वर्ष - 31
अंक - 45
05-11-2022

जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के आसन्न चुनाव में मतदाताओं को लुभाने के लिये विशाल निवेश और बड़े विकास के सपनों का इन्द्रजाल फैला रहे हैं, तभी मोरबी में अंग्रेज के जमाने के एक सस्पेंसन पुल के ध्वंस में बहु-प्रचारित गुजरात मॉडल के कड़वे यथार्थ को बेनकाब कर दिया जिसमें कम-से-कम 134 लोगों की मौत हो गई है. मोरबी पुल के इस हादसे में जो बातें निकलकर सामने आ रही हैं, उससे बिल्कुल अक्षम और भ्रष्ट शासन की चिंताजनक प्रणाली के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं. मोरबी स्थित दीवार घड़ी बनानेवाली कंपनी ओरेवा इस सौ वर्ष पुराने सस्पेंसन पुल की मरम्मती व रखरखव का ठेका दिया गया था. यह ठेका 2037 तक के लिये वैध है और इसके जरिये उस कंपनी को पुल का इसतेमाल करने के लिये जनता से शुल्क लेने की इजाजत मिली हुई है? लेकिन ठेका देने के लिये किसी सार्वजनिक टेंडर की घोषणा नहीं की गई थी. इस कंपनी ने दावा किया था कि उसने कुछ ही महीने में 2 करोड़ रूपये खर्च करके इस पुल की मरम्मत करा दी थी और चुनाव के पहले जल्दबाजी में इस्तेमाल के लिए उसे खोल दिया जिससे यह दुखद हादसा हो गया. सरकारी बयानों में दावा किया जा रहा है कि जरूरत से ज्यादा लोगों के चढ़ जाने से वह पुल ध्वस्त हुआ है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि टिकट खरीदने के बाद ही उनलोगों को पुल पर जाने की इजाजत दी गई थी.

छह वर्ष पूर्व, जब कोलकाता में एक निर्माणाधीन फ्लाई-ओवर का एक खंड टूटकर गिरा था, तो नरेंद्र मोदी ने तुरंत ही इसे चुनावी मुद्दा बना लिया और कहा कि इस हादसे के जरिये ईश्वर ने पश्चिम बंगाल की जनता को संदेश दिया है कि वे टीएमसी के भ्रष्ट और नकारा शासन से पश्चिम बंगाल की रक्षा करें और भाजपा को सत्ता में ले आएं. क्या अब मोदी इस मोरबी पुल ध्वंस को भाजपा के भ्रष्ट क्रोनी शासन से गुजरात को बचाने के लिए दैवीय संदेश समझेंगे? गुजरात के अन्य अधिकांश व्यावसायिक समूहों की भांति यह ओरेवा ग्रुप भी मोदी-शाह युगल जोड़ी के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है; लेकिन पुल टूटने के बाद जो एफआइआर दायर किया गया है, उसमें इस कंपनी का कहीं कोई जिक्र नहीं है और संभावना तो यही है कि हताहतों को कुछ मुआवजा देकर तथा निचले स्तर के कुछ कर्मियों को दंडित करके इस मामले को रफा-दफा कर दिया जाएगा. प्रभुत्वशाली मीडिया ने तो इस पुल हादसे को पहले ही सार्वजनिक विमर्श से गायब कर दिया है.

मोदी के चुनाव अभियान में शामिल ‘विकास’ का स्वप्न हमेशा ही नफरत और झूठ के धागे से बंधा होता है. इस बार गुजरात में यह नफरती मुहिम सिर्फ मुस्लिमों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि ‘अरबन नक्सलों’ के खिलाफ भी निर्देशित है. एक बार फिर नर्मदा नदी परियोजना को गुजरात के लिये गौरव के प्रतीक और लाभ के प्रचुर स्रोत के बतौर उछाल कर मोदी ने विस्थापन के मुद्दे को सामने लाकर विकास को रोकने की कोशिश करने के लिये मेधा पाटेकर पर अरबन नक्सल होने का आरोप लगाया है. संसद के पटल पर बोले गए अपने ‘आंदोलनजीवी आक्षेप से आगे बढ़ते हुए मोदी ने अब गृह मंत्रियों की एक उत्तेजनापूर्ण बैठक में विडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये संबोधित करते हुए कलम चलाने वाले नक्सलों को उखाड़ फेंकने पर जोर दिया है. संविधान और बोलने की आजादी, न्याय व मानवाधिकार रक्षा, पर्यावरण संरक्षण, विस्थापितों और उजाड़े गए लोगों का पुनर्वासन – लोकतांत्रिक आन्दोलन के समूचे एजेंडा को ही अब अरबन नक्सलवाद के रूप में चिन्हित करके यूएपीए अथवा ऐसे ही अन्य दानवी काले कानूनों का इस्तेमाल कर उससे निपटने जरूरत बताई जा रही है.

विपक्ष को ऐसे शासन के प्रति कैसा जवाब देना चाहिए जो जनता की बुनियादी जरूरतों का समाधान करने तथा ‘कानून का राज’ के बुनियादी सिद्धान्तों को बुलंद करने के मामले में अपनी पूरी नाकामयाबी व गद्दारी को छिपाने के लिये ऐसे फासीवादी हमले संचालित कर रहा है? एक दशक पूर्व, यूपीए शासन की दूसरी पारी के अंतिम वर्षों में भ्रष्टाचार-विरोधी और बलात्कार-विरोधी लोकप्रिय संघर्षों की पृष्ठभूमि में दिल्ली में ‘आम आदमी पार्टी’ उभरी थी. अब दिल्ली के अलावा यह पार्टी पंजाब में भी सत्ता में आ गई है और खबरों के मुताबिक गुजरात में भी इसको अच्छा-खसा समर्थन मिल रहा है. जब विलकिस बानो और उसके परिजनों के बलात्कारियों व हत्यारों को देश की आजादी की 75वीं सालगिरह के मौके पर रिहा कर दिया गया और शूर-वीरों की तरह उनका स्वागत किया गया, तथा हरियाणा में तीन चरणों वाले पंचायत चुनावों की पूर्व-संध्या पर कुख्यात बलात्कार आरोपी राम रहीम को हरियाणा में 40 दिनों का पैरोल दे दिया गया हो, तो ऐसी स्थिति में ‘आप’ को क्या जवाब देना चाहिए?

अरविंद केजरीवाल अब इस सवाल का सर्वाधिक निर्णयात्मक उत्तर लेकर सामने आए हैं. वे कहते हैं कि मौजूदा आर्थिक संकट से देश को उबारने के लिये भारत को हिंदू देवी-देवताओं के आशीर्वाद पाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि भारत के रूपयों पर सुख-समृद्धि की देवी मानी-जानेवाली लक्ष्मी और बुद्ध के देवता विघ्नविनाशक गणेश की छवियां अंकित की जाएं. इस एक अनुशंसा के साथ केजरीवाल ने स्पष्ट कर दिया है कि भगत सिंह और अंबेडकर के प्रति अपनी जुबानी श्रद्धा दिखलाने के बावजूद वे भाजपा के खिलाफ अपनी लड़ाई में तार्किकता को अलविदा कहने तथा रूढ़िवाद को गले लगाने के लिये तैयार हो गए हैं. मोदी सरकार को उसके निकम्मेपन और विभाजनकारी व नफरती विचारधारा के लिये जवाबदेह ठहराने के बजाय वे बेतुके विचारों के खेल में और भारत के बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय हिंदुओं की धार्मिक आस्था को भावनात्मक रूप से सहलाने की प्रतिद्वंद्विता में नरेंद्र मोदी को पछाड़ने की कोशिश कर रहे हैं. इस राजनीतिक दिशा को प्रायः ‘नरम हिंदुत्व’ कहा जाता है और उसके व्यापक प्रभाव व स्वीकार्यता के नाम पर इसकी हिमायत की जाती है, तथा गांधी एवं उनके द्वारा भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान धार्मिक मुहावरों व उपमाओं का इस्तेमाल किये जाने का उदाहरण देकर इसे जायज ठहराया जाता है.

केजरीवाल ही एकमात्र राजनेता नहीं हैं जो इस राजनीति को अपनाने और इस पर अमल करने की कोशिश कर रहे हैं. केजरीवाल की भांति, राजीव गांधी ने भी एक साफ-सुथरी व आधुनिक छवि के साथ और विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में 21 वीं सदी के विकसित भारत की अग्रगामी भविष्य दृष्टि लेकर भारतीय राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी. 1984 में वे ऐसी सरकार के प्रधानमंत्री बने जिसके पास उस समय तक के भारत में सबसे बड़ा संसदीय बहुमत हासिल था, और भाजपा को लोकसभा में सिर्फ दो सीटें मिल पाई थीं. लेकिन अब तो उनको वास्तव में भाजपा का मनोबल बढ़ाने के लिये ही याद किया जाता है – पहले तो शाहबानो फैसले के मामले में अपनी नासमझी-भरे कदम के साथ, और फिर अयोध्या में अपनी संतुलनकारी कार्रवाई के चलते. आज भी कुछ कांग्रेसी नेता यह कहते फिरते हैं कि राजीव गांधी ही अयोध्या में राम मंदिर के असली निर्माता थे. हिंदुत्व के अखाड़े में नरेंद्र मोदी से होड़ करने और उन्हें पछाड़ने की केजरीवाल की कोशिशों का भी वैसा ही नतीजा निकलना निश्चित है.

यह महज धार्मिकता का इस्तेमाल नहीं है जिससे भाजपा की चुनावी सफलता की व्याख्या होती है, बल्कि नफरत भरा मुस्लिम विरोधी उन्माद भड़काने और इस बहुसंख्यकवाद को ही राष्ट्रवाद के बतौर स्थापित करने की भाजपा की क्षमता ने ही उसे यह सफलता दिलाइ है. इस नफरत और हमले का जवाब निर्णयात्मक सामाजिक व वैचारिक प्रतिकारी गोलबंदी में निहित है, इसके साथ प्रतियोगिता करके और इसमें भागीदारी करके इसे वैधता देने में नहीं. आर्थिक संकट के समाधान के लिये कागजी मुद्रा (नोटों) पर धार्मिक प्रतीकों की पैरवी करना, और वह भी आधुनिक भारत के दो महानतम स्वप्न-द्रष्टाओं की तस्वीरें पीछे की दीवारों पर लटका कर – इसे तो आधुनिक भारत के हितों के साथ केजरीवाल की गद्दारी के विशिष्ट क्षण के बतौर ही याद किया जाएगा.