मोदी सरकार की तीसरी पारी के पहले पूर्ण बजट ने इस शासन के मध्यमवर्गीय समर्थन आधार के और भी बड़े हिस्से को काफी हद तक भ्रममुक्त और आक्रोशित कर दिया है. यहां तक कि गोदी मीडिया के ऐंकरों ने भी वित्त मंत्री के समक्ष असहज करने वाले प्रश्न उठाने शुरू कर दिये हैं. यह बजट ऐसे चुनाव के बाद आया है जिसमें आर्थिक संकट की लंबी छाया स्पष्ट दिख रही थी और शासक पर्टी ने अपना बहुमत खो दिया है. इसीलिए इस बजट से यह आशा नहीं थी कि वह देश में व्याप्त चिंताओं के प्रति खामोश रहेगा. लेकिन बजट में आसमान छूती कीमतों, खासकर खाद्य पदार्थों की बढ़ते मूल्यों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है, और रोजगार के ज्वलंत मुद्दे का निराकरण करने तथा बिहार के लिए विशेष पैकेज के बहु-प्रतीक्षित वादे को पूरा करने के मामले में बजट के दिखावे ने इस हुकूमत की चरम नाकाबिलियत और जनता की दुर्दशा के प्रति उसकी घोर उदासीनता को ही उजागर किया है.
बिहार में भाजपा ने जातीय जनगणना की मांग और राज्य में जातीय जनगणना के आंकड़ों के प्रकाशन के बाद आरक्षण की सीमा को 65% तक बढ़ाने से संबंधित बिहार विधान सभा द्वारा पारित प्रस्ताव का समर्थन किया था. लेकिन संसद के बजट सत्र के ठीक पहले पटना उच्च न्यायालय ने इस विस्तारित आरक्षण पर रोक लगा दी. इसीलिए बिहार से संबंधित सबसे जरूरी मामला तो यह था कि बिहार आरक्षण मुद्दे को संविधान की नौवीं अनुसूचि में ले जाया जाए, ताकि उसे न्यायिक परिधि के बाहर लाया जा सके. बिहार की दूसरी लोकप्रिय मांग यह थी कि इसे विशेष राज्य का दर्जा दिया जाए ताकि बिहार को ऋण के अनुपात में अनुदान ज्यादा मिल सके. राज्य के मुख्य मंत्री बनने के बाद से नीतीश कुमार इस मांग को बार-बार उठाते भी रहे थे. लेकिन दिल्ली की एनडीए सरकार ने पटना की एनडीए सरकार की इस मांग को ठुकरा दिया और उसके बदले राज्य को एकमुश्त विशेष पैकेज थमा दिया. अब इस मामले में भी बजट ने अगस्त 2015 के मोदी के उस चर्चित वादे का मखौल उड़ाया है जिसमें उन्होंने बिहार को 1.25 लाख करोड़ का विशेष पैकेज देने की घोषणा की थी – बजट में सिर्फ 58,900 करोड़ रुपये का पैकेज दिया गया है, और उसमें भी बिजली संयंत्र के लंबित प्रस्ताव, बाढ़ नियंत्रण उपायों और सड़क निर्माण परियोजनाओं को एक साथ मिला दिया गया है.
ऐसा लगा कि आर्थिक सर्वेक्षण और बजट, दोनों में रोजगार के मुद्दे पर ध्यान केंद्रित किया गया है. सर्वेक्षण में चिंता प्रकट की गई है कि भारत के आधे बेरोजगारों को वस्तुतः रोजगार मिल सकता है और इसीलिए उन्हें कुशल व प्रश्क्षित बनाये जाने की जरूरत है. इस प्रकार रोजगार सृजन के सवाल को चतुराई से कौशन उन्नयन व प्रशिक्षण का सवाल बना दिया गया. नौ वर्ष पूर्व मोदी सरकार ने ढोल बजाते हुए ‘स्किल इंडिया मिशन’ की शुरूआत की थी और उसके तहत 2022 तक लगभग 40 करोड़ नागरिकों को विभिन्न उद्योगों से संबंधित कौशल से प्रशिक्षित करने का लक्ष्य रखा गया था. अगर 2024 में भी सरकार भारत के युवाओं की रोजगारहीनता का रोना रो रही है, तो यह सार्वोपरि तो इस बात की स्वीकृति है कि ‘स्किल इंडिया मिशन’ नाकामयाब हो गया, और नये कार्यक्रमों की बात करने के पहले सरकार को अपनी इस नाकामयाबी की व्याख्या करनी होगी. आर्थिक सवेक्षण में यह भी उल्लेख किया गया है कि टैक्स कटोतियों से भारी लाभ बटोरने के बावजूद कॉरपोरेट सेक्टर रोजगार का सृजन नहीं कर रहा है. इसीलिए सरकार को कॉरपोरेट सेक्टर के इस प्रदर्शन के लिए उसका गिरेबान पकड़ने के साथ-साथ रोजगार सृजन के मामले में अगुवा भूमिका निभानी होगी. लेकिन बजट ने इस रास्ते पर चलने से इन्कार कर दिया है.
रोजगार सृजन के नाम पर बजट में एक बार फिर ऐसे समाधान की आशा की गई है जिसमें बाजार की अगुवा भूमिका होगी और सरकार की भूमिका यहीं तक सीमित रखी गई है कि वह ज्यादा लोगों को नियोजित करने के लिए निजी क्षेत्रा को प्रोत्साहन दे. पहली बार रोजगार पाने वाले कामगारों के लिए बजट में अतिरिक्त वेतन देने की पेशकश की गई है. इसके अलावा सभी क्षेत्रों में अतिरिक्त कामगारों के लिए नियोक्ताओं को भविष्य निधि में सहायता की घोषणा की गई है. बजट में आईटीआई को आधुनिक व विकसित बनाने तथा 500 शीर्ष कंपनियों में एक करोड़ युवाओं के लिए इंटर्नशिप की भी चर्चा की गई है. अगर 500 शीर्ष कंपनियां अगले पांच वर्षों के दौरान एक करोड़ लोगों को इंटर्नशिप मुहैया कराएंगी तो इसका मतलब यह हुआ कि हर कंपनी प्रति वर्ष औसतन 4000 प्रशिक्षुओं की भर्ती करेगी. बजट में वित्त मंत्री की इस बड़ी घोषणा के फौरन बाद मंत्रालय के अधिकारियों ने सारा सच उगल दिया – इंटर्नशिप मुहैया कराने के लिए कपनियों को बाध्य नहीं किया जाएगा, उन्हें सिर्फ ‘टहोका लगाया (कुहनी मारा)’ जाएगा. भारत की जो शीर्ष कंपनियां टैक्स चुराने और अपने सामाजिक दायित्वों से मुंह मोड़ने के आदी हो चुके हैं, उनपर ऐसे टहोकों का क्या असर पड़ेगा, यह सोचना मुश्किल नहीं है.
भारी कर्ज में फंसे किसान और बेरोजगार नौजवान 2024 के जनादेश के पीछे मुख्य सामाजिक शक्तियां रही हैं. बजट में इन दोनों शक्तियों के साथ एक बार फिर गद्दारी की गई है. किसान आन्दोलन को आश्वासन देने के बावजूद सरकार स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसा के अनुसार एमएसपी की कानूनी गारंटी देने की किसानों की चिर-लंबित मांग से अभी भी कतरा रही है. किसानों की जारी आत्महत्याओं के बावजूद कर्ज से राहत देने का प्रश्न भी अनुत्तरित है. नीति-पुननिर्धारण और दिशा-सुधार के बगैर आर्थिक संकट के कतिपय लक्षणों की आंशिक स्वीकृति से कुछ नहीं होने वाला है. क्रोनी पूंजीवाद से साफ तौर पर नाता तोड़े बगैर भारत के करोड़ों मेहनतकश अवाम को कोई आर्थिक न्याय नहीं दिलाया जा सकता है.