विगत 22 फरवरी 2021 को नीतीश कुमार की भाजपा-जदयू सरकार ने बिहार विधानसभा में इस साल कार बजट पेश किया. भाकपा(माले) के राज्य सचिव कुणाल और विधायक दल के नेता महबूब आलम ने भाजपा-जदयू सरकार द्वारा पेश बजट को निराशाजनक व नकारात्मक बताया है. नेताओं ने अपने संयुक्त बयान में कहा कि आज कोविड व लाॅकडाउन के बाद जहां दुनिया भर की सरकारें घाटे का बजट बना रही हैं, वहीं बिहार सरकार का बजट फायदा दिखला रहा है. 2021-22 के बजट प्राक्कलन में जहां 218502.70 करोड रुपये अनुमानित प्राप्ति दिखलाई गई है, वहीं खर्च को उससे 200 करोड़ कम यानि 218302. 70 करोड़ रुपए दिखलाया गया है.
इसका मतलब है कि सरकार कोरोना जनित लाॅकडाउन की मार झेल रही जनता के लिए राजकोष खोलना नहीं चाहती है और यथास्थिति बनाकर रखना चाहती है. यदि सरकार अपना खजाना नहीं खोलेगी, तो लोगों के पाॅकेट में पैसे नहीं आयेंगे और न ही उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी. जनता की क्रय शक्ति बढ़ाए बिना मौजूदा समस्याओं से निपटना संभव नहीं है. सरकार को घाटे का बजट बनाना चाहिए था और अतिरिक्त पैसा जुटाने के उपाय तलाशने चाहिए थे. ऐसी स्थिति में न तो रोजगार का सृजन हो सकता है और न ही मौजूदा मंदी से निजात मिल सकता है. आज के समय में दुनिया के अधिकांश देश अपने जीडीपी का 20 प्रतिशत के घाटे तक का बजट बना रहे हैं.
यदि सरकार को गरीबों, मजदूरों, महिलाओं, किसानों, स्कीम वर्करों, नौजवानों आदि तबके की क्रय शक्ति बढ़ाने की चिंता होती तो वह विभिन्न विभागों में खाली लाखों पदों पर स्थायी बहाली का बजट बनाती. लेकिन वह जो 19 लाख रोजगार देने की बात कह रही है, उसमें कुछ भी ठोस नहीं है. महज 5 लाख अनुदान व 5 लाख लोन के जरिए बिहार के लाखों बेरोजगारों को कौन-सा रोजगार मिलेगा? जाहिर है कि भाजपा-जदयू पकौड़ा तलने जैसे काम को ही रोजगार बतला रही है.
बजट में मनरेगा मजदूरों के लिए कम से कम 200 दिन काम व न्यूनतम 500 रु. मजदूरी का प्रावधान किया जाना चाहिए था. ठेका पर काम कर रहे सभी स्कीम वर्करों के काम को स्थायी करने की जरूरत थी. लेकिन सरकार पैसे को विकेन्द्रित तरीके से खर्च करने के बजाए केंद्रित तरीके से कंपनियों के हाथों खर्च करने की नीति पर चल रही है. आशा, रसोइया, आंगनबाड़ी सेविका-सहायिका, शिक्षक और अन्य स्कीम वर्करों के प्रति सरकार के असम्मान का ही भाव दिखता है. गरीबों के वास-आवास व अन्य अधिकारों के प्रति भी घोर उपेक्षा बजट में परिलक्षित हो रही है.
किसानों की आय बढ़ाने की बात सरासर झूठी है. यदि सरकार को इसकी चिंता होती तो वह एपीएमसी ऐक्ट को पुनर्बहाल करती. आज भी बिहार में सभी किसानों के धान नहीं खरीदे जा सके हैं. ऐसे में उनकी क्रय शक्ति कैसे बढ़ेगी? हर कोई जानता है कि यहां के किसान औने-पौने दाम पर अपने धान को बेचने के लिए मजबूर हैं. मंडी की स्थापना की कोई बात बजट में नहीं की गई है. सिंचाई के क्षेत्र में महज 550 करोड़ का प्रावधान किया गया है, जो बहुत ही तुच्छ है. सोन नहर प्रणाली को ठीक करने सहित बिहार की अन्य नहर प्रणालियों, बंद पड़े नलकूपों आदि के बारे में कोई चर्चा नहीं की गई है.
शिक्षा के क्षेत्र में गोल-मटोल बातें की गई हैं. छात्रओं को कुछ प्रोत्साहन राशि देकर सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन बदहाल स्कूलों-काॅलेजों की संस्थागत संरचना को ठीक करने तथा उच्च शिक्षा व रिसर्च वर्क आदि पर बजट में एक शब्द तक नहीं है. यदि हमारे विश्वविद्यालयों के एकेडमिक कैलेंडर ही ठीक ही नहीं होंगे तो छात्र-छात्राओं को कैसे शिक्षित किया जा सकता है? हर अनुमंडल में एक डिग्री काॅलेज की बहुत पुरानी मांग है, लेकिन सरकार ने इस पर चुप्पी साध रखी है. कुछ पाॅलिटेक्निक, आईटीआई जैसे संस्थानों की चर्चा करके सरकार दरअसल कुशल वर्कर ही पैदा करने का काम कर रही हैै.
कोविड काल में बिहार के स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल हम सबने देखा. उच्च मेडिकल संस्थानों तक में सुविधाओं का घोर अभाव था. नीचे के अस्पतालों की तो बात ही करना बेमानी है. न महिला डाॅक्टर हैं, न ब्लड की सुविधा और न ही जांच की. कोविड के दौरान हुए संस्थागत भ्रष्टाचार की बातें भी अब हम सबके सामने है.
महिला सुरक्षा पर सरकारें डींगे तो काफी हांकती है, लेकिन आज बिहार में महिला उत्पीड़न की घटनाओं ने पुराने सारे रिकाॅर्ड तोड़ दिए हैं. महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकार को आधारभूत संरचनाओं का निर्माण करना चाहिए और अलग से उसके लिए बजट का प्रावधान करना चाहिए. कुल मिलाकर भाजपा-जदयू की सरकार बिहार को सस्ते श्रम और दरिद्रता का ही प्रदेश बनाकर रखना चाहती है.