कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे उनलोगों के लिए भी एक सुखद आश्चर्य के बतौर आए हैं जो भाजपा की हार की उम्मीद कर रहे थे. कर्नाटक जनादेश का असर कांग्रेस की भारी जीत, भाजपा की उतनी ही भारी पराजय और जिन परिस्थितियों में ये नतीजे आए, उसमें स्पष्ट दिखता है.
कार्नटक मोदी युग के ढिंढोरा पीटे गए ‘डबल इंजन’ वाले माॅडलों में से एक था. वर्षों तक यह राज्य भगवा ब्रिगेड के लिए एक माॅडल प्रयोगशाला और नफरत व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की फासिस्ट राजनीति के दक्षिणी मंच के बतौर संघ द्वारा निर्मित किया जा रहा था. भाजपा की चुनावी मुहिम सांप्रदायिक बमगोलों की बौछार बन गई थी और नरेंद्र मोदी अपने श्रोताओं को उत्साहित करने के लिए बारंबार बजरंग बली की रट लगा रहे थे. गोदी मीडिया के कई चैनल हमें यकीन दिला रहे थे कि बजरंगबली का जाप और मोदी के रोड शो चुनाव को निर्णायक तौर पर भाजपा के पक्ष में मोड़ देंगे और भाजपा फिर से सत्ता में आ जाएगी.
लेकिन, अधिकांश ‘ओपीनियन पोल’ और यहां तक कि ‘एक्जिट पोल’ भी पूरे चुनावी दौर में अलग ही कहानी कह रहे थे. बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार जनता के बीच सबसे अहम मुद्दे बने हुए थे. हर सर्वेक्षण में बोम्मई सरकार को उसके भ्रष्टाचार और ना-कारगरता के लिए चिन्हित किया जा रहा था. विकास के तमाम लंबे-चौड़े भाजपाई दावों के विपरीत, उन सर्वेक्षणों में गरीब व मेहनतकश अवाम का बढ़ता गुस्सा ही दिख रहा था. टिकट बंटवारे को लेकर भाजपा के अंदर व्यापक विद्रोह, उसके एक पूर्व मुख्यमंत्री व उप-मुख्यमंत्री समेत भाजपा के कुछ बहुचर्चित नेताओं का भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो जाना, और एक विक्षुब्ध भ्रष्ट मंत्री को मनाने के लिए मोदी द्वारा व्यक्तिगत रूप से फोन पर बात करना – इन सब चीजों ने यही अवधारणा मजबूत बनाई कि भाजपा एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही है.
नतीजे बताते हैं कि बंगलोर के सिवा, भाजपा को कर्नाटक के सभी क्षेत्रों में सीटों का नुकसान हुआ है. इस पार्टी के निरंतर सांप्रदायिक अभियान के बावजूद उसके वोट और सीट सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिहाज से सबसे संवेदनशील माने जाने वाले तटीय कर्नाटक इलाके में भी गिर गए. भाजपा का वोट शेयर जरूर कमोबेश 2018 के जितना ही रह गया – लगभग 36 प्रतिशत के आसपास – लेकिन गौर से देखें तो हम पाते हैं कि भाजपा के वोटों में तेज गिरावट आई है, यह अलग बात है कि बंगलोर और मैसूर अंचलों में उसके वोट बढ़ने से उसकी थोड़ी-बहुत भरपाई हो गई. इसके उलट, कांग्रेस की उपलब्धि इन तमाम अंचलों में और तमाम सामाजिक समूहों के बीच लगभग एक-समान रही और उसे एससी-एसटी-ओबीसी व अल्पसंख्यक वोटरों, महिला मतदाताओं और ग्रामीण व अर्ध-शहरी युवाओं का अच्छा-खासा समर्थन हासिल हुआ.
कर्नाटक में भाजपा की इस पराजय को उस राज्य में सरकार बदलते रहने के परंपरागत पैटर्न की पुष्टि के बतौर ही नहीं देखा जाना चाहिए. वस्तुतः, यह पार्टी अनेक राज्यों में इस पैटर्न को बदल देने का दावा करती रही है, जहां-जहां उसने सरकार में रहते फिर से सत्ता हासिल कर लेने की डींग हांकी है. हालांकि विधानसभा चुनावों के अपने राज्य-विशेष संदर्भ होते हैं, किंतु अति-केंद्रीकरण और व्यक्ति पूजा के मोदी युग में भाजपा के लिए हर चुनाव 2014 के बाद के मोदी युग के समर्थन में मतदान बन जाता है. कर्नाटक में तो यह बात और भी स्पष्टता से दिख रही थी, जहां भाजपा के राज्य नेतृत्व को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया और मोदी-शाह-नड्डा की तिकड़ी तथा योगी आदित्यनाथ अथवा हेमंत बिश्व शर्मा जैसे हिंदुत्व के कट्टर प्रतीक-पुरुषों ने पूरी चुनावी मुहिम की कमान थाम ली थी. इसीलिए, कर्नाटक जनादेश को 2024 की बड़ी लड़ाई के पूर्व के अखिल-भारतीय राजनीतिक संदर्भ से अलग हटाकर नहीं देखा जा सकता है.
देश जब विधानसभा चुनावों के महत्वपूर्ण अगले दौर के लिए और 2024 की निर्णायक लड़ाई के लिए तैयार हो रहा है, तो कर्नाटक चुनावों से क्या सबक लिए जा सकते हैं? तथाकथित ‘मोदी जादू’ और अमित शाह की चुनाव प्रबंध रणनीति के गिर्द बुनी गई भाजपाई चुनावी मशीनरी की अपराजेयता का मिथक, ‘लाभुकों’ की तथाकथित नई श्रेणी की निष्ठा और संघी ब्रिगेड की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की अमोघ रणनीति को कर्नाटक में मुंह की खानी पड़ी है. बेशक, इससे पक्के तौर पर यह नहीं कह दिया जा सकता है कि कर्नाटक जनादेश अन्य राज्यों में और एक साल बाद लोकसभा चुनावों में भी दुहराया ही जाएगा, लेकिन कर्नाटक का संदेश निश्चय ही संपूर्ण देश में प्रतिध्वनित होगा.
कांग्रेस ने कर्नाटक में बिल्कुल केंद्रित और ऊर्जा से भरपूर अभियान संचालित किया. इसकी तैयारी काफी पहले शुरू हो चुकी थी; ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने न केवल कांग्रेस संगठन को आवेग प्रदान किया, बल्कि उसने ऐसी व्यापक लोकप्रिय इच्छा-शक्ति भी पैदा की जिसे भाजपा की हाई वोल्टेज मुहिम से भटकाया अथवा निरुत्साहित नहीं किया जा सकता था.
इसके साथ ही, दो वर्ष पूर्व पश्चिम बंगाल में ‘भाजपा को वोट नहीं’ से काफी कुछ मिलते ढंग से कर्नाटक में भी ‘बहुत्व कर्नाटक’ (राज्य की सांस्कृतिक विविधता को बुलंद करने के लिए अभियान) और ‘एडुलु कर्नाटक’ (भाजपा और इसके सांप्रदायिक फासीवादी आक्रमण को परास्त करने का आह्वान करने के लिए जागरूकता अभियान) जैसे मंचों के जरिये प्रगतिशील शक्तियों और नागरिक समाज ने जोरदार मुहिम संचालित की थी जिसने भाजपा को चुनावी शिकस्त देने की मानसिकता को मजबूत बनाया. जन अभियान ने ओपीनियन पोल के अखाड़े में भी हस्तक्षेप किया और चुनाव में एक सबसे विश्वसनीय सर्वेक्षण को अंजाम दिया.
संघ ब्रिगेड को इस भारी पराजय से गहरा सदमा लगा है और वह आने वाले दिनों में अपना हमला और तेज कर देगा. लेकिन कर्नाटक के नतीजे ने हर लोकतंत्र-पसंद नागरिक को, न्याय के वास्ते हर आन्दोलन को और संविधान तथा संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद पर मंडराते खतरे की भवाहता के प्रति सजग राजनीतिक विपक्ष की हर धारा को प्रेरणा दी है. कर्नाटक ने मोदी व्यक्ति पूजा और हिंदुत्ववादी विमर्श की सीमाओं को उजागर कर दिया है. मोदी के ‘पीड़ित होने’ के दिखावा और बजरंगबली जाप को कर्नाटक में धूल चाटनी पड़ी है. लोकतांत्रिक विपक्ष को बिल्कुल डरना नहीं चाहिए और उसे जन कल्याण व जन अधिकारों के केंद्रीय महत्व के मुद्दों तथा विविधतामूलक समाज व आधुनिक लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में देश के भविष्य को लेकर और बड़ी एकता तथा और मजबूत दावेदारी की ओर आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना चाहिए. हम आशा करते हैं कि कर्नाटक में भाजपा की जोरदार शिकस्त भय, घृणा और विनाश के संघ-भाजपा राज के खात्मे की शुरूआत साबित होगी.