- कुमार परवेज
कौन जात है रे! यह भाषा हमने खूब सुनी है. आपने भी सुनी होगी. सामंती अहंकार और जातीय वर्चस्व की विशुद्ध लंपट भाषा! आज से 25-30 साल पहले दबी जुबान में इसका जवाब था – मालिक, हम चमार हैं, हम मुसहर हैं!
ऐसा लगता था कि विगत कुछ सालों में लंपटों की यह भाषा खुद को बदलने के लिए बाध्य हुई है!
– कौन जात हो रे से कौन जात हो भाई!
और उसका जवाब – ‘‘दलित हैं साब!?’’
नहीं मतलब किसमें आते हो?
आपकी गाली में आते हैं
गंदी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब!
मुझे लगा हिंदू में आते हो!
आता हूं न साब! पर आपके चुनाव में!
लेकिन देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा के अंदर भाजपा का एक सांसद अनुराग ठाकुर जब यह कहता है – जिसको अपनी जाति पता नहीं, वह जाति गणना की मांग कर रहा है – तब उसकी बोली से उसी पुराने सवर्ण सामंती अंहकार और जातीय वर्चस्व की बू आती है जैसे वह पूछ रहा हो – कौन जात है रे! उससे भी दुखद यह कि वैसी भाषा और लोकसभा के अंदर नेता प्रतिपक्ष श्री राहुल गांधी पर की गई बेहद घटिया टिप्पणी पर कोई निंदा की बजाए प्रधानमंत्री मोदी और पूरा भाजपाई कुनबा अनुराग ठाकुर के भाषण की तारीफ करते नजर आता है. इससे क्या यह साबित नहीं होता कि यह भाषा केवल अनुराग ठाकुर जैसे चंद भाजपा सांसदों की नहीं बल्कि पूरे संघ गिरोह की है?
अनुराग ठाकुर के वक्तव्य में सवर्ण-सामंती अहंकार के साथ पितृसत्ता की भी अकड़ है. वह पितृसत्ता जो आज के आधुनिक समाज में, वह भी कानूनन, किसी व्यक्ति की जाति का निर्धारण उसके पिता के आधार पर कराके अपना निर्बाध शासन स्थापित किए हुए है, अनुराग ठाकुर जैसे लंपटों को खाद-पानी मुहैया कराता है. दरअसल अनुराग ठाकुर राहुल गांधी पर नहीं बल्कि उनके पिता की जाति पर सवाल उठा रहे थे. यह हर किसी को पता है कि राजीव गांधी के पिता कौन थे. भाजपा इन्हीं पितृसत्तात्मक नियमों को आधार बनाकर राहुल गांधी को ‘गजनी की औलाद’ बताती रहती है. यानी एक तीर से दो शिकार! ऐसे में क्या यह उचित मौका नहीं जब यह प्रश्न उठाया जाए कि संतानों की जाति का निर्धारण पिता के नाम पर ही क्यों हो? रोहित वेमुला मामले में भी हमने भाजपा के इसी कुतर्क को देखा था, जब उसने रोहित को दलित मानने से इंकार कर दिया था, क्योंकि उनकी माता तो दलित थीं लेकिन पिता ओबीसी. जबकि उनका पालन-पोषण उनकी मां ने किया था. ऐसे में उनकी जाति का निर्धारण तो मां से ही होना चाहिए था. जहां भी शादी कर लें, संतानों की जाति पिता की ही जाति होगी – यह जाति व्यवस्था को बनाए रखने वाला प्रावधान है. और जो थोड़े से लोग अपने को ‘निर्जात’ घोषित करते हैं या मां के आधार पर अपनी जाति बताते हैं, वे संघ गिरोह के निशाने पर आ जाते हैं. लेकिन एक अच्छी बात यह हुई कि राहुल गांधी को अब जनेऊ पहनकर खुद को ‘ब्राह्मण’ साबित करने का ढोंग नहीं करना पड़ेगा. वे ‘निर्जात’ हो चुके हैं.
भाजपा का यह विष वमन देश में जाति गणना की मांग को कमजोर करने के निमित है. बीजेपी का आरोप है कि जाति गणना समाज को जातियों में छिन्न-भिन्न करने की साजिश है. लेकिन हमारा समाज तो सदियों से जातियों में विभक्त है. एक बड़ी आबादी के साथ घोर अन्याय हुआ है. उन्हें संसाधनों पर अधिकारों और समान अवसरों से वंचित रखा गया है. क्या देश के दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज को इस बात का अधिकार नहीं कि वे इस बात का पता लगाएं कि देश के संसाधनों पर कौन सी सामाजिक शक्तियां काबिज हैं? शासन व्यवस्था में किसकी कितनी हिस्सेदारी है? हमारा संविधान वंचित समुदाय के लिए विशेष अवसर की बात करता है ताकि उनके साथ ऐतिहासिक तौर पर हुए अन्याय की भरपाई हो सके. आरक्षण कुछ और नहीं बल्कि वही विशेष अवसर है. इसलिए जाति गणना महज गिनती नहीं है और न ही जाति व्यवस्था को बनाए रखने की मांग है बल्कि इसके उलट उसको तोड़ डालने का एक औजार है. डॉ. अंबेडकर जातियों के उन्मूलन की बात करते थे. वे कहते थे कि विभिन्न समुदायों के बीच रोटी-बेटी की जितनी एकता स्थापित होगी, जातियां का खांचा उतना ही टूटेगा और समाज निर्जात होता जाएगा.
ठीक इसके उलट भाजपाई तो जाति व्यवस्था को मनुस्मृति का चिरस्थायी विधान मानते हैं – सनातन! ब्राह्मणवाद ऐेसे ही सदियों से समाज पर राज नहीं कर रहा. जातियों से परे भी शादियां होती रही हैंं. हिंदू धर्मशास्त्रों में अनुलोम व प्रतिलोम विवाह के कई उदाहरण हैं. अनुलोम विवाह में वे शादियां आती हैं जिनमें ऊंची जाति समूह का कोई पुरुष नीची जाति की स्त्रा से शादी करता है. धर्मशास्त्र इसे तर्कसंगत मानते हैं और उससे उत्पन्न संतानों को पिता की विरासत का अधिकार देते हुए ऊंची जाति समूह में शामिल कर लेते हैं. दिक्कत वहां होती है जहां प्रतिलोम शादियां होती हैं जिनमें पुरुष निम्न जाति और स्त्री ऊंची जाति से आती है. ऐसी शादियों को हिंदू धर्मशास्त्र बेहद संगीन अपराध मानते हैं, इससे वंश की ‘शुद्धता’ नष्ट हो जाती है और ऐसे लोगों से उत्पन्न संतानों को ‘चंडाल’ जैसी श्रेणियों में डालकर उनका मजाक बनाया जाता है, उनसे घृणा की जाती है. भाजपा इस चौखटे को बनाकर रखना चाहती है. वह जातियां तोड़ना नहीं चाहती या फिर उपर्युक्त ढांचे में ही सबकुछ फिट कर देना चाहती है और इसीलिए वह जाति गणना से भागती फिरती है. कॉरपोरट कल्चर और ब्राह्मणवाद के नाभिनाल संबंधों का यही मूल आधार है.
हम तो चाहते हैं कि पूरा समाज जल्दी से जल्दी जाति व्यवस्था की सड़ांध से मुक्त हो सके, निर्जात हो सके, लेकिन इसकी पहली शर्त होगी वंचित समुदाय की सही आबादी की गणना और तदनरूप नीतियां का निर्माण ताकि वे अपने साथ ऐतिहासिक तौर पर हुई साजिश से मुक्त हो सकें. जाति जनगणना में विभिन्न जाति समूहों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत से जुड़े आंकड़ों को जुटाना है. बिहार की जाति आधारित गणना ने बताया कि वंचितों के घरों से शिक्षा अब भी बहुत दूर है. तमाम सरकारी उपायों के बावजूद बड़ी आबादी निर्धनता, आवासहीनता और आवास जैसे अधिकारों से वंचित है. लगभग पूरे उत्तर भारत की यही तस्वीर है. जाति गणना ने ही बिहार में आरक्षण के विस्तार का रास्ता बनाया. इसलिए जाति गणना करवाइए और तदनुरूप नीतियां बनाइए! यही समतामूलक समाज के निर्माण की आधारशिला होगी.