वर्ष - 32
अंक - 24
10-06-2023

ओडिशा में भद्रक जिले का एक बूढ़ा आदमी एक स्कूल कैंपस में रखे सैकड़ों शवों के बीच घूम रहा है. एक एक करके वह उन शवों का चेहरा देखने के लिए उनपर ढंका कपड़ा उठाता है. वह किसे ढूंढ रहा है, पूछने पर वह रोता आदमी टूटी आवाज में कहता है, “मैं अपने बेटे को खोज रहा हूं जो कोरोमंडल एक्सप्रेस में था, लेकिन उसे नहीं देख पा रहा हूं.” उसकी कहानी उन सैकड़ों लागों की कहानियों जैसी है, जिनके परिजन या दोस्त 2 जून की शाम में ओडिशा के बालासोर (बालेश्वर) जिले में भयावह दुर्घटना की शिकार हुई दो रेलगाड़ियों में सवार थे. 3 जून की सुबह में ही भारत के लोगों को इस हादसे की गंभीरता और भयावहता का पता चल पाया जिसमें लगभग 300 मृतकों और 1000 घायलों की शिनाख्त हो पाई है. इन पहचाने गए मृतकों की विशाल संख्या के अलावा हमें यात्रियों की सूची और अनचीन्हे मृतकों के मामले को भी देखना होगा. गंभीर और अति-गंभीर घायलों की तादाद भी काफी ज्यादा है. तमाम संकेतों के मुताबिक बालासोर दुर्घटना भारत की एक बदतरीन दुर्घटना के बतौर याद रखी जाएगी जिसकी भयावहता और विनाश का पैमाना अभी और खुलना बाकी है.

बालासोर जैसे बड़े रेल हादसे पर भारत को क्या फौरी कदम उठाने चाहिए? तात्कालिक बचाव और पुनर्वास के अतिरिक्त इसकी जवाबदेही के निर्धारण और पीड़ितों को समुचित मुआवजे का प्रश्न सामने है. और बेशक, यह सुनिश्चित करने का हर संभव उपाय करना चाहिए कि ऐसा हादसा फिर कभी न हो सके.

इन पीड़ितों में अधिकांश पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार और झारखंड के प्रवासी मजदूर थे जो केरल और तमिलनाडु में रोजी-रोजगार खोजने जाते हैं. अपने परिजनों के लिए रोटी का इंतजाम करने वाले ऐसे लोगों की मौत उनके परिवारों को दुश्वारियों में धकेल देगी, और इस हादसे के असर से उबरने के लिए उन्हें लंबे समय की सरकारी आर्थिक सहायता की जरूरत होगी. लेकिन इन पीड़ितों के प्रति अपनी आर्थिक जिम्मेदारी निभाने के लिए राज्य को सर्वप्रथम तो अपनी जवाबदेही स्वीकार करनी पड़ेगी.

बहरहाल, मोदी सरकार के अंदर तो जवाबदेही की यह भावना कहीं है ही नहीं. इसके पीछे निहित ढांचागत कारकों को ठीक तरह से शिनाख्त कर उसे दुरुस्त करने के बजाय सरकार इस हादसे को तोड़फोड़ और साजिश की कार्रवाई बताने पर तुली हुई है. रेलवे सुरक्षा आयोग अपनी रिपोर्ट सौंपे, इसके पहले ही सरकार ने रेलवे बोर्ड के जरिये इस मामले की जांच करने का काम सीबीआई को सौंप दिया. कुछ वर्ष पूर्व दुर्घटना के दो मामले (कानपुर 2016 और कुनेरू 2017) एनआइए को सौंपे गए थे और रेल दुर्घटना से निपटने के लिए यूएपीए के काले प्रावधानों का इस्तेमाल किया गया. लेकिन साजिश के सिद्धांतों को संपुष्ट करने के लिए अबतक कुछ भी निकलकर सामने नहीं आ सका है.

सीबीआई और एनआइए को रेल दुर्घटनाओं की जांच करने के लिए कहने का साफ मतलब है कि मोदी सरकार रेलवे सुरक्षा के उपेक्षित, किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण एजेंडा से इन्कार करना जारी रखेगी. रेल सुरक्षा आयोग (सीआरएस), महालेखा परीक्षक (सीएजी) और अनेक रेलवे अध्किारियों ने रेलवे में सुरक्षा के विभिन्न मुद्दों को उठाया है, लकिन इन चेतावनियों को हमेशा नजरअंदाज कर दिया गया. रेलवे के बुनियादी ढांचे को फौरन समुन्नत करने की जरूरत है, लेकिन आधुनिकीकरण के कदम उठाने और सुरक्षा की गारंटी करने के बजाय सरकार उच्च गति वाली गाड़ियां चलाने के लिए उन्मत्त है. भारत की आजादी का 75वां सालगिरह मनाने के नाम पर मोदी सरकार ने 75 वंदे भारत ट्रेन शुरू करने की घोषणा की है, जो दरअसल प्रमुख शहरों को जोड़ने वाले शताब्दी एक्सप्रेस का ही नया संस्करण होंगे. हर ट्रेन को पीएम मोदी हरी झंडी दिखा रहे हैं; और रेलवे नई गाड़ियां देने में समर्थ नहीं है, इसीलिए सरकार कम डब्बों के साथ ही नई गाड़ियां शुरू कर रही है.

रेल कर्मियों की लगातार घटती संख्या के साथ रेल सुरक्षा, उचित रखरखाव और आधुनिकीकरण  की उपेक्षा की समस्या खतरनाक ढंग से विकराल होती जा रही है. रेलवे परंपरागत रूप से सरकार के लिए रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र बना रहा है. लेकिन पिछले कुछ समय से इस क्षेत्रा में रेल कर्मियों की तादाद में भारी गिरावट देखी जा रही है – 3 लाख पद खाली पड़े हुए हैं और पदों का उन्मूलन किया जा रहा है. इनमें से आधे रिक्त व उन्मूलित पद सीधेसीधी सुरक्षा को प्रभावित करते हैं. विपरीत प्रभाव साफ दिख रहा है: दिसंबर 2022 में सीएजी द्वारा संसद में पेश ऑडिट रिपोर्ट में पटरी से गाड़ियों के उतर जाने की घटना में भारी वृद्धि दिखाई गई थी, जिनमें हर चार में से तीन घटना पटरियों के रखरखाव व निरीक्षण के अभाव के चलते हुई थी.

अभी हाल ही में ‘कवच’ नाम से टकराव-निरोधी टेक्नोलाॅजी लागू किए जाने के बारे में धूम-धड़ाके से प्रचार किया गया है. लेकिन इस टेक्नोलाॅजी का इस्तेमाल लगभग 70 हजार किलोमीटर रेलवे ट्रैक के सिर्फ 2 प्रतिशत हिस्से के लिए ही हो रहा है, और बजटीय आबंटन व क्रियान्वयन के मौजूदा स्तर पर संपूर्ण ट्रैक के लिए इसके लागू होने में दसियों वर्ष लग जाएंगे. इस हादसे के मामले में, दुर्घटना-प्रभावित ट्रैक का संबंधित खंड ‘कवच’ द्वारा सुरक्षित नहीं था. बेशक सरकार हमें यह बताने में मशगूल है कि शायद ‘कवच’ भी इस खास दुर्घटना को नहीं रोक पाता, क्योंकि यह इलेक्ट्रोनिक इंटरलाॅकिंग सिग्नल प्रणाली की विफलता के चलते हुई थी. लेकिन तथ्य तो यह है कि इस मामले में भी खास चेतावनी पहले ही जारी की जा चुकी थी जिसे प्रशासन ने अनसुनी कर दी.

साउथ वेस्टर्न रेलवे के ऑपरेशन डिपार्टमेंट के एक वरिष्ठ अधिकारी ने फरवरी में सौंपी गई अपनी टिप्पणी में मैसूर डिविजन के बिरूर-चिकजजूर खंड में होसादुर्गा रोड स्टेशन पर एक संभावित सीधी टक्कर का जिक्र किया था, जो ड्राइवर की सावधानी और गाड़ी की कम गति के चलते टल गई. उस टिप्पणी में सिग्नल सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए फौरी उपाय करने की जरूरत पर जोर दिया गया था. अगर इस चेतावनी पर रेल प्रशासन ने ध्यान दिया होता तो शायद बालासोर ट्रेन हादसे को टाला जा सकता था.

सुरक्षा तंत्र को सुधरने और दुनिया की अब सबसे ज्यादा आबादी वाले देश की यात्रा आवश्यकताओं को पूरी करने वाले सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के बतौर रेलवे की अन्य बुनियादी चीजों को परिष्कृत करने के बजाय हम विपरीत दिशा में रेलवे का लगातार पुनर्गठन होता देख रहे हैं. मोदी सरकार ने जैसे ही सत्ता संभाली, उसने रेलवे के वार्षिक बजट में कटौती कर दी, जिसके चलते सुरक्षा प्रावधानों की कुछ नियमित सार्वजनिक जांच-परख का मौका खत्म हो गया. यह योजना आयोग को भंग कर उसे ‘नीति’ आयोग बना देने जैसा ही कदम था. वस्तुतः अब रेल विभाग के पास अपना कोई पूर्ण कैबिनेट मंत्री भी नहीं है; वर्तमान मंत्री अश्विनी विश्वनाथ तीन महत्वपूर्ण विभागों की जिम्म्मदारी से जूझ रहे हैं – रेलवे, इलेक्ट्राॅनिक्स एवं सूचना प्रौद्यिगिकी, तथा संचार विभाग.

निजीकरण और मुनाफा ही अब अर्थतंत्र के संचालक मंत्र गन गए हैं, जबकि जनता और सार्वजनिक सेवा को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया है. भारतीय जनता के लिए सुरक्षित, सुलभ और जन-हितैषी परिवहन के रूप में रेलवे को अब समृद्ध लोगों के आराम की परिवहन प्रणाली बनाकर बेचा जा रहा है. इस गति को उलटना होगा और रेलवे को फिर से आम जनता के हितों के अनुकूल बनाना होगा. रिक्त पदों को शीघ्रताशीघ्र भरा जाना चाहिए और सुरक्षा को सर्वोपरि महत्व देना होगा.

बुनियादी मुद्दों को हल करने और बुनियादी सबक लेने के बजाय सरकार अपनी प्रचार मुहिम और राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिये इस हादसे का इस्तेमाल कर रही है. जनता की दुर्दशा पर गौर करने और सरकार को जवाबदेह ठहराने के बजाय मीडिया का इस्तेमाल रेल मंत्री की छवि बचाने और चमकाने के लिए किया जा रहा है. और सोशल मीडिया को आईटी सेल की झूठों तथा नफरती विमर्शों से भरा जा रहा है और इसमें भाजपा के दुश्मनों, चाहे वह मुस्लिम समुदाय हो या फिर राजनीतिक विपक्ष, पर निशाना साधा जा रहा है. किसी भयावह हादसे के इस किस्म के शर्मनाक व सनकी इस्तेमाल को अवश्य धूल चटाना होगा. सत्ता में बैठे लोगों को ही इसका जवाबदेह ठहराना होगा और जनता को आश्वस्त करना होगा कि बालासोर जैसी दुर्घटना फिर कभी दुहराई नहीं जाएगी.