वर्ष - 29
अंक - 30
24-07-2020

विकास दुबे प्रकरण उत्तर प्रदेश में ‘मुठभेड़ हत्याओं’ की लम्बी होती जा रही सूची में ताजातरीन दर्ज होने वाला एक और प्रकरण है. यह आज के भारत में राज-काज चलाने के प्रभावी माॅडल के प्रमुख उसूलों को दर्शाता है और चंद महत्वपूर्ण बुनियादी चीजों की व्याख्या करता है जिसे बोलचाल में अपराधी-पुलिस-राजनीतिज्ञ गठजोड़ कहा जाता है. यह राजनीति के अपराधीकरण के नये स्तर, तथा संवैधानिक शासन के संकट और पतन की ओर इशारा करता है.

सर्वप्रथम, हमने देखा कि कानपुर में 2-3 जुलाई की बीच रात में पुलिस की एक छापा मारने गई टीम पर घात लगाकर हमला किया गया जिसने विकास दुबे के नाम को उत्तर प्रदेश के बीहड़ों के पार भी घर-घर में चर्चित बना दिया. इस घात लगाकर किये गये हमले का पैमाना और अंदाज ऐसा था कि उसने उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ शासन के बारे में प्रचारित कई मिथकों को मिट्टी में मिला दिया. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने “मुठभेड़ हत्या” को एक राजकीय नीति के बतौर ग्रहण किया था और उसे सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि के बतौर महिमामंडित किया था. 2019 में, जब सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में हो रही मुठभेड़ हत्याओं को “अत्यंत गंभीर मुद्दा” बताया था, तो उसके तुरंत बाद ही उत्तर प्रदेश सरकार ने उनको गणतंत्र दिवस के अवसर पर सफलता के प्रचार के बतौर प्रदर्शित किया था.

आदित्यनाथ की कमान में एक सौ से ज्यादा मुठभेड़ हत्याओं समेत कुल मिलाकर पांच हजार से ज्यादा मुठभेड़ हत्याएं किये जाने के बाद भी विकास दुबे जैसा एक अपराधी पुलिस टीम पर घात लगाकर हमला कर सकता है, यही तथ्य इस इन्काउंटर राज या मुठभेड़ राज के “असरदार” होने के दावों के चरम खोखलेपन को उजागर करता है. वास्तव में सिलसिलेवार ढंग से होने वाली मुठभेड़ हत्याओं के नितांत गैरकानूनी होने के अलावा, टिप्पणीकारों ने इन मुठभेड़ हत्याओं के असमान व पक्षपातपूर्ण सामाजिक चरित्र की ओर भी संकेत किया है. आम तौर पर मुठभेड़ का शिकार दलित एवं अन्य उत्पीड़ित जातियों अथवा मुस्लिम समुदाय का कोई असहाय निर्दोष नागरिक होता है जिसकी हत्या को जायज ठहराने के लिये उसकी मौत के बाद उस पर मामलात दर्ज कर दिये जाते हैं, वह कत्तई कोई ‘मोस्ट वांटेड’ शातिर अपराधी तो बिल्कुल नहीं होता जो उस तरह से खुलेआम घूमते रहते हैं जैसे विकास दुबे अपने आत्मसमर्पण और अंततः तथाकथित मुठभेड़ में मार गिराये जाने के पहले तक घूम रहा था.

उत्तर प्रदेश सरकार अपनी मुठभेड़ नीति के बारे में इतने पाखंडपूर्ण आत्मसंतोष से भरपूर है कि उसने दुबे की मृत्यु की “सफाई देने” के लिये पुलिस द्वारा मुठभेड़ की पटकथा के जाहिराना तौर पर झूठे चरित्र को छिपाने का भी कोई प्रयास नहीं किया. दुबे की हत्या की जांच करने के लिये गठित स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) की संरचना में भी यही पाखंडी आत्मसंतोष देखा जा सकता है. इस तीन सदस्यीय जांच टीम में शामिल एक अधिकारी डीआईजी जे. रवीन्द्र गौड़ खुद ही एक नकली मुठभेड़ के मामले में आरोपी हैं, जिसमें उन्होंने बरेली के नौजवान दवा विक्रेता मुकुल गुप्ता को 2007 में मार गिराया था. 26 अगस्त 2014 को इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा इस मुठभेड़ की सीबीआई द्वारा जांच कराये जाने के आदेश दिये जाने के बावजूद उत्तर प्रदेश में सिलसिलेवार ढंग से आने वाली सरकारों ने उनके खिलाफ मुकदमा चलाये जाने की अनुमति नहीं दी है, मुकुल गुप्ता के माता-पिता, जिन्होंने हाई कोर्ट में सीबीआई द्वारा जांच कराये जाने की मांग को लेकर याचिका दायर की थी उनकी भी हत्या कर दी गई है. जांच के प्रति इस किस्म के रवैये को देखते हुए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उत्तर प्रदेश में होने वाली तमाम मुठभेड़ हत्याओं को आज तक जायज ही पाया गया है. अब सरकार ने एक-सदस्यीय न्यायिक जांच का ऐलान किया है, मगर इस मुठभेड़ के साथ विकास दुबे द्वारा घात लगाकर किये गये हमले को जोड़कर देखने के चलते यही संभव है कि जांच विकास दुबे की हत्या की नहीं बल्कि घात लगाकर किये गये हमले की होगी.

कहने की आवश्यकता नहीं कि विकास दुबे जैसे अपराधियों को राजनीतिज्ञों और पुलिस, दोनों के साथ अपने घनिष्ठ सम्पर्कों के चलते ताकत मिलती है. वास्तव में विकास दुबे का भाजपा से और उससे पहले बसपा से राजनीतिक सम्पर्क बिल्कुल सुपरिचित रहा है. विकास दुबे और उत्तर प्रदेश के कानून मंत्री ब्रजेश पाठक का एक फोटो अब सोशल मीडिया पर बहुचर्चित हो गया है. सच है कि जब हम राजनीति के अपराधीकरण की अथवा अपराधी-पुलिस-राजनीतिज्ञ गठजोड़ की बातें करते हैं तो हमें इस गठजोड़ में राजनीति द्वारा निभाई जाने वाली पट-निर्देशक भूमिका को कभी नहीं भूलना चाहिये.

एक भिन्न राजनीतिक परिदृश्य में, योगी आदित्यनाथ के खिलाफ जो तमाम गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं, उनके लिये खुद उनको ही जेल में होना चाहिये था, मगर उन्होंने मुख्यमंत्री होने के नाते खुद को उन मामलों से मुक्त कर लिया है. जहां उनकी सरकार हमेशा मुठभेड़ के आंकड़ों को महिमामंडित करके पेश करती है, वहीं यह याद रखना चाहिये कि उसने मुजफ्फरपुरनगर के साम्प्रदायिक हत्याकांड से सम्बंधित तमाम मुकदमों को आगे बढ़ने से रोक दिया है. संजीव बलियान और भारतेन्द्र सिंह जैसे सांसदों, संगीत सोम और उमेश मलिक जैसे विधायकों, सुरेश राना और साध्वी प्राची जैसे मंत्रियों समेत तमाम कुख्यात भाजपा नेताओं को इस सरकारी रहमदिली से फायदा पहुंचा है. हमने पहले भी गुजरात में इसी किस्म के नजारे को देखा है या कहा जाये तो अभी भी दिल्ली में इसे घटित होते देख रहे हैं, जहां कपिल मिश्रा जैसे भाजपा नेताओं के खिलाफ सबसे मजबूत साक्ष्य होने के बावजूद उन्हें बख्श दिया जा रहा है.

अगर एक सीमा पर पहुंचकर अपराधी खुद ही ठिकाने लगाने लायक हो जाते हैं, जैसा कि विकास दुबे को अंततः जिस ढंग से निपटाया गया उससे प्रदर्शित होता है, जिसको बहुतेरे लोग मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में मार गिराये जाने से पहले धोखे से मध्य प्रदेश में आत्मसमर्पण के जाल में फंसाया गया, तो पुलिस अध्किारियों के साथ भी उनकी राजनीतिक शासकों के लिये उपयोगिता अथवा उनके प्रति वफादारी के अनुसार अलग-अलग बरताव किया जाता है. बुलंदशहर में पीट-पीटकर हत्या के शिकार इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के मामले में हम देख सकते हैं कि सभी आरोपी जमानत पर रिहा कर दिये गये हैं और उनके लिये भाजपा ने बाकायदा स्वागत समारोह आयोजित किया है. वंजारा और देविंदर सिंह जैसे लोगों के लिये इस व्यवस्था के पास अलग अलग मापदंड हैं, जिनको पुरस्कार पर पुरस्कार दिये जाते हैं और अगर वे गलती करते पकड़ लिये जाते हैं तो भी उनका बचाव कर लिया जाता है, मगर संजीव भट्ट जैसे पुलिस अफसर जेल में डाल दिये जाते हैं अथवा अमिताभ कुमार दास (बिहार के आईपीएस अधिकारी जिन्होंने बिहार के शक्तिशाली राजनीतिज्ञों के रणवीर सेना अथवा माफिया डाॅन जैसों के साथ सम्बंधें का पर्दाफाश किया था) जैसों की जबर्दस्ती पहले ही सेवानिवृत्ति कर दी जाती है.

भाजपा राजद के शासन में बिहार को अथवा समाजवादी पार्टी के शासन में उत्तर प्रदेश को “जंगल राज” कहा करती थी. लम्बे अरसे से ये लोग “अपराध” अथवा ‘राजनीति के अपराधीकरण’ के अलंकार का उपयोग मंडलोत्तर भारत में पिछड़ी जातियों के राजनीतिक उत्थान को नीचा दिखलाने के लिये उसकी प्रमुख चारित्रिक विशिष्टता बताने के लिये करते रहे हैं. आज बिहार और उत्तर प्रदेश दोनों जगह हम देख सकते हैं कि भाजपा/राजग के शासन में अपराध और आतंक दोनों में भारी पैमाने पर वृद्धि हुई है. अपनी पीठ ठोकने के लिये किये गये “सुशासन” के दावे जमीनी हकीकत में पूरी तरह से चकनाचूर हो गये हैं हालांकि मुख्यधारा का मीडिया अब भी जारी अपराधीकरण के असली दायरे और चरित्र को तुच्छ करके ही दिखा रहा है. इस अपराधीकरण की मुख्य चालक शक्ति है सामंती-साम्प्रदायिक शक्तियां जिन्हें संघ ब्रिगेड का आशीर्वाद प्राप्त है और जिनका निशाना दबे-कुचले सामाजिक समूह तथा विपक्षी राजनीकि शक्तियां हैं. उत्तर प्रदेश में इस सामंती-साम्प्रदायिक अपराधीकरण और मुठभेड़ हत्याओं की सरकारी नीति कानून के शासन की मूल धरणा तथा न्याय की आधारशिला के सामने घातक चुनौती बनकर सामने आ गई है. इस पैटर्न के आशंकाभरे कुप्रभाव को हम पहले ही गुजरात में देख चुके हैं. अगर उत्तर प्रदेश और बिहार भी गुजरात माॅडल के पीछे कदम बढ़ा रहे हैं, तो वहां कानून का शासन टूटकर बिखर जायेगा और संस्थागत गुंडागर्दी और अराजकता को जन्म देगा.