वर्ष - 32
अंक - 21
20-05-2023
काॅलेज और सड़क

श्रीकाकुलम और अन्य इलाकों में जब किसान विद्रोह उफान पर था, तभी समर सेन द्वारा संपादित ‘फ्रंटयर’ के जनवरी 1971 अंक में ‘जुल्म और संस्कृति पर’ (ऑन टार्चर एंड कल्चर) शीर्षक से एक लेख छपा था, जिसे बाद में इसके बंगाली  संस्करण ‘सीमांत’ में ‘निपिरन ओ संस्कृति’ शीर्षक से फिर छापा गया. इस लेख में नक्सलियों और आम लोगों पर राज्य के दमन का विस्तृत विश्लेषण करते हुए जन-प्रतिरोध को जायज ठहराया  गया था.

इस लेख में जुनून, पैना विश्लेषण और गहरी विद्वत्ता का अमल था. निश्चित तौर पर इसके लेखक रणजीत गुहा थे, जो अधिकांश पाठकों के लिए अनभिज्ञ थे. कई लोगों ने सोचा कि यह किसी प्रमुख नक्सली नेता का छद्म नाम है. उन दिनों गुहा शैक्षणिक हलकों में भी उतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे. छात्र जीवन से ही वे साम्यवादी राजनीति से जुड़े रहे. उन्होंने इतिहास में एमए की डिग्री लेने के बाद अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कैडर के रूप में काम करना पसंद किया. इस दौर में गुहा ने गाँव-गाँव घूमते हुए जमींदारी व्यवस्था से उत्पन्न भूमि संबंधों का स्वरूप, जमींदारी शोषण के खिलाफ किसान प्रतिरोध का दायरा व गहराई और किसानों को संगठित करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के प्रयासों को समझा. उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पार्टी कार्य से यूरोप का दौरा किया और 1947 से 1953 के बीच वहां रहते हुए युद्ध के बाद के समाजवादी लहर के उभार के प्रत्यक्षदर्शी रहे. उन्हें 1949 में क्रांति के बाद का चीन देखने का अवसर भी मिला.

उन्होंने भारत लौटने के बाद विद्यासागर काॅलेज, चंदननगर काॅलेज और नव स्थापित जादवपुर विश्वविद्यालय में 1959 तक पढ़ाया. उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ के लिए नियमित रूप से लिखना जारी रखा.  हालांकि, जब स्टालिन की मृत्यु के तीन साल बाद 1956 में सोवियत रूस ने हंगरी पर आक्रमण किया, तो गुहा उन कई बुद्धिजीवियों में से एक थे, जो अपने-अपने देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों से अलहदा हो गए थे. 1959 में, वह 1959 में ससेक्स विश्वविद्यालय (यूके) के लिए रवाना हो गए.

नक्सलबाड़ी के मद्देनजर

किसान जिस भूमि व्यवस्था के खिलाफ थे, उसी विषय पर गुहा की डाॅक्टरेट थीसिस पर आधारित खास लेख ‘ए रूल ऑफ प्राॅपर्टी फाॅर बंगाल: एन एसे अपाॅन द आइडिया ऑफ द परमानेंट सेटलमेंट’ 1963 में इंग्लैंड प्रकाशित हुआ. इस लेख में स्थायी बंदोबस्त की वैचारिक पृष्ठभूमि और एक जाहिर विरोधाभास की व्याख्या की गयी कि जब यूरोप पूंजीवाद की ओर बढ़ चुका था, तभी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने बंगाल में सामंतवाद को पैदा कर दिया था.

बंगाल के स्थायी बंदोबस्त (1793) की ओर मुख़ातिब होते हुए गुहा ने ठीक ही गौर किया कि जब यूरोप में सामंती व्यवस्था को खत्म करने में फिजियोक्रेटिक (18वीं सदी फ्रांसीसी अर्थशास्त्रियों का समूह जो भूमि को सब धन का स्रोत मानता था) सिद्धांत ने एक प्रमुख आर्थिक साधन के बतौर भूमिका निभाई, वही इसने बंगाल में जमींदारी व्यवस्था नामक नव-सामंती भीमकाय दानव को पैदा कर दिया. 18वीं सदी की उन बहसों में घुसते हुए गुहा ने उजागर किया कि कैसे यह हकीकत में अर्ध-सामंती समाज पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के ऐतिहासिक तर्क की अपरिहार्य परिणीति थी.

नक्सलबाडी ने भारतीय संदर्भ में गुहा की सामंतवाद और उपनिवेशवाद की समझ को और परिष्कृत किया. गुहा 1972 में दिल्ली विश्वविद्यालय में दो साल की विजिटिंग प्रोफेसरशिप पर भारत लौट आए. उन दिनों विश्वविद्यालय परिसर में किसान विद्रोह के असर का माहौल व्याप्त था. गुहा ने खुद ही स्वीकार किया था कि नक्सलियों और युवा छात्रों के साथ हुई बातचीत ने उन्हें बेहद प्रभावित किया था.

गुहा अपने शुरुआती दिनों में भाकपा(माले) के साथ घनिष्ठता के लिए जाने जाते थे. एक हद तक इसकी वजह  विद्यासागर काॅलेज में अध्यापन के समय उनका सुनीति कुमार घोष के साथ जुड़ाव होना था. घोष उस समय सीपीआई(एमएल) की सेंट्रल कमिटी के सदस्य और ‘लिबरेशन’ के संपादक थे. जिन भूमि संबंधों का गुहा ने अपने डाॅक्टरेट थीसिस में इतनी बारीकी से अध्ययन किया था, उसके खिलाफ सशस्त्रा किसान संघर्ष के फूट पड़ने के गवाह रहे और गहरे तक प्रभावित हुए. वैचारिक धरातल पर भाकपा(माले) ने किसान विद्रोहों को राजसत्ता दखल और भारत की अर्ध-सामंती, अर्ध-औपनिवेशिक संस्कृति को उखाड़ फेंकने की राजनीतिक परियोजना से सफलतापूर्वक जोड़ दिया था. यह हकीकत में दूसरा स्वतंत्रता संग्राम था. इसने राजनीतिक और सैन्य हार का सामना किया लेकिन देश पर एक शक्तिशाली वैचारिक और सांस्कृतिक छाप छोड़ी. गुहा ने अपने लेख ‘ग्राम्सी इन इंडिया: होमेज टू ए टीचर’ में लिखा है –

‘1970 के दशक का विद्रोह युवाओं के लिए उम्र का सबब जैसा था जिसकी पुकार की अनदेखी नही की जा सकती थी, पर इसमें आम सूझ-बूझ की बजाय कुछ खास तरह की ज्यादतियां भी थी – जैसे कि 19वीं सदी के महान विद्वान और समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर की कलकत्ता पार्क में स्थापित प्रतिमा के सिर को कलम कर देना. इन हरकतों से विद्रोहियों को कोई दोस्त नहीं मिला. निंदनीय ही सही, पर इस तरह की मनमानी हरकतों ने एक तरह से परंपराओं को चुनौती दी. जिन बौद्धिक परंपराओं को चुनौती दी गयी थी, उनमें तथाकथित बंगाल पुनर्जागरण और औपनिवेशिक शासन के सामना के दौरान भारतीय राष्ट्रवाद के महिमामंडित आदर्श भी शामिल थे.’

गुहा का लेख ‘इंडियन डेमोक्रेसी: लांग डेड, नाउ बरीड’ जनवरी 1976 में ‘जर्नल ऑफ कंटेम्पररी एशिया’ में प्रकाशित हुआ था. इस लेख में ‘अंतर्राष्ट्रीय उदारवाद’ द्वारा गढ़े गए ऐतिहासिक मिथक कि भारतीय लोकतंत्र के साथ सब कुछ ठीक था, जब तक कि 26 जून 1975 को एक अधिनायकवादी व्यक्तित्व ने इसको तहस-नहस न कर दिया, को खारिज करते हुए लिखा कि हकीकत में अपनी पैदाइशी दौर से ही भारतीय लोकतंत्र के साथ कुछ भी ठीक नहीं रहा है और मौजूदा आपातकाल महज भारतीय गणतंत्र की  पैदाइशी दौर से जुड़ी परिस्थितियों की एक निर्णायक कड़ी है ... इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाना पड़ा क्योंकि गहराते संकट पर शासक वर्ग की पकड़ ढीली पड़ रही थी और कानून के शासन का मुखौटा बचा पाना भी मुश्किल था. इंदिरा गांधी का यह कदम संदेह से परे चारु मजूमदार द्वारा भारतीय संसद को वर्ग प्रभुत्व के एक घृणित उपकरण के रूप में वर्णित करने की सच्चाई को स्थापित करता है.

निम्नवर्गीय प्रसंग (सबाल्टर्न स्टडीज)

नक्सलबाड़ी आंदोलन ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास-लेखन पर गुहा के विचारों को निर्णायक रूप देने में मदद की. उन्होंने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की तर्ज पर एलान करते हुए निम्नवर्गीय प्रसंग (सबाल्टर्न स्टडीज) के पहले खण्ड की भूमिका में लिखा कि अभी तक का इतिहास राजा-महाराजाओं, वायसराय या बड़े राष्ट्रीय नेताओं पर केंद्रित रहा है, जबकि जरूरत निम्न वर्गों के नजरिये से इतिहास को लिखने की है. इस विचार की बुनियाद पर उन्होंने और उनके सहयोगियों ने ‘निम्नवर्गीय प्रसंग’ (सबाल्टर्न स्टडीज) के नाम से इतिहास और मानवशास्त्रीय अध्ययन की एक नई पद्धति का मार्ग प्रशस्त किया जिसने इतिहास-लेखन में आमूलचूल परिवर्तन कर डाला.

‘सबाल्टर्न’ शब्द इतालवी मार्क्सवादी एंटोनियो ग्राम्शी से लिया गया था. मुसोलिनी के फासीवादी राज्य के खिलाफ संघर्ष करते हुए ग्राम्शी ने इसका प्रयोग निम्नवर्गीय समूहों के लिए किया था, जिनकी आवाज और कार्य शासक समूहों के प्रभुत्व द्वारा खामोश कर दिए गए थे. गुहा ने इस शब्द का प्रयोग दो मुख्य बातों के लिए किया.

पहला यह था कि आधुनिक भारत का इतिहास-लेखन अभी तक अभिजात्यवाद – उपनिवेशवादी अभिजात्यवाद और बुर्जुआ राष्ट्रवादी अभिजात्यवाद से ग्रसित रहा है. दोनों किस्म के इतिहास-लेखन भारत में ब्रिटिश हुकूमत के वैचारिक विमर्श से प्रभावित थे और कई मामलों उनका नजरिया एक जैसा था. दोनों ने अतीत का वर्णन करते हुए नेताओं के कार्यों, राजनीतिक संगठन और उच्च-स्तरीय वार्ताओं और जोड़-तोड़ पर ध्यान केंद्रित किया था. इस इतिहास-लेखन की सबसे बड़ी खामी यह थी कि इनमें जनता का नजरिया पूरी तरह से गायब था. साथ ही, इनमें अभिजन वर्चस्व का प्रतिरोध भी अनिवार्य रूप से शामिल था. इसके विपरीत, उन्होंने किसानों, आदिवासियों और श्रमिकों (बाद में महिलाओं, निचली जातियों और अन्य समूहों तक विस्तारित) ने क्या किया और क्या सोचा, इस पर शोध करने का आह्वान किया.

दूसरी खास बात उनका यह कहना था कि राष्ट्र एकात्मक नहीं था, बल्कि सत्ता तक असमान पहुंच वाले कई सामाजिक हिस्सों से बना था. राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने केवल ब्रिटिश औपनिवेशिक उत्पीड़न पर ध्यान केंद्रित किया था. सबाल्टर्न इतिहासकारों का काम यह भी दिखाना था कि कैसे जमींदारों, सूदखोरों, पूंजीपतियों और पितृसत्तात्मक मूल्यों वाले लोगों ने औपनिवेशिक सत्ता के साथ मिलकर गरीबों और हाशिए पर दमन किया और किस तरह से गरीबों और हाशिये के समुदायों के जन आंदोलनों की अपनी स्वयत्तता भी थी. इनमें से कई पहलुओं को गुहा ने अपने मौलिक आलेख ‘एलीमेंट्री आस्पेक्ट्स ऑफ पीजेंट इंसरजेंसी इन कोलोनियल इंडिया’ (1983) और संबंधित निबंधों में मुखर किया था. गुहा ने अभिलेखों को पढ़ने में खास सफलता हासिल की. समस्या यह है कि सबाल्टर्न की आवाजों को कैसे खोजा जा सकता है अगर ये पहले ही खामोश हो चुकी हों? गुहा ने विद्रोहों और आंदोलनों के समय मे सबाल्टर्न वर्ग की कार्रवाइयों और भाषणों को औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा रिकाॅर्ड करते समय प्रयोग किये गए विशेषणों को पढ़ने की एक विधि को रेखांकित किया. गुहा की पद्धति औपनिवेशिक विवरण के मूल्यांकन के उलट थी. जब प्रशासकों ने किसानों की कार्रवाई को ‘कट्टरपंथी’ बताया, तो इतिहासकार को इस कृत्य को धार्मिक विश्वासों के जरिये प्रेरणा के बतौर फिर से परिभाषित करना पड़ा. सबाल्टर्न अध्ययन इस प्रकार से ऐतिहासिक रूप से एक ही समय में इतिहास लेखन और इसके तरीके में एक कारगर हस्तक्षेप था.

न खत्म होने वाली विरासत और अपूर्ण संभावनाएं

सबाल्टर्न स्टडीज ग्रुप ने 1980-81 की शुरुआत से नियमित वर्कशाॅप आयोजित करते हुए इसके 12 खण्ड  प्रकाशित किए, जिनमें से पहले आठ का संपादन स्वयं गुहा ने किया था. इसने साहित्यिक और सांस्कृतिक सिद्धांत सहित मानवशास्त्रीय और कानूनी सिद्धांत जैसे विषयों पर विद्वानों की बड़ी फेहरिस्त तैयार कर दी. इसने ऐसी बहसों को छेड़ा जिसने कई विषयों को समृद्ध किया. इन बहसों का दायरा सबाल्टर्न-अभिजन के फर्क की  स्थिति के बारे में ‘सोशल साइंटिस्ट्र’ पत्रिका में की गई प्रारंभिक आपत्ति से लेकर गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक के निबंध ‘कैन द सबाल्टर्न स्पीक?’ में सबाल्टर्न की ज्ञानमीमांसीय अवस्थिति और अंततः सुमित सरकार द्वारा बाद के दौर में सबाल्टर्न स्टडीज के उत्तर औपनिवेशिक विमर्श और विश्लेषण की आलोचना तक शामिल है.

सबाल्टर्न स्टडीज ने दो दशकों की अवधि के दौरान भारतीय इतिहास लेखन को आमूलचूल बदल दिया और इसका अभूतपूर्व असर पूरी दुनिया पर पड़ा. गुहा के काम से प्रेरित लैटिन अमेरिका का सबाल्टर्न अध्ययन अपने आप में एक पथ-प्रवर्तक हस्तक्षेप था. इतिहास लेखन के मूलभूत प्रतिमानों को बदलकर सबाल्टर्न स्टडीज भारतीय ऐतिहासिक परंपराओं की जीवन शक्ति और इसके जीवन में गुहा के अपार योगदान का साक्षी है.

अपने करियर के बाद के दौर में गुहा इतिहास के अधिक वैचारिक अध्ययन की ओर बढ़े. उनकी ‘डोमीनेंस विदाउट हेजेमनी’ (1998), ‘वर्चस्व’ और ‘प्रतिरोध’ की श्रेणियों पर एक गहन चिंतन है. ‘हिस्ट्री एट द लिमिट्स ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री’ (2002) में उन्होंने आधुनिक इतिहास-लेखन की आलोचना करते कहा कि इसकी पैदाइश पश्चिमी औपनिवेशिक दलीलों में है. इस दौर में उन्होंने बंगला भाषा में भी विस्तार से लिखा. वह इतिहास से परे साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में गए. उदाहरण के लिए, उन्होंने राममोहन राय, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, रवींद्रनाथ टैगोर, जीवनानंद दास, समर सेन, शंख घोष, सुनील गंगोपाध्याय और अन्य  प्रभावशाली बंगाली बुद्धिजीवियों और कवियों पर लिखा.

हम रणजीत गुहा को काबिल-ए-जिक्र एक उम्दा विद्वान, महान विचारक, प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी और सबसे बढ़कर, लोगों की लोकतांत्रिक परंपराओं के इतिहासकार के बतौर याद रखेंगे. उनके काम ने इन परंपराओं को अकादमिक इतिहास-लेखन की मुख्यधारा में शामिल किया. इन्हीं परंपराओं को आज हिंदुत्ववादी ताकतें कांग्रेस से प्रेरित इतिहास को सही करने की आड़ में खात्मा करना चाहती हैं. आज भारतीय इतिहास और समाज पर फासीवादी हमले के बरक्स इन परंपराओं को ऊर्जान्वित करने और निरंतर फिर से लिखने की जरूरत है ताकि भारतीय आवाम के फासीवाद-विरोधी प्रतिरोध को जीत की ओर ले जाया जा सके. भारत के इतिहास के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर गुहा के काम के लिए यह सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी.

अमित बंद्योपाध्याय  
सौविक घोषाल 
आकाश भट्टाचार्य