मूल अंग्रेजी लेख का लिंक

सांस्कृतिक  राष्ट्रवाद, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा दिया जाने वाला अपनी विचारधारा का मानक ब्यौरा है, उसे एक नया वैश्विक ब्रांड नाम मिला है : राष्ट्रीय रूढ़िवाद. वैश्विक धुर दक्षिणपंथ पिछले पांच साल से नैट कॉन ( राष्ट्रीय रूढ़िवाद) सम्मेलनों की शृंखला आयोजित करके व्यापक वैचारिक गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा था. शुरुआती सम्मेलन मई 2019 और फरवरी 2020 के बीच लंदन, वॉशिंगटन और रोम में हुए और ये सम्मेलन एक नए अमेरिकी इंस्टीट्यूट- एडमंड बर्के फ़ाउंडेशन- की शुरुआत के लिए भी जाने गए, जिसकी अध्यक्षता इज़राइली- अमेरिकी दर्शनशास्त्री योरम हज़ोनी ने की. सबसे हालिया नैट कॉन 8-10 जुलाई 2024 को वॉशिंगटन डीसी में हुआ और इसमें पहली बार संघी कुनबे के दो लोगों ने भाग लिया – राम माधव और स्वपन दासगुप्ता. यह भारतीय डायसपोरा में आरएसएस के महीन तंत्र के बाहर, उसके उभरते नए वैश्विक संपर्कों पर कुछ रौशनी डालता है. बीसवीं शताब्दी के पहले पूर्वार्द्ध में अपने गठन के समय से ही आरएसएस साफ तौर पर यूरोप के धुर दक्षिणपंथी फासीवादियों से प्रभावित था. इटली में मुसोलिनी के उभार से उल्लेखनीय प्रभाव ग्रहण किया गया. गोलवलकर ने खुले आम उन सबक़ों की बात की, जो भारतीय राष्ट्रवादियों को हिटलर से ग्रहण करने चाहिए. वैश्विक धुर दक्षिणपंथ का वर्तमान जमावड़ा भी नव फासीवाद के पुनः उभार की पृष्ठभूमि में हो रहा है. पर फासीवाद या नाजीवाद (तथाकथित राष्ट्रीय समाजवाद) शब्द आज फासीवादियों के लिए भी एक वर्जित शब्द है और इसीलिए यह राष्ट्रीय रूढ़िवाद का चोला ओढ़ा गया है.

राम माधव के पास फासीवाद के आरोप में खाँटी व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी छाप जवाब था. माधव ने कहा “ हमें फासीवादी कैसे कहा जा सकता है या हम पर हिटलर का अनुसरण करने का आरोप कैसे लगाया जा सकता है, जबकि हम यहूदियों और इज़राइल को इतना ज्यादा प्यार करते हैं.” उन्होंने श्वेतों की बहुसंख्या वाले अपने श्रोताओं से कहा कि वे भारतीय और पश्चिमी उदारवादियों की, भारत में “लोकतंत्र के क्षरण” वाली बातों पर भरोसा न करें. “ याद है ना, यही लोग आपको श्वेत श्रेष्ठतावादी या नस्लवादी कहते हैं.” यदि यह समझना हो कि फासीवादी और नस्लनद, कैसे रूढ़िवाद के छाते के नीचे स्वयं को पुनर्स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं तो नैट कॉन  में राम माधव का भाषण सुनना चाहिए.

राम माधव और स्वपन दासगुप्ता ने सम्मेलन को बताया कि भारत रूढ़िवाद के इस उभार का नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त है क्यूंकि भारतीय तो जाहिरा तौर पर पैदायशी रूढ़िवादी होते हैं. उनके अनुसार रूढ़िवाद का मूलमंत्र “आस्था, झंडा और परिवार”- “ईश्वर में विश्वास” और परिवार व राष्ट्र के प्रति वफादारी- भारतीयों को स्वाभाविक रूप से मिली हुई है. यह दावा करते हुए कि भारत में एक अरब लोग रूढ़िवादी विचारधारा को मानते हैं, माधव ने बड़ी तत्परता से भारत में रूढ़िवाद को संख्यात्मक आधार भी दे दिया. भारत के कुल मतदाताओं की संख्या एक अरब के करीब है, जिसमें 64.2 करोड़ लोगों ने 2024 में वोट डाला और इसमें भाजपा के वोट का हिस्सा है 36.56 प्रतिशत या उससे कम और अगर हम वास्तविक संख्या में बात करें तो ये है 24 करोड़.

यथा स्थितिवाद से फासीवाद तक, रूढ़िवाद शब्द इस्तेमाल करते समय राम माधव के दिमाग में जो भी रहा हो, लेकिन संघ-भाजपा प्रतिष्ठान को कभी भी एक अरब भारतीयों का समर्थन नहीं रहा है. नायकों को हड़पने और इतिहास का मिथ्याकरण करने की तरह ही संघी विमर्श, भारत के न्याय के पक्षधर, लोकतंत्र पसंद आम लोगों को आरएसएस की प्रतिगामी वैचारिक परियोजना का समर्थक बता कर, उनकी गलत तस्वीर पेश कर रहा है.

उसे चाहे सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीति जो कहिए, यदि रूढ़िवाद और अनुरूपतावाद भारतीय परंपरा के प्रमुख लक्षण होते तो भारत अभी भी औपनिवेशिक शासन के जुए तले पिस रहा होता, दलित अभी भी गुलामी भुगत रहे होते और हिंदू महिलाएं अभी भी सती के नाम पर अपने पतियों की चिताओं में जलायी जा रही होती. निश्चित ही लोकतांत्रिक और क्रांतिकारी आवेग भी उतने ही “भारतीय” हैं, जितने कि रूढ़िवाद वाले हैं, हालांकि उनको हमेशा ही अपने को स्थापित करने के लिए वहाँ संघर्ष करना पड़ा है, जिसे अंबेडकर पितृसत्तात्मक सामंती जाति वर्चस्व वाले समाज की “अलोकतांत्रिक मिट्टी” कहते हैं- जिसके मूल का माधव ढिंढोरा पीटते हैं और पूरी दुनिया के सामने इसे वैश्विक रूढ़िवाद के आदर्श के तौर पर पेश करना चाहते हैं.

राम माधव दुनिया के अन्य हिस्सों के अपने रूढ़िवादी बंधुओं का नेतृत्व मोदी हुकूमत द्वारा वर्तमान में में भोगी जा रही सत्ता की ताकत दिखा कर करना चाहते हैं. वे शेखी बघारते हुए कहते हैं कि अगर यह दस साल पहले की बात होती तो वह रूढ़िवाद की “सिसकती कथा” सुना रहे होते, लेकिन आज उनके पास सुनाने को सफलता की कहानी है. और वो कहते हैं कि यह सफलता नीचे से सांस्कृतिक गोलबंदी करते हुए, रूढ़िवादी विचारधारा का  जमीनी दखल बढ़ाते हुए हासिल की गयी है. यहां पर वह साफ तौर पर बड़ा झूठ बोल रहे हैं. आडवाणी की अयोध्या रथ यात्रा से लेकर मोदी के प्रबंधन में हुए गुजरात नरसंहार से लेकर निरंतर मुस्लिम विरोधी दंगे, पिछले दस सालों में भीड़ हिंसा और बुलडोजर हमलों तक, भाजपा की सत्ता तक पहुंच, हिंसक अभियानों की ऐसी ही शृंखला के जरिये मुमकिन हुई है. और हिंसा के व्यवस्थित इस्तेमाल से सत्ता में पहुंचने के बाद भाजपा,आज और हिंसा करके तथा भय फैला कर ही उस सत्ता को कायम रखे हुए है.

फासीवाद के शास्त्रीय चरित्र के अनुरूप ही आज भारत में भाजपा एक खुली आतंककारी तानाशाही है. मोदी 3.0 किसी भी तरह विपक्ष की बढ़ी हुई ताकत से सामंजस्य बैठने को तैयार नहीं है और यह भी उसे हजम नहीं हो रहा है कि 2024 के चुनाव के परिणामस्वरूप भय का तत्व कमजोर हो चुका है. और जहां तक आरएसएस के उभार और बढ़त की बात है तो जाति और धर्म के परंपरागत हथियारों के अलावा राज सत्ता तथा आधुनिक समाज के संस्थाबद्ध तंत्र पर संगठन के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष नियंत्रण पर वह हमेशा ही निर्भर रहा है. रूढ़िवाद की प्रतिगामी विचारधारा से ज्यादा ऐतिहासिक तौर पर आरएसएस झूठ और अफवाह फैला कर तथा घृणा व हिंसा के प्रसार से आगे बढ़ा है.

मोदी की ‘विश्वगुरु’ महत्वाकांक्षा और भंगिमा की तरह ही लगता है आरएसएस भी ज्यादा वैश्विक मान्यता और भूमिका की चाह में है. आरएसएस इस बात से वाकिफ है कि अमेरिका की विश्व दृष्टि में तथाकथित आतंक के विरुद्ध युद्ध और चीन को थामे रखने में भारत के एक सहयोगी के तौर पर भूमिका और संभावना में ही भारत का रणनीतिक महत्व है. आरएसएस इस रणनीतिक रिश्ते को साझा धुर दक्षिणपंथी रूढ़िवादी लगाव के रूप में और मजबूत वैचारिक धरातल पर ले जाना चाहता है. व्यापक नव उदारवादी आर्थिक सहमति और पश्चिमी सैन्य प्रभुत्व के राज्यों के कूटनीतिक सहयोग से आगे, आरएसएस वैचारिक क्षेत्र में धुर दक्षिणपंथ की अगुवाई में चल रहे रूढ़िवादी रूपांतरण के लिए काम करना चाहता है, जो विभिन्न देशों में बदलते राजनीतिक संतुलन और चुनाव परिणामों से परे हों और यह नस्लवाद, इस्लाम के प्रति डर व घृणा, प्रवासी विरोधी अति राष्ट्रवाद और विदेशियों के प्रति घृणा के साझा मूल्यों पर आधारित हो.

राम माधव और स्वपन दासगुप्ता अमेरिका में भारतीय डायस्पोरा की तुलना इज़राइल यहूदी पक्षधर लॉबी से करते हैं, दासगुप्ता तो यहां तक मानते हैं कि आर्थिक विकास के मामले में भारतीय डायस्पोरा ताकत और प्रभाव के तुलनात्मक स्तर तक पहुंच चुका है. वे चाहते हैं कि अमेरिका में भारत की भूमिका इज़राइल पक्षीय लॉबी की ही तरह राजनीतिक और वैचारिक रूप से प्रभावशाली हो. जैसे इज़राइल को हर अपराध में माफी और अमेरिका का सक्रिय सहयोग हासिल है, माधव चाहते हैं कि मोदी सरकार के भारतीय धार्मिक अल्पसंख्यकों और अपने मुस्लिम पड़ोसियों से निपटने के मॉडल  को भी अमेरिका वैसे ही स्वीकार कर ले और धार्मिक स्वतंत्रता व मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर बेहद हल्के आलोचनात्मक शोर को भी बंद कर दे.

धर्मांतरण के आरएसएस के विरोध को या जिसे वे धर्मांतरण का ईसाई अभियान कहते हैं, माधव, ईसाई मत प्रचारक अमेरिकी रूढ़िवादियों से उसकी सराहना की चाह भी रखते हैं.

2025 में अपने शताब्दी वर्ष की तैयारी में संभवतः आरएसएस की तरफ से हमें और ऐसे प्रयास देखने को मिलेंगे, जिसमें वह खुद को एक वैश्विक आदर्श और भारत को दुनिया भर के “राष्ट्रीय रूढ़िवादियों” के वैचारिक गंतव्य की तरह पेश करने की कोशिश करेगा. दरअसल माधव ने तो अपने रूढ़िवादी साथियों को यह भी बताया कि भारत तो रूढ़िवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अगुवा की भूमिका निभाने को तैयार है. भारतीय फासीवादियों के उभरते समकालीन अंतरराष्ट्रीय संपर्कों पर निश्चित ही दुनिया भर की फासीवाद विरोधी ताकतों को गहनता से ध्यान देने की जरूरत है.

( मूल रूप से द वायर में अंग्रेजी में 19 अगस्त 2024 को प्रकाशित.)

हिंदी अनुवाद – इन्द्रेश मैखुरी