- कुमार परवेज
भाजपा ने पूरी धृष्टता से लेकिन स्पष्ट तौर पर साफ कर दिया कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिल सकता. अनुमान लगाया जा रहा था कि 2024 के लोकसभा चुनाव में सत्ता के जादुई आंकड़े से दूर रह गई और जद(यू) व तेलगुदेशम की वैशाखी पर चल रही मोदी सरकार पर इस बार नीतीश कुमार दबाव डालने में कामयाब हो पायेंगे और संभवतः बिहार की चिरप्रतीक्षित विशेष राज्य के दर्जे की मांग पूरी हो सकेगी. लेकिन जद(यू) ने भाजपा के सामने घुटने टेककर बिहार की जनता के साथ ऐसा विश्वासघात किया है जिसकी कोई माफी नहीं हो सकती. कहां तो कभी यही नीतीश कुमार विशेष राज्य के दर्जे को एक राजनीतिक एजेंडा बना रहे थे, लेकिन जब वक्त आया तब वे खुद और उनके नेता ‘पैकेज’ की दुहाई देने लगे.
जद(यू) के इस निर्लज्ज आत्मसमर्पण को नीतीश कुमार के बहुप्रचारित विकास मॉडल के ढहते मलबों में ढूंढना चाहिए जहां आज हर तरफ से संस्थाबद्ध भ्रष्टाचार की बू आ रही है. यह अकारण नहीं कि लोकसभा चुनाव में 12 सीटों पर जीत हासिल करने और भाजपा को भी इतनी सीटों पर कामयाब बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले नीतीश कुमार आज की तारीख में एक बेबस और लाचार मुख्यमंत्री साबित हो रहे हैं. उनके चहेते अधिकारी संजीव हंस पर भ्रष्टाचार व बलात्कार के लगे संगीन आरोपों की आंच सत्ता के शीर्ष तक पहुंच रही है. मोदी और अमित शाह नीतीश कुमार की इस कमजोरी को बखूबी जानते हैं और उन्होंने उनकी कमजोर नस दबा रखी है. नीतीश कुमार की जान संजीव हंस जैसे भ्रष्ट नौकरशाहों की गिरफ्त में है और संजीव हंस इडी-सीबीआई के जरिए भाजपा की गिरफ्त में. सत्ता में बने रहने की उनकी भूख व संस्थाबद्ध भ्रष्टाचार अंततः उन्हें भाजपा के सामने घुटने टेकने को विवश कर रही है.
विशेष राज्य पर भाजपा का विश्वासघात और जद(यू) का आत्मसर्मपण ऐसे वक्त में सामने आया है जब 2023 में कराए गए सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण ने बिहार के ऐतिहासिक पिछड़ेपन, अविकास, भारी निर्धनता, पलायन, सर्वाधिक न्यूनतम प्रति व्यक्ति आय आदि सच्चाई को एक बार फिर से सतह पर ला दिया था जिसे भाजपा-जदयू की सरकार विगत 19 वर्षों से (कुछ महीनों को छोड़कर) विकास के कानफाड़ू शोर और 10 फीसद से ऊपर विकास दर हासिल कर लेने के बड़बोले दावे व आंकड़ेबाजी के जरिए ढक देने की कोशिश कर रही थी. उससे भी आगे यह कि भाजपा-जदयू शासन के इन वर्षों में नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार बिहार सतत विकास के संकेतकों में पिछड़ते-पिछड़ते आज देश के सबसे निचले पायदान पर पहुंच गया है. सनद रहे कि ये दोनों रिपोर्टें सरकारी हैं. यानी सरकार ने खुद स्वीकार कर लिया है कि विगत 19 वर्षों से जारी उनका शासनकाल पुल-पुलिया-सड़कों के विकास और सुशासन के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद बिहार को और पीछे ले गया है, पिछड़ापन और गहरा हुआ है तथा अर्थतंत्रा पहले से कहीं अधिक संकटग्रस्त हुआ है. फिर भी, भाजपा-जद(यू) ने विशेष राज्य के सवाल से किनारा कर लिया.
पहले से ही सामंती जकड़न में कैद बिहार को नई आर्थिक नीतियों के बाद और भी ज्यादा आंचलिक विषमता का सामना करना पड़ा है. वह इसलिए कि पूंजीपतियों को सस्ते मानव श्रम के लिए बिहार जैसा एक जोन चाहिए था. भाजपा राज में तो पूंजीपरस्त नीतियां और भी ज्यादा सख्त हो रही हैं तथा पूंजी और भी ज्यादा केन्द्रित. ऐसे में कॉरपोरेटों के मित्रा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनका पूरा भाजपाई कुनबा उन्हीं नीतियों को प्रश्रय देगा जो श्रमिक पैदा करने वाले इस जोन में और भी सस्ता श्रम उपलब्ध करा सके. इसलिए भाजपा ने कभी भी बिहार के विकास को अपना एजेंडा नहीं बनाया, विशेष राज्य के दर्जे का समर्थन नहीं किया और आज वह पूरी निर्लज्जता के साथ इसके विरोध में खड़ी है. यह भी गौरतलब है कि 2015 में 14 वें वित्त आयोग की सिफारिशों के उपरांत पूर्वोत्तर व पहाड़ी राज्यों को छोड़कर स्पेशल स्टेटस का दर्जा देने का प्रावधान समाप्त कर दिया गया. कहा गया कि सभी राज्यों को विकास का समान अवसर दिया जाएगा, लेकिन प्रति व्यत्तिफ आय की जगह उपभोग को मानक सूचकांक में शामिल करने के दबाव में गरीब राज्यों को भारी नुकसान हो गया. बिहार को सर्वाधिक.
विशेष दर्जे से इंकार के बाद भाजपा ने ‘विशेष पैकेज’ का राग छेड़ा, लेकिन बजट 2024 में बिहार के लिए कुछ भी विशेष नहीं है. बिहार सरकार के हाथ में एक पैसा नहीं दिया गया. ऐसा पैकेज भला विशेष पैकेज कैसे हो सकता है? आप सभी को याद होगा कि 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले आरा में प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार के लिए 1 लाख 25 हजार करोड़ रु. के विशेष पैकेज की घोषणा की थी. वह पैसा बिहार को कभी नहीं मिला. भाजपा के प्रवक्ता राज्य में केंद्रीय योजनाओं के तहत बन रहे हाईवे और पुल-पुलियों में उस खर्च को जुड़वाते गए और कहा कि पैकेज दे दिया गया. ठीक वैसे ही इस बार के बजट में भी कहा जा रहा है कि बिहार के लिए कई बड़ी घोषणाएं की गई हैं, जिनमें सड़क परियोजनाओं के लिए 26,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. बाढ़ प्रबंधन के लिए भी 11,500 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता दी जाएगी. इसके अलावा 21, 400 करोड़ रुपये की लागत से पीरपैंती में 2400 मेगावाट उत्पादन क्षमता वाले पावर प्लांट को मंजूरी दी गई है. इस तरह से सिर्फ तीन परियोजनाओं में ही करीब 57.9 हजार करोड़ रुपये हो जाती है. कहा जा रहा है कि इसके अलावा भी अन्य योजनाओं के लिए बिहार को सहायता मिली है.
इन योजनाओं की हकीकत जानना जरूरी है. पीरपैंती में पावर प्लांट का प्रस्ताव 2014 का है जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेन्द्र मोदी नहीं बल्कि मनमोहन सिंह थे. फरवरी 2024 में बिहार सरकार ने (जब नीतीश कुमार एक बार फिर पलटी मारते हुए भाजपा के साथ हो लिए) यह प्रस्ताव दुबारा केंद्र के पास भेजा. यानी मोदी शासन के 10 वर्षों में पीरपैंती पावर प्लांट में इतनी ही प्रगति हो सकी. भाजपा व जद(यू) इसी का ढोल पीट रही हैं. सवाल तो यह होना चाहिए कि इन दस वर्षों में जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई कौन करेगा? उसी प्रकार नए हवाई अड्डे, खेलकूद की संरचना का विस्तार, मेडिकल कॉलेज आदि सभी योजनाएं पहले की ही योजनाएं हैं. पटना, गया, रक्सौल व पूर्णिया में हवाई हड्डे निर्माण की घोषणा उस वक्त की है जब आरा की सभा में नरेन्द्र मोदी पैकेज का ऐलान कर रहे थे. इन हवाई अड्डों के निर्माण की कोई प्रगति रिपोर्ट नहीं है. पूर्णिया हवाई अड्डा तकनीकी पेचीदगियों में उलझा हुआ है, लेकिन साल भर पहले अमित शाह ने झूठ बोलते हुए सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर दी कि पूर्णिया हवाई अड्डा चालू हो चुका है. रक्सौल में 9 साल बाद वहां के जिलाधिकारी ने बताया है कि हवाई अड्डा निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. 9 साल में यह अद्भुत विकास है! उसी प्रकार, मोदी व अमित शाह बारबार दरभंगा में एम्स निर्माण पर झूठ बोलते रहे और यह घोषणा कर दी कि एम्स का निर्माण हो चुका है. इस बार के बजट में वित्त मंत्री संभवतः जिस मेडिकल कॉलेज के निर्माण की बात कह रही थीं, वह दरभंगा एम्स के बारे में ही था. यह पैकेज है या फिर पुरानी योजनाओं की रीपैकेजिंग, जिसका इतना ढोल पीटा जा रहा है?
केंद्रीय बजट में बिहार में सड़क नेटवर्क को मजबूत करने की बात कही गई है और इसके लिए 26,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. कहा गया है कि इस राशि का उपयोग पटना-पूर्णिया एक्सप्रेस वे, बक्सर-भागलपुर एक्सप्रेस वे और बोधगया-राजगीर-वैशाली-दरभंगा एक्सप्रेस वे के निर्माण के लिए किया जाएगा. इसके अलावा, बक्सर में गंगा नदी पर एक नया दो लेन का पुल भी बनाया जाएगा. कुल मिलाकर बजट की यही उपलब्धि है. लेकिन सवाल यह उठता है कि एक्सप्रेस वे का निर्माण मोदी अपनी केंद्रीय योजनाओं और अपने कॉरपोरेट मित्रों के हितों को ध्यान में रखकर कर रहे हैं या बिहार की जरूरतों के हिसाब से. एक्सप्रेस वे निर्माण जैसे विकास मॉडल के केंद्र में कॉरपोरेट हैं. ये योजनाएं न तो बिहार में रोजगार के अवसरों को निर्मित करेंगी और न ही इससे बिहार के अर्थतंत्र को कोई मजबूती मिलेगी. यह आंखों में धूल झोकने वाला है.
क्यों चाहिए विशेष राज्य के साथ विशेष पैकेज
भाजपा यह बहाना बनाती है कि चूंकि विशेष राज्य का प्रावधान खत्म कर दिया गया है, इसलिए अब यह सवाल उठना ही नहीं चाहिए. 2012 से इसे अपनी राजनीति का केंद्रीय मुद्दा बनाने वाले नीतीश कुमार कहते हैं कि प्रावधान ही खत्म हो गया है तो अब यह बात कहां रह जाती है! और इस तरह भाजपा-जदयू की ओर से इस मामले का पटाक्षेप हो चुका है.
लेकिन, जैसा कि पहले कहा गया कि विकास सूचकांक के तमाम संकेतकों के सबसे निम्न स्तर पर खड़े बिहार की अब कोई भी अनदेखी राज्य को रसातल में पहुंचा देगा. ऐतिहासिक रूप से पिछड़े बिहार की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है. इसलिए बिहार निश्चित रूप से केंद्र से विशेष सलूक का हक रखता है. चरम आंचलिक विषमता को खत्म करने के लिए सुधारात्मक व सकारात्मक कार्रवाइयों को अपनाए जाने की जरूरत है, जिसे भाजपा-जदयू करने नहीं जा रहे. बिहार में विकास की दर सामान्यतः निर्माण, यातायात, संचार, होटल, रेस्तरां, रियल एस्टेट, वित्तीय सेवाओं आदि में रही हैं जहां रोजगार बढ़ने की संभावना अपेक्षाकृत बेहद कम होती है. हेती, उद्योग और जीविका के अन्य असंगठित क्षेत्रों में, जिन पर अधिक लोग निर्भर हैं, विकास की दर लगातार नीचे जा रही है. नतीजतन राज्य से पलायन बदस्तूर जारी है. ऐसे में बिहार को जिस चीज की सबसे सख्त जरूरत है वह है कृषि व उद्योग, अधिसंरचना और मानव विकास के सूचकांक में उत्पादक व रोजागर पैदा करने की समग्र योजना का निर्माण, सार्वजनिक क्षेत्र में पर्याप्त वित्तीय निवेश और घरेलू पूंजी के निर्माण पर जोर.
निसंदेह, बिहार के चिरस्थायी पिछड़ेपन के दुष्चक्र को भीतर के आवेग से ही तोड़ा जा सकता है, जो व्यापक आंतरिक संसाधनों को जन्म देने से पैदा होगा. लेकिन साथ में यह भी जरूरी है कि केंद्र बिहार के पिछड़ेपन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर इस प्रदेश को वरीयता प्रदान करे. तथाकथित डबल इंजन की सरकार दोनों मोर्चे पर विश्वासघाती साबित हुई है. बिहार के आंतरिक विकास का सवाल और पीछे छूट गया है, वहीं अब विशेष राज्य के दर्जे और विशेष पैकेज से भाजपा का इंकार बिहार को और भी ज्यादा मुश्किल में डालेगा. यदि राज्य को विशेष राज्य का दर्जा मिलता तो निश्चित रूप से घरेलू पूंजी निर्माण को बढ़ावा मिलता और राज्य के अंदर रोजगार के नए अवसर पैदा होते. लेकिन नीतीश कुमार तो केंद्र पर इतना भी दबाव नहीं बना सके कि वे सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के उपरांत पाए गए 95 लाख महागरीब परिवारों के लिए घोषित सहायता राशि की ही मांग कर लेते ताकि सभी जरूरतमंद परिवारों को एकमुश्त राशि उपलब्ध हो जाती.
जाहिर सी बात है कि भाजपा व जद(यू) बिहार के ऐतिहासिक पिछड़ेपन को बना कर रखना चाहते हैं. यह कॉरपोरेट पूंजी की जरूरत भी है. लेकिन बिहार की 14 करोड़ जनता के साथ धोखा है. बिहार को ऐसे वैकल्पिक मॉडल की जरूरत है जो उसके आंतरिक संसाधनों से जनपक्षीय विकास को गति दे सके. साथ ही केंद्र पर विशेष राज्य के साथ विशेष पैकेज का दबाव लगातार बनाए रखना होगा. विकास को बिहार के राजनीतिक एजेंडा के केंद्र में लाना होगा. नए तरीकों व नए कदमों को नए संदर्भों में पारिभाषित करना होगा. विगत 19 वर्षों से जारी नीतीश कुमार की जुगाली में विकास की समूची सरकारी योजना में कुछ ऐसा हुआ है जो बहुत ही सड़ा हुआ और अश्लील है. जरूरत है बिहार के विकास के एजेंडे पर अब सभी वाम-लोकतांत्रिक और प्रगतिशील शक्तियां एकजुट होकर जनांदोलनों का नया आवेग खड़ा कर दे!