वर्ष - 29
अंक - 31
31-07-2020

राजस्थान में राज्य सरकार के भविष्य के बारे में अस्थिरता बरकरार है. यह जानने के लिए कि क्या सरकार आने वाले तूफान का सामना करने में सक्षम है, हमें राजस्थान उच्च न्यायालय और राज्य विधानसभा के घटनाक्रमों पर नजर बनाये रखनी होगी. वर्तमान संकट का अंतिम परिणाम जो भी हो, इसके बावजूद जो वास्तव में अधिक चिंता का विषय होना चाहिए, वह यह है कि इस तरह अस्थिरता पैदा करने की कोशिश एक उफनती महामारी के बीच चल रही है, जब पूरा ध्यान राज्य और लोगों को कोविड-19 की विपत्ति से बचाने पर केन्द्रित होना चाहिए. यदि मध्य प्रदेश में शासन-परिवर्तन ने कोविड-19 के खिलाफ भारत की लड़ाई को प्रारंभिक चरण को बुरी तरह से प्रभावित किया, तो राजस्थान में तख्तपलट का यह खेल कहीं बहुत अधिक संकटमय चरण में खेला जा रहा है, जब कोविड-19 के आंकड़े भारत में तेजी से बढ़ रहे हैं और राजस्थान सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्यों में से एक है.

मध्य प्रदेश में पहले जो कुछ हुआ और अब जो राजस्थान में हो रहा है वह एक मनहूस प्रवृत्ति का हिस्सा है, जिसके मोदी युग में स्वयंसिद्ध खतरा बन जाने की आशंका है. भाजपा शासित केंद्र ने एक के दूसरे बाद राज्य में विपक्ष-शासित सरकारों को उलटना अपनी आदत बना ली है और उसने इस खेल में महारत हासिल कर ली है. यह इतनी नियमित रूप से किया जा रहा है कि इससे मतदाताओं को संदेश दिया जा रहा है कि गैर-भाजपा, गैर-राजग सरकार को चुनने का कोई मतलब नहीं है. पहले छोटे पूर्वोत्तर राज्यों और फिर गोवा जैसे राज्यों में इसे आजमाने के बाद, अब भाजपा बिहार, कर्नाटक और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में सरकारों को उलटने या उन पर कब्जा जमाने के लिए आगे बढ़ी है. झारखंड में भी अस्थिरता पैदा करने के प्रयासों की खबरें आ रही हैं. बिहार में भाजपा ने जनता के जबर्दस्त भाजपा विरोधी जनादेश का अपहरण करने के लिए निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ सांठगांठ की, तो मध्य प्रदेश में उसने ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने जाल में फंसाया, और अब राजस्थान में वह पूर्व उप मुख्यमंत्री एवं राज्य कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सचिन पायलट को मुहरा बनाकर दांव खेल रही है.

भाजपा ने निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त को इस हद तक सामान्य बना दिया है कि बीच-बीच में ही निर्वाचित विपक्षी सरकारों पर उसके हमलों, थोक भाव में दल-बदल करवाने और अत्यधिक चढ़े दामों पर विपक्ष के विधायकों की खरीद पर  कोई सवाल ही नहीं पूछा जा रहा है. इन्हें महज भाजपा के साम्राज्य का विस्तार करने के लिये किसी सम्राट द्वारा चलाये जाने वाले नियमित अभियानों के रूप में देखा जा रहा है जिन्हें हमें हैरत से देखना चाहिए. राजस्थान पर हो रही पूरी चर्चा को देखिए. इसे सचिन पायलट के न्यायपूर्ण विद्रोह के रूप में तथा कांग्रेस की अपने विधायकों को अपने साथ बनाये रखने में नाकामी के बतौर देखा जा रहा है, अथवा यहां तक कि गांधी-नेहरू परिवार के नेतृत्व को संभावित राजनीतिक चुनौती देने वालों को पार्टी से निकाल बाहर करने की एक चाल के बतौर भी देखा जा रहा है. कांग्रसी विधायकों के सम्बंधित ऑडियो टेप और स्वीकारोक्तियों से लेकर पायलट के पक्ष में कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए भाजपा-समर्थक शीर्षस्थ वकीलों की तैनाती तक, इस प्रकरण में भाजपा की भागीदारी बहुत स्पष्ट नजर आती है. अगर पायलट द्वारा तख्तपलट की कोशिश सफल रही, तो वैकल्पिक सरकार वैसे भी कारगर ढंग से भाजपा की ही होगी, अगर भाजपा के नेतृत्व में न भी हो तो भाजपा-समर्थित तो जरूर होगी. फिर भी प्रमुख मीडिया में इस गंभीर राष्ट्रीय संकट की घड़ी में भाजपा के सत्ता हड़पने के खेल की अश्लीलता के बारे में शायद ही कोई चर्चा हो.

केंद्र में नरेंद्र मोदी के उदय के साथ, राजनीति में बड़ी धनराशि का इस्तेमाल भारत में एक बिल्कुल नई ऊंचाई पर पहुंच गया है. मोदी शासन के साथ बड़े कारपोरेट घरानों की अंतरंगता का सार्वजनिक प्रदर्शन पिछले सभी रिकार्डों को भी मात देता है. फिर भी राजनीति में बड़ी धनराशि के प्रवाह को पूरी तरह से अपारदर्शी, गुमनाम और जवाबदेही से परे बना दिया गया है. यहां तक कि भारत के चुनाव आयोग ने चुनावी बांड के निहितार्थों और उसके बाद वित्त अधिनियम, आयकर अधिनियम और जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में परिवर्तन के बारे में गंभीर चिंता व्यक्त की, जिससे यहां तक कि विदेशी स्रोतों से आने वाले अनुदानों का भी पता करना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि पार्टियों को इन चुनावी बांडों के माध्यम से मिलने वाले अनुदानों के बारे में रिपोर्ट करने की भी बाध्यता नहीं है. यहां नोट करना चाहिये कि अब तक इन चुनावी बान्डों के माध्यम से मिलने वाली धनराशि का 95 प्रतिशत भुगतान भाजपा को प्राप्त हुआ है. कोविड-19 महामारी का प्रकोप फैसले के साथ-साथ मोदी सरकार ने तुरंत पीएम-केयर्स फण्ड’ की शुरूआत की और इसे सार्वजनिक लेखा-परीक्षण (ऑडिट) और जवाबदेही के दायरे से बाहर रखा. अगर यह पता चलता है कि ‘कोविड’ राहत के नाम पर जमा की गई धनराशि का इस्तेमाल विधायकों की खरीद-फरोख्त और राजस्थान सरकार को अस्थिरता में डालने के लिए किया गया, तो हमें यह जानकर कत्तई आश्चर्य नहीं होगा.

दूसरे जिस सवाल पर चर्चा करने की जरूरत है वह यह है कि कैसे कांग्रेस के कुछेक नेताओं और विधायकों को दलत्याग कर भाजपा के खेमे में चले जाना इतना आसान और सहज लगता है. मीडिया में जो चर्चा होती है वह कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र की कमी, गांधी-नेहरू वंश का नियंत्रण और युवा नेताओं को उनके प्रदर्शन के लिए पुरस्कार की कमी के इर्द-गिर्द घूमती है. मगर इन मामलों में आरएसएस के कठोर और संदिग्ध नियंत्रण से बंधी भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी का लगातार बढ़ता वर्चस्व और बाकी नेतृत्व का सम्पूर्णतः हाशिए पर चले जाना यकीनन कांग्रेस से बेहतर कोई विकल्प नहीं पेश करता. भाजपा अभी भी वंशवाद की आलोचना के नाम पर कांग्रेस को घेरती रहती है. लेकिन जिन नेताओं को यह अपनी कतारों के अंदर ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दे रही है या फिर जिनको कांग्रेस से उधार ले रही है, वे सभी वंशवाद के उत्पाद हैं. इसने संजय गांधी की विरासत को अपने अंदर समायोजित करके यहां तक कि गांधी-नेहरू परिवार के एक हिस्से को भी खुद में शामिल कर लिया है. इस स्वयम्भू ‘एक अलग किस्म की पाटी’ (पार्टी विद ए डिफरेंस) ने खुद को कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों के दल-बदलुओं के लिए खातिरदारी का बड़ा अड्डा बना दिया है. यकीनन हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि कांग्रेस और भाजपा के बीच ऐतिहासिक रूप से जो भी राजनीतिक अवरोध मौजूद रहे, उनमें से अधिकांश भाजपा के वर्चस्वशाली राजनीतिक शक्ति के बतौर उदय तथा लगातार बढ़ती दक्षिणपंथी ढलान और हिंदुत्व या हिंदू श्रेष्ठतावादी राष्ट्रवाद के संघ-भाजपा संस्करण के ‘सामान्यीकरण’ के साथ ही अगर बिल्कुल निरर्थक नहीं हो गये हैं, तो कम से कम धुंधले और नाकारगर तो जरूर हो गये हैं.

राजस्थान संकट का अंतिम परिणाम चाहे जो हो, इसके बावजूद दो निष्कर्ष काफी स्पष्ट हैं. दलबदल को रोकने में संविधान की दसवीं अनुसूची में वर्णित दलबदल-विरोधी कानून बड़ी हद तक नाकारगर साबित हुआ है. हमने ऐसे कई तरीके देखे हैं जिनके जरिये विधायकों और सांसदों ने दलबदल विरोधी कानून के प्रावधानों को खिलवाड़ बना दिया है. दल-बदल विरोधी कानून मूल रूप से दलबदल को केवल पार्टी के प्रति वफादारी का उल्लंघन मानता है. दलबदल को बुनियादी रूप से निर्वाचित प्रतिनिधि द्वारा मतदाताओं के साथ किये गये अनुबंध के उल्लंघन के रूप में देखा जाना चाहिए. इसलिए दलबदल-विरोधी कानून में न केवल सभी दलत्यागियों के लिये अनिवार्य इस्तीफे का प्रावधान होना चाहिये, बल्कि उनको छह वर्ष के लिये किसी सार्वजनिक पद पर रहने अथवा चुनाव लड़ने के अयोग्य भी ठहराया जाना चाहिए.

दूसरा महत्वपूर्ण निष्कर्ष वैचारिक है. यदि भारतीय लोकतंत्र को मुख्यतः एकदलीय व्यवस्था बनने से बचाना है, तो वैचारिक-राजनीतिक प्रतियोगिता को मजबूत करना होगा और बढ़ती दक्षिणपंथी ढलान और वर्चस्व का कारगर वैचारिक प्रतिपक्ष केवल एक शक्तिशाली वामपंथी पुनरुत्थान से ही सामने आ सकता है. भारतीय जनता के बड़े हिस्से के जीवन और स्वतंत्रता पर बढ़ता हमला निश्चित रूप से लोकतंत्र के शक्तिकेन्द्र के रूप में वामपंथ के नए सिरे से उत्थान की नई संभावना पैदा कर रहा है. वामपंथियों को इस अवसर की चुनौती पर खरा उतरना होगा.