वर्ष - 31
अंक - 51
17-12-2022

गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनावों और दिल्ली में नगर निगम चुनाव के नतीजे आशानुरूप दिशा में ही आए हैं; अलबत्ता, गुजरात में भाजपा को जितने भारी पैमाने पर जीत मिली है वह निश्चय ही गहरी छानबीन का विषय है. इन तीनों चुनावों में भाजपा ही सत्तासीन पार्टी थी, और अब वह इनमें से दो में सत्ता खो चुकी है. इस लिहाज से भाजपा को ही नुकसान हुआ है, किंतु गुजरात में वोट शेयर (52 प्रतिशत से ज्यादा) और सीट शेयर (85 प्रतिशत से ज्यादा) दोनों लिहाज से भाजपा को मिली भारी जीत के तले उसका यह नुकसान दब-सा गया है. हमें यह भी गौर करना होगा कि हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में, जहां भाजपा पराजित हुई है, वह बहुत नजदीकी फासले से दूसरे स्थान पर रही है, कांग्रेस को गुजरात में अभूतपूर्व झटका लगा है, वहां उसकी सीट 77 से कम होकर महज 17 रह गई; लेकिन उसने बहुत कम अंतर से ही सही, हिमाचल प्रदेश में भाजपा से सत्ता छीन ली है. ‘आप’ की वास्तविक उपलब्धि दिल्ली के नगर निगम (एमसीडी) चुनावों में मिली उसकी जीत है, और साथ ही उसे अब राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता भी हासिल हो गई है.

भाजपा अभी हिमाचल प्रदेश और एमसीडी में अपनी पराजय की अहमियत को ढंकने-तोपने की कोशिश कर रही है, लेकिन यह सब लोग जानते हैं कि भाजपा ने ये दोनों चुनाव जीतने के लिये कोई कोर-कसर उठा नहीं रखी थी. दिल्ली में भाजपा नगर निगम में अपने 15 वर्षों के लंबे नकारा शासन के खिलाफ लोगों के बढ़ते आक्रोश से भलिभांति वाकिफ थी, और इसीलिये उसने एमसीडी पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिये लगातार कई तरह की तिकड़मों का सहारा लिया. 2014 में जब मोदी निजाम सत्ता में आया, तभी से वह दिल्ली राज्य को एक महिमामंडित नगरपालिका में बदल देने की कोशिश कर रही है, जो हमलावर केंद्र सरकार और समानांतर नगर निगम सत्ता के दो पाटों के बीच पिसती रहे. राज्य सरकार के बरखिलाफ निगम की शक्ति और हैसियत को ऊंचा उठाने की गरज से वहां पूर्व के तीन नगर निगमों को मिलाकर एक बड़ा नगर निगम बना दिया गया, और भाजपा की चुनावी संभावनाओं को बेहतर करने के मकसद से ही उसके वार्डों को पुनर्सीमांकन किया गया. इसके चुनाव कार्यक्रमों में भी पूरी तरह हेराफेरी की गई, और गुजरात चुनावों के साथ तालमेल बिठाते हुए काफी कम समय की सूचना के साथ निगम के चुनाव कार्यक्रम की तिथियां घोषित कर दी गईं.

भाजपा ने इन चुनावों में अपने समस्त वित्तीय संसाधन, प्रशासकीय शक्ति, जहरीली सांप्रदायिक बयानबाजियां और हंगामाखेज प्रचार, सब कुछ झोंक दिया था. हिमाचल और दिल्ली में भाजपा की पराजय को इसी पृष्ठभूमि में समझना होगा. हिमाचल प्रदेश में पार्टी के आंतरिक विक्षोभ और विद्रोही उम्मीदवारों की संख्या को देखते हुए मोदी ने खुलेआम चुनाव में अपने नाम पर वोट मांगा. फिर भी हिमाचल के आक्रोशित मतदाताओं ने भाजपा की बर्खास्तगी को सुनिश्चित बना डाला. हिमाचल भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और नफरतखोर बड़बोले मोदी मंत्री अनुराग ठाकुर का गृह प्रदेश है. हिमाचल के सेव उत्पादक बढ़ते सेव आयात और सेव पैकेजिंग पर जीएसटी के संयुक्त दबाव तले कराह रहे हैं; हर जगह पुरानी पेंशन योजना बहाल करने की सरकारी कर्मचारियों की बढ़ती मांग; और सेना में सुरक्षित भविष्य का मौका छीन लेने वाली ‘अग्निपथ’ योजना के खिलाफ नौजवानों का उबलता आक्रोश – ये वास्तविक मुद्दे मोदी की खोखली जुमलेबाजी पर भारी पड़े और भाजपा सत्ता से बेदखल हो गई.

लेकिन गुजरात के नतीजे हिमाचल और दिलली में दिखी चुनावी रूझानों के बिल्कुल विपरीत खड़े हो गए. हम इस पहेली की व्याख्या कैसे करें, जबकि भाजपा उस राज्य में लगातार 27 वर्षों से शासन कर रही है? मोदी के शासन काल में निश्चय ही गुजरात भाजपा का सबसे मजबूत गढ़ रहा है. यह न केवल संघ ब्रिगेड की सबसे बड़ी सांप्रदायिक प्रयोगशाला है, बल्कि यह अडानी-अंबानी का गृह प्रदेश भी है और चुनाव के ठीक पहले मोदी ने महाराष्ट्र की कीमत पर गुजरात में कुछ बड़ी निवेश परियोजनाओं की घोषणा भी कर डाली. 2017 के स्टार चुनाव प्रचारक हार्दिक पटेल समेत लगातार कई लोगों के दलबदल से कमजोर पड़ी कांग्रेस ने काफी मामूली सा अभियान चलाया. ‘आप’ ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया, और सूरत नगर निगम चुनाव में अपने उत्साहवर्धाक प्रदर्शन तथा इस वर्ष के शुरू में पंजाब में मिली अपनी भारी जीत के चलते उमंग से भर कर उसने भाजपा के निरंतर शासन को चुनौती देने वाली भविष्य की शक्ति के बतौर खुद को पेश करने का हर संभव प्रयास किया. खासकर गुजरात के आदिवासी इलाकों में ‘आप’ की परंपरागत कांग्रेस आधार की कीमत पर वोट मिले, और गैर-भाजपा वोटों में इस विभाजन से भाजपा को भरपूर फायदा मिला.

बहरहाल, गैर-भाजपा वोटों के विभाजन से ही उसके वोट में आई 5 प्रतिशत की वृद्धि की गुत्थी की व्याख्या नहीं हो सकती है. खासकर दूसरे चरण के मतदान के दौरान अंतिम घंटे में मतदान में आये उछाल का मुद्दा गंभीर संदेह पैदा करता है, और भारत के निर्वाचन आयोग को इस मुद्दे की अवश्य पड़ताल करनी चाहिये और तर्कसम्मत जवाब के साथ सामने आना चाहिये. खबर के मुताबिक, 5 दिसंबर को अंतिम एक घंटे में 16 लाख से ज्यादा वोट डाले गए, जिससे औसत मतदान में 6.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है. मतदान केंद्रों के बाहर लंबी कतारों का कोई भौतिक चिन्ह नहीं दिखाई पड़ा, किंतु ईवीएम के आंकड़ों में जो उछाल दिखाई पड़ा उससे यह जाहिर होता है कि हर 30 सेकंड में एक वोट की दर से तमदान हुआ है? निर्वाचन आयोग में हथपकड़ू नौकरशाह बिठाये जा रहे हैं जिसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की है कि इस संस्था की सत्यनिष्ठा और स्वायत्तता के लिए इसका काफी विपरीत तात्पर्य निकलेगा. साथ ही जिस तरह से चुनाव कराए जा रहे हैं उससे खुद चुनाव प्रक्रिया की ईमानदारी ही संदेह के घेरे में आ जाती है, और भारत की निर्वाचन प्रणाली की विश्वसनीयता लगातार जोखिम में घिरती जा रही है.

गुजरात से आने वाली खबरों से संकेत मिलते हैं कि ‘आप’ के विधायकों के बीच दलबदल को अंजाम देने के लिये भाजपा जी-तोड़ प्रयास चला रही है – उनमें से कई लोग पहले भाजपा के साथ जुड़े हुए भी थे. ‘आप’ अभी तक तो मुख्यतः कांग्रेस की कीमत पर बढ़ती रही है, किंतु अब वह एक राष्ट्रीय पार्टी के मतौर विकसित हो गई है; लिहाजा अब उसे तभी गंभीरतापूर्वक लिया जाएगा जब वह भाजपा के फासिस्ट हमले के खिलाफ अपनी ताकत और इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करेगी. कांग्रेस ने गुजरात में काफी कमजोर प्रदर्शन किया है, लेकिन काफी जद्दोजहद के बाद जिग्नेश मेवाणी को मिली जीत उन तमाम लोगों के लिए उत्साह जनक संकेत है जो संघ ब्रिगेड के सांप्रदायिक फासिस्ट आक्रमण के खिलाफ शक्तिशाली जन प्रतिरोध निर्मित करने के लिए डटे हुए हैं. अगले साल महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव के कार्यक्रम हैं. पूर्वोत्तर में त्रिपुरा से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक. 2024 लोकसभा चुनाव में मोदी निजाम को बेदखल करने से पहले भी भारत को उसे कई करारे प्रहार देने होंगे.