वर्ष - 33
अंक - 31
27-07-2024

बांग्लादेश में ऐतिहासिक छात्र उभार दिख रहा है. इस विक्षोभ को जन्म तो दिया उच्च न्यायालय के फैसले ने जिसके जरिये सरकारी नौकरियों में पुरानी कोटा प्रणाली फिर से बहाल की गई है, किंतु राज्य आतंक और गैर-न्यायिक हिंसा के जरिये आन्दोलन का दमन करने के सरकारी प्रयासों ने इस आन्दोलन को उग्र कर दिया और इसे दावानल की भांति बांग्लादेश के विश्वविद्यालय कैंपसों में तथा जिला मुख्यालयों में फैला दिया. यह साफ दिख रहा है कि इस आन्दोलन की लहर छात्र समुदाय और कोटा के मुद्दे से परे व्यापक जनता के बीच पहुंच रही है और लोकतंत्र तथा बदलाव की गहरी आकांक्षा को जन्म दे रही है.

बंगलादेश में सरकारी नौकरियों में 56% कोटा था – 1% विकलांग उम्मीदवरों के लिए, 5% नृ-जातीय अल्पसंख्यकों के लिए, 10% वहां के जिलों के लिए, 10% महिलाओं के लिए और 30% मुक्ति संग्राम सेनानियों के वंशजों के लिए. 2018 में इस कोटा ढांचे के खिलाफ, खासकर मुक्ति संग्राम सेनानियों के परिजनों के लिए 30% कोटा के खिलाफ एक लोकप्रिय आन्दोलन हुआ था जिसे व्यापक जनसमुदाय शासक अवामी लीग के हक में एक पक्षपातपूर्ण राजनीतिक विशेषाधिकार समझते थे. इस आन्दोलन के मद्देनजर शेख हसीना सरकार ने उस कोटा प्रणाली में भारी फेरबदल किया था – उसने विकलांग जनों के लिए 1% तथा नृ-जातीय अल्पसंख्यकों के उम्मीदवारों के लिए 5% कोटा को छोड़कर बाकी सभी कोटा रद्द कर दिया. उसके बाद कानूनी लड़ाई छिड़ गई और 5 जून को उच्च न्यायालय ने पुरानी प्रणाली को पुनर्बहाल करने का फैसला सुना दिया. छात्रों ने इसका प्रतिवाद करना आरंभ किया और सरकार ने भी उच्च न्यायलय के इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी.

सर्वोच्च न्यायालय ने अब अपना फैसला सुना दिया है. उसने उच्च न्यायालय के फैसले को अवैध घोषित कर दिया, और 2018-पूर्व के 56% कोटे में भारी कटौती करते हुए उसे सिर्फ 7% कर दिया तथा शेष 93% नौकरियों को सबके लिए खुला कर दिया. बहरहाल, हैरत की चीज तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चुना गया पैटर्न है. पहले जिलों के लिए और महिलाओं के लिए जो 10-10 प्रतिशत का कोटा था उसे हटा दिया गया है और इस प्रकार कोटा प्रणाली को आंचलिक विषमता एवं लैंगिक असंतुलन के मुद्दे से अलग कर दिया गया. नृ-जातीय अल्पसंख्यकों के लिए पूर्व में प्रदत्त 5% कोटा को घटाकर सिर्फ 1% पर ले आया गया है, जबकि कोटा फर्मूले के सबसे विवादित अंग – स्वतंत्रता सेनानियों के वारिसों के लिए कोटा – को बरकरार रखा गया है, अलबत्ता पूर्व के 30% से घटाकर उसे 5% कर दिया गया है.

अगर सरकार 2018-पूर्व की शक्ल में कोटा प्रणाली को नहीं जारी रखना चाहती थी तो उसने कोटा सुधार आन्दोलन के खिलाफ इतने बड़े पैमाने पर चौतरफा हिंसा क्यों बरपा कर दी? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फैसला सुनाये जाने के समय तक राज्य दमन और शासक पार्टी के राज्य-संरक्षित गुंडों व उसके छात्र-युवा संगठनों द्वारा की गई हिंसा में, खबरों के मुताबिक, कम-से-कम 133 छात्रों की मौत हो चुकी है और लगभग 3000 लोग घायल हैं. रंगपुर में बेगम रूकैया विश्वविद्यालय के 25-वर्षीय छात्र अबू सईद को पुलिस द्वारा गोली मार दिये जाने का विडियो वायरल हो गया है. इस दमन को जायज ठहराने के लिए हसीना सरकार ने प्रतिवादकारी छात्रों को ‘रजाकार’ घोषित कर दिया (वहां रजाकार ऐसे लोगों को कहा जाता है जिन्होंने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान पाकिस्तान का साथ दिया था, राष्ट्र-विरोधी के समान एक ऐसा ठप्पा, जैसा कि भारत में अपने विरोधियों के खिलाफ संघ ब्रिगेड अक्सरहां लगाया करता है).

भारत में कोटा-विरोधी विमर्श पर जातीय विशेषाधिकार का स्पष्ट कुलीनतंत्रीय रंग चढ़ा हुआ है. मेधा को सुविधासंपन्न समूहों की पारंपरिक सांस्कृतिक पूंजी और धनी लोगों के इस्तेमाल में लाई जाने वाली सामग्री के बतौर सामने लाया जाता है. बांग्लादेश में मौजूदा लोकप्रिय विक्षोभ कोटा प्रणाली के दुरुपयोग, भाई-भतीजावाद और शासक पार्टी द्वारा विशिष्ट राजनीतिक विरासत के रूप में मुक्ति युद्ध के पक्षपातपूर्ण इस्तेमाल के खिलाफ खड़ा प्रतीत होता है. वहां का प्रमुख विपक्ष अन्य किसी कोटा का नहीं, सिर्फ स्वतंत्रता सेनानियों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी के वंशजों के लिए कोटा का विरोधी है. और बात केवल कोटा की नहीं है, बांग्लादेश में छात्र इसी किस्म का भ्रष्टाचार शिक्षा, परीक्षा और भर्ती प्रणाली में भी झेल रहे हैं – ठीक उसी तरह, जैसे कि भारतीय छात्रों को घोटाला-ग्रस्त ‘नीट’ व यूपीएससी प्रणाली से जूझना पड़ रहा है. और भारत की तरह बंगलादेश में भी बेरोजगारी का आलम उतना ही भयावह है.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के फैसले को अवैध करार देने के बावजूद बंगलादेश की स्थिति अस्थिर बनी हुई है. वहां  कफ्रर्यू लगा दिया गया है और साथ ही, इंटरनेट सुविधा बंद कर दी गई है और सेना भी तैनात कर दिया गया है. वहां लोकतांत्रिक गुंजाईश के सिकुड़ते जाने और चुनावी प्रक्रियाओं की विश्वसनीयता में आई हालिया गिरावट के चलते आम लोगों का गुस्सा विस्फोटक स्वरूप ग्रहण कर चुका है. जनता के इस व्यापक उथल-पुथल में विभिन्न कट्टरपंथी धाराओं समेत कई किस्म की शक्तियां व प्रवृत्तियां जरूर मौजूद रहेंगी. ऐसा लगता है कि कोटा प्रणाली में सुधार से आगे बढ़कर मुख्य मांग शेख हसीना के इस्तीफे पर पहुंच गई है. भारत के छात्र और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतें निश्चय ही बांग्लादेश के प्रतिवादकारी छात्रों के साथ एकजुटता में खड़े हैं, राज्य-प्रायोजित हिंसा की भर्त्सना करते हैं और कामना करते हैं कि बंगलादेश मौजूदा संकट का कोई लोकतांत्रिक समाधान ढूंड लेगा.