वर्ष - 30
अंक - 16
17-04-2021

 

लगता है कि पश्चिम बंगाल में जो एक माह व्यापी चुनावी कार्यक्रम आजकल जारी है, उसमें केन्द्रीय सशस्त्र बलों, निर्वाचन आयोग और भाजपा के बीच चिंताजनक गठजोड़ उसकी मुख्य विशिष्टता बन गया है.

निर्वाचन आयोग द्वारा यह घोषणा की गई कि केन्द्रीय बलों को “आत्मरक्षा” में गोली चलाने का अधिकार रहेगा –  जाहिर है कि इस वक्तव्य ने केन्द्रीय बलों को हिंसा के लिये बढ़ावा देना ही था, और उन्हें ऐसी हिंसा के लिये बना-बनाया बहाना भी मुहैया करा दिया. इसका ही नतीजा था कि कूचबिहार जिले के शीतलकुची में सीआईएसएफ के जवानों ने गोली चलाकर चार प्रवासी मजदूरों की, जो अपना वोट डालने की खातिर पश्चिम बंगाल वापस लौटे थे, हत्या कर दी. सीआईएसएफ ने “आत्मरक्षा” का बहाना बनाया, और निर्वाचन आयोग सीआईएसएफ को हर आरोप से बचाने के लिये दौड़ पड़ा. इसी बीच कई भाजपा नेताओं ने पश्चिम बंगाल के मतदाताओं को “शीतलकुची जैसे और भी जनसंहार रचाने” की धमकी दे दी और गोलीकांड के शिकार लोगों को न्याय की हर मांग को साम्प्रदायिक रंग देते हुए उन पर “मुसलमानों के तुष्टीकरण” का ठप्पा लगा दिया.

जांच के लिये भेजे गये विशेष पुलिस अधिकारी ने गोलीकांड के स्थल का मुआयना किये बगैर और घायल लोगों एवं प्रत्यक्षदर्शियों से मुलाकात किये बिना ही निर्वाचन आयोग को अपनी रिपोर्ट भेज दी जिसमें उन्होंने सीआईएसएफ के दावों पर ही मुहर लगा दी. ढेर सारे सबूत ऐसे मिले हैं जो सीआईएसएफ के दावों को गलत साबित करते हैं. पत्रकारों द्वारा मौका-ए-वारदात से भेजी गई हर रिपोर्ट यही बताती है कि गोलीकांड में मारे गये या घायल हुए लोग कोई “बाहुबली” नहीं थे बल्कि अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने गये सामान्य नागरिक थे. ऐसा एक भी सबूत नहीं है कि मतदाताओं ने कोई उकसावा दिया हो जिससे सीआईएसएफ द्वारा घातक बल के इस्तेमाल को न्यायोचित ठहराया जा सके. फिर भी निर्वाचन आयोग ने अपनी वोट देने की बारी का इंतजार कर रहे चार मतदाताओं के प्रति, जिनकी हत्या कर दी गई, न्याय को सुनिश्चित करने के प्रति कोई चिंता नहीं दिखाई है.

निर्वाचन आयोग चुनाव की आचार संहिता के उल्लंघन के प्रति अपने रवैये में लगातार और स्पष्ट रूप से चुनिंदा पक्षधरता का प्रदर्शन कर रहा है. निर्वाचन आयोग ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा चुनाव प्रचार पर 24 घंटे के लिये पाबंदी लगा दी, महज इसलिये कि उन्होंने महिलाओं को यह सुनिश्चित करने को कहा था कि केन्द्रीय बल उन्हें मतदान करने से न रोक पायें. लेकिन उसी निर्वाचन आयोग ने भाजपा नेताओं द्वारा दिये जा रहे बेलगाम नफरतभरे भाषणों का बिल्कुल भी संज्ञान नहीं लिया है. निर्वाचन आयोग ने भाजपा नेता राहुल सिन्हा पर, जिन्होंने टिप्पणी की थी कि केन्द्रीय बलों को शीतलकुची में चार के बजाय आठ लोगों को मार गिराना चाहिए था, 48 घंटे तक प्रचार करने पर पाबंदी लगाई है. मगर भाजपा नेता दिलीप घोष और सायंतन बसु के खिलाफ निर्वाचन आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की, जिन्होंने शीतलकुची जनसंहार पर खुशी जाहिर करते हुए धमकी दी है कि इसी किस्म के और भी जनसंहार किये जायेंगे. जब केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर यह दोषारोप किया कि शीतलकुची गोलीकांड में मारे गये चार लोगों के प्रति उनका शोक प्रकट करना “मुसलमानों के तुष्टीकरण” का एक उदाहरण है, तब निर्वाचन आयोग ने उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया.

निर्वाचन आयोग ने नंदीग्राम से भाजपा के उम्मीदवार शुभेन्दु अधिकारी को भी बस एक हल्की “चेतावनी” देकर छोड़ दिया, जिन्होंने अपने भाषणों में अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ नफरतभरा जहर उगला था. निर्वाचन आयोग यहां समुदायों के बीच नफरत भड़काने वाले प्रचार से सम्बंधित जन-प्रतिनिधित्व कानून और आदर्श आचार संहिता में वर्णित धाराओं का इस्तेमाल करने में भी नाकाम रहा.

पश्चिम बंगाल में लोकतांत्रिक शक्तियों को न सिर्फ भाजपा का मुकाबला करना पड़ रहा है, बल्कि उनको केन्द्रीय बलों एवं निर्वाचन आयोग के पक्षपातपूर्ण रवैये का भी मुकाबला करना पड़ रहा है. निर्वाचन आयोग का आचरण –  मतदाताओं की सुरक्षा के प्रति चिंता का अभाव, और भाजपा नेताओं द्वारा दिये नफरतभरे भाषणों एवं धमकियों को अनदेखा करने या जायज ठहराने की तत्परता, इसके साथ ही जोड़ लीजिये ईवीएम के बारे में उसका संदिग्ध रिकार्ड –  लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिये कलंक है. और यही आचरण वी-डेम के अध्ययन में भारत के बारे में किये गये आकलन, कि भारत एक पूर्ण विकसित लोकतंत्र के बजाय “चुनावी निरंकुशता” वाला देश है, को ही बल प्रदान करता है.