वर्ष - 29
अंक - 30
24-07-2020

जन कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता वरवर राव के परिवार ने मुबई के तलोजा जेल में उनके बेहद बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में पूरी दुनिया को आगह किया है. उनके परिवार ने कहा कि उनका एक काॅल आया था जिससे पता चला कि उन्हें हेलुसिनेशन (मतिभ्रम) हो रहा है, और उनके एक संगी कैदी ने बताया कि वे चल-फिर नहीं पा रहे हैं – यहां तक कि वे खुद से शौचालय नहीं जा रहे हैं और न मुंह धे पा रहे हैं.

इस सूचना से जनता में व्यापक विक्षोभ फैला और नतीजतन, वरवर राव को अस्पताल में भर्ती किया गया.

80 वर्ष की उम्र में वरवर राव को खासकर कोविड-19 होने का काफी खतरा है, क्योंकि मुंबई की जेलों में यह महामारी फैलती जा रही है. सच तो यह है कि भीमा कोरेगांव / एलगार परिषद मामले में जो 11 कार्यकर्ता महाराष्ट्र में कैद हैं, उनमें से अधिकांश की हालत नाजुक बनी हुई है जिससे इस महामारी के समय उनकी जिंदगी खतरे में पड़ी हुई है.

लेकिन वरवर राव और अन्य राजनीतिक कैदियों के लिए यह ज्यादा जरूरी है कि उनकी मानवतावादी देखरेख की जाए. उन्हें न्याय की जरूरत है.

उन्हें इस हास्यास्पद आरोप में कैद किया गया है कि उन्होंने “प्रधान मंत्री की हत्या की साजिश की थी”. उनके खिलाफ एकमात्र साक्ष्य यह है कि उन्होंने भारत में फासीवाद-विरोधी आन्दोलन खड़ा करने का प्रयास किया था. वारवरा राव, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुंबडे, शोमा सेन, सुध भारद्वाज, सुरेंद्र गाडगिल, महेश राउत, अरुण फरेरा, वर्नन गोंजालवेज और रोना विल्सन कोई “साजिशकर्ता” नहीं हैं. इन लोगों ने साफ-सुथरी राजनीति की है; उन्होंने लिखा है, बोला है और भारत के उत्पीड़ितों के अधिकारों और दावेदारी के लिए काम किया है. उन्हें किसी सुनवाई के बगैर अनिश्चित काल के लिए क्यों जेल में बंद रखा गया है? महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार के गिरते ही एनआइए ने उन लोगों के केस अपने हाथ में क्यों ले लिए ? यह स्पष्ट है कि कि यूएपीए के काले कानून के तहत उनपर इसीलिए आरोप लगाया गया है, ताकि बगैर किसी सुनवाई के उन्हें वर्षों तक जेल में रखा जा सके. यूएपीए राजनीतिक विरोधियों को दंडित करने के लिए एक कानूनी (लेकिन, असंवैधानिक) हथियार है जिसके तहत लगाए गए सबसे बेतुके आरोप पर भी न्यायिक जांच नहीं हो सकती है.

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डा. कफील खान की गिरतारी जन-सेवा की भावना से लबरेज ऐसे लोगों के प्रति भाजपा के राजनीतिक बदले की कार्रवाई का एक दूसरा गौरतलब मामला है, जो अपनी विचारधारा को साझा नहीं करते हैं. कफील खान एक डाॅक्टर हैं जो अपनी ड्यूटी के दायरे से बाहर तक जाने तथा गोरखपुर सरकारी अस्पताल में बच्चों की जान बचाने के अपने प्रयासों के लिए जाने जाते हैं. उनकी बहादुराना भूमिका से मुख्य मंत्री आदित्यनाथ के अपने चुनावी क्षेत्र में स्वास्थ्य तंत्र के बुनियादी मानकों को सुनिश्चित करने में सरकार की नाकामी उजागर हो गई थी. उसके बाद से ही, आदित्यनाथ शासन ने बदला लेते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई करनी शुरू कर दी. इस महामारी के दौरान डा. कफील खान जेल में बंद हैं, जबकि उन्हें बाहर रहकर जनता के लिए स्वास्थ्य सेवा करने की जरूरत थी.

असम, उत्तर प्रदेश, और दिल्ली में भी छात्रा कार्यकर्ताओं तथा सीएए-विरोधी प्रतिवादकारियों को गिरफ्तार कर यूएपीए के तहत जेलों में बंद किया गया है.

कश्मीरी राजनीतिक बंदी भी पूरे देश में, अपने घरों से दूर, किसी भी सुनवाई के बगैर अनिश्चितकाल के लिए जेलों में बंद पड़े हैं जहां उनके प्रियजन उनसे मिल तक नहीं सकते और जहां महामारी के चलते उनका जीवन खतरे में है.

कार्यकर्ताओं की ये गिरफ्तारियां और किसी सुनवाई के बगैर उन्हें जेलों में बंद रखना इसी बात के संकेत हैं कि मोदी शासन के अंतर्गत भारत स्थायी आपातकाल की स्थिति में चला गया है. और, इस महामारी के दौरान भारत के सबसे प्रतिबद्ध और जन सेवा की भावना से ओतप्रोत लोगों को कैद रखने का मतलब उन्हें जेलों में ही मार डालना है.

हम देश की जनता से आह्वान करते हैं कि वे सभी राजनीतिक बंदियों की मुक्ति के लिए अपना संघर्ष जारी रखें.