महज एक ‘फैसिलिटेटर’ बनकर रह जाएगा. ये फैसिलिटेटर पहली बार कानून का उल्लंघन करने पर कंपनियों को सिर्फ सलाह दे सकते हैं. अगर कंपनी फैसिलिटेटर के निर्देशों का पालन नहीं करती है तो पांच वर्ष के अंदर पहली बार कंपनी को सिर्फ 50,000 रुपये तक की सजा और दूसरी बार एक लाख रुपये तक की सजा मिलेगी – इससे ज्यादा नहीं और जेल की सजा तो बिलकुल नहीं.

मोदी ने अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में ‘संपत्ति निर्माताओं’ का सम्मान करने पर जोर दिया था. देश का मेहनतकश अवाम दावा करता है, कोई भी वैज्ञानिक रुख प्रमाणित करता है और इतिहास ने भी हमें सिखाया है कि मेहनतकश जनता ही संपत्ति का स्रष्टा है. लेकिन मोदी कहते हैं कि निवेशक ही संपत्ति के सिरजनहार हैं जिनका सम्मान किया जाना चाहिए और जिन्हें ‘आसानी से कारोबार चलाने’ के लिए अनुकूल वातावरण मुहैया कराना चाहिए. बात तो यह है कि ये निवेशक और संपत्ति के सिरजनहार काॅरपोरेट और मल्टीनेशनल कंपनियां हैं. और, चूंकि वे संपत्ति के स्रष्टा हैं इसीलिए ‘मेक इन इंडिया’ का ठप्पा ही देश को लूटने के लिए काफी है. मोदी और संघ परिवार ने निवेशकों की प्रशंसा करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी. इसलिए, वे यह भी कहते हैं कि उन्होंने पहले ही 1450 कानूनों को खत्म कर दिया था और अपने शासन की दूसरी पारी के 70 दिनों के अंदर अन्य 60 कानूनों को हटाया है, ताकि कारोबार करना और व्यवसायी वर्ग का अपनी जिंदगी गुजारना आसान बनाया जा सके. प्रधान मंत्री मोदी ने अपने भाषण में बिलकुल सापफ किया कि निजीकरण और काॅरपोरेटों व मल्टीनेशनल कंपनियों द्वारा निवेश ही बेरोजगारी, असमानता और गरीबी के लिए रामबाण है. इसीलिए यह बिलकुल स्वाभाविक है कि मजदूरी कोड भी पूंजी को खुली आजादी दे रहा है. यह श्रम के और तेज तथा अमानवीय शोषण की संहिता है और लुटेरों व शोषकों को दिया गया सम्मान है. यह आधुनिक दासता का ही एक अध्याय है. यह नव-उदारतावाद के युग में पूंजी की बलिवेदी पर श्रम की कुर्बानी की संहिता है.