वर्ष - 29
अंक - 25
13-06-2020

भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने, जो लम्बे अरसे तक चले भारत के लाॅकडाउन के दौरान अभी तक गायब थे, अचानक प्रकट होकर इसी 7 जून को बिहार में आयोजित एक ‘डिजिटल रैली’ को सम्बोधित किया. कहने को तो शाह ने इसे लोगों से ‘जन संवाद’ बताया, मगर हर सूरत में इस रैली ने इस साल के अंतिम महीनों में निर्धारित बिहार विधानसभा चुनाव के लिये भाजपा के प्रचार अभियान की शुरूआत कर दी है. यह रैली मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल की छठवीं वार्षिकी का समारोह मनाने के लिये विराट प्रचार अभियान का भी एक हिस्सा थी और साथ ही कोविड-19 की वैश्विक महामारी का तथाकथित सफलतापूर्वक मुकाबला करने का दावा करके अपनी पीठ थपथपाने के लिये भी थीइधर अमित शाह ने अपनी वर्चुअल रैली की, उधर नीतीश कुमार ने भी उसी दिन जद(यू) के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के साथ डिजिटल बातचीत आयोजित करके अपने चुनाव प्रचार की शुरूआत कर दी. दूसरे शब्दों में, केन्द्रीय गृहमंत्री और बिहार के मुख्यमंत्री, दोनों ही अपनी सरकारी है. सियत से नहीं, बल्कि अपनी-अपनी पार्टियों के नेता की है. सियत से लोगों को सम्बोधित कर रहे थे.

आइये, अब हम बिहार के हालात पर नजर डालें. भारत के अन्य राज्यों की ही तरह बिहार भी महामारी और लाॅकडाउन की दोहरी चोट से लड़खड़ा रहा है. राज्य की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की खस्ता हालत को देखते हुए बिहार में कोविड-19 की चुनौती खास तौर पर कठिन है, मगर लाॅकडाउन की तो बिहार पर सचमुच तगड़ी मार पड़ी है. संभवतः भारत के प्रवासी मजदूरों में बिहार के प्रवासियों की तादाद ही सबसे ज्यादा है और जब केन्द्र व राज्य सरकारों ने प्रवासी मजदूरों की दुख-दुर्दशा पर कोई ध्यान नहीं दिया, तब बिहार के प्रवासी मजदूरों के पास सिर्फ अपने संसाधनों पर निर्भर करने के अलावा और कोई चारा न रहा – चाहे पैदल चलते-चलते हो या साइकिलों पर, वे घर वापस लौटे, या फिर उन्होंने कुख्यात श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में अपना सफर पूरा किया, और यहां पहुंचने पर उन्हें क्वारंटाइन सेन्टर कहलाये जाने वाले यातनागृहों में कैद कर लिया गयों.

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इसके अतिरिक्त, बिहार में लाॅकडाउन के दौरान विपक्षी कार्यकर्ताओं, दलितों, मुसलमानों, अन्य दबे-कुचले सामाजिक समूहों तथा महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बाढ़ आ गई है, और ऐसे अपराध के जो मामले सामने आये हैं उनको अंजाम देने वाले सामंती-साम्प्रदायिक-अपराधी गठजोड़ को अधिकांशतः शासक भाजपा-जद(यू) संश्रय का सक्रिय संरक्षण हासिल रहा है. गोपालगंज के तिहरे हत्याकांड का मुख्य मुजरिम और कोई नहीं, जद(यू) का विधायक अमरेन्द्र पांडेय है, मगर उनको गिरफ्तार करने तथा विधानसभा से उनकी सदस्यता खारिज करने के बजाय, नीतीश सरकार भाकपा(माले) के उन नेताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज करने में व्यस्त है, जो स्थानीय लोगों से बातचीत करके जानकारी लेने के लिहाज से हत्याकांड के स्थल पर गये थे. उसके बाद मधुबनी में हुई दलित की हत्या के मामले में भाजपा नेता अरुण कुमार झा मुख्य आरोपी हैं.

लाॅकडाउन की समूची अवधि में बिहार की जनता ने इन तमाम मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद की है. वास्तव में, अमित शाह और नीतीश कुमार की डिजिटल रैलियों को भी समूचे राज्य के लोगों ने धिक्कारते हुए आवाज उठाई. चाहे यह भुखमरी के शिकार लोगों को राशन व राहत देने का मामला हो, या क्वारंटाइन केन्द्रों में सुविधाओं के अभाव का, दूसरे राज्यों में फंसे हुए मजदूरों एवं छात्रों की सुरक्षित वापसी का सवाल हो, स्कीम वर्करों एवं कोरोना योद्धाओं के लिये निजी सुरक्षा उपकरण (पीपीई) दिये जाने और महामारी में काम के एवज में मिलने वाली तनख्वाह का सवाल हो, लाॅकडाउन की मार सह रहे मजदूरों और किसानों को आमदनी का सहारा देना हो, और स्वयं सहायता समूहों, माइक्रो-फाइनेंस स्कीमों और आजीविका मिशन की महिलाओं की कर्जमाफी का सवाल हो, बिहार में लाॅकडाउन की पाबंदियों के बीच लगातार जन-प्रतिवाद होते रहे हैं. बिहार ने सचमुच ‘घर में रहो’ को ‘घर से प्रतिवाद करो’ की भावना के जबर्दस्त इजहार में बदल दिया है.

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जैसा कि पहले ही अंदाजा था, अमित शाह और नीतीश कुमार, दोनों बिहार के लोगों के सामने खड़े इन ज्वलंत सवालों पर साफ तौर पर खामोश रहे. उन्होंने इस संकट को अवसर में बदलने का तरीका खोज लिया, इसकी खुशी उनके चेहरों पर भी झलक रही थी. वरिष्ठ भाजपा नेता और नीतीश कुमार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी पिछले दो हफ्तों से इशारा कर रहे हैं कि इस बार बिहार में डिजिटल चुनाव कराये जा सकते हैं, जिसमें मतदाताओं को अपना वोट देने के लिये मतदान केन्द्र तक जाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. अमित शाह कहते हैं कि बैंक के जरिये सीधे रकम भेजने (डीबीटी, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर) ने घोटालों का खात्मा कर दिया है, सुशील मोदी कहते हैं कि डिजिटल मतदान बूथ कब्जे का खात्मा कर देगा, क्योंकि बूथ तो रहेंगे ही नहीं! ये दावे और सुझाव न सिर्फ सफेद झूठ हैं, बल्कि वे पक्के तौर पर शैतानी भरे और खतरनाक अंदेशा लिये हुए हैं.

वास्तव में डीबीटी या बैंक खातों के जरिये सीधे रकम भेजने का अस्तित्व केवल बजट भाषणों और चुनावी रैलियों तक ही सीमित रहता है. वास्तविक जीवन में जब भारत समस्त भारतीय आम परिवारों के लिये डीबीटी की मांग कर रहा है – आयकर न भरने वाले समस्त परिवारों को सहारे के बतौर छह महीने तक 7,500 रुपये का मासिक नकद हस्तांतरण, जिसके जरिये बड़े पैमाने पर उपभोग और मांग में इजाफा होगा – एक ऐसी मांग जो वर्तमान संकट का मुकाबला करने के लिये एक प्रमुख सुझाव के बतौर उभरी थी – तब सरकार इसके बजाय केवल चंद उद्यमों को कर्ज देने का वादा कर रही है. और घोटाले कहीं बंद नहीं हुए, वे सिर्फ और बड़े पैमाने पर हो रहे हैं. सृजन घोटाला चारा घोटाले से कई गुणा बड़ा घोटाला था, फर्क सिर्फ इतना रहा कि इस घोटाले को बड़े शातिराना अंदाज में अंजाम दिया गया! और अब तो जांच भी नहीं की जाती, और जब असुविधाजनक तथ्य खुलकर सामने आने लगते हैं, तो भेद खोलने वालों और सूचनाधिकार (आरटीआई) कार्यकर्ताओं को नियमित रूप से रास्ते से हटा दिया जाता है, मुकदमों और न्यायाधीशों का रातोंरात तबादला कर दिया जाता है और मीडिया को अपने हाथ कर लिया जाता है तथा खबरों के शीर्षक बदल दिये जाते हैं. भाजपा के दावे के अनुसार जिस ईवीएम और वीवीपैट (मतदान की पुष्टि करने वाली पर्ची) की प्रणाली के जरिये बूथ कब्जा एवं मतदान विषयक अन्य गड़बड़ियों को समाप्त कर दिया गया था, वह प्रणाली अब साख और पारदर्शिता के गंभीर संकट का सामना कर रही है. और अब भाजपा चुनाव को डिजिटल कारोबार बनाकर चाहती है कि चुनाव को और ज्यादा संदेहास्पद बना दिया जाये, जिससे उसकी साख केवल और भी ज्यादा घटेगी तथा उसमें लोगों की भागीदारी भी घट जायेगी, और इसीलिये चुनाव बहुत ज्यादा संदिग्ध और अलोकतांत्रिक हो जायेगा.

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संकेत बिल्कुल स्पष्ट हैं. जो शक्तियां चंद दशक पहले तक बूथ कब्जा किया करती थीं और गरीबों को मतदान करने से रोक देती थीं, उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव के बाद उसके जनादेश को हड़प लिया था, वे अब खुद चुनाव को ही चोरी-छिपे हथिया लेने की कोशिश कर रही हैं. बिहार में भाजपा-जद(यू) की सरकार अच्छी तरह जानती है कि उसे लम्बे अरसे से अपने खराब प्रदर्शन तथा वादाखिलाफी और नाकामी के सिलसिलेवार कारनामों के चलते बड़े पैमाने पर लोगों का गुस्सा झेलना पड़ेगा. मुजफ्फरपुर शेल्टर होम बलात्कार और सृजन घोटाले से लेकर साम्प्रदायिक हिंसा और दलितों एवं अन्य कार्यकर्ताओं की सिलसिलेवार हत्याओं एवं बिहार के मेहनतकशों एवं महिलाओं के विभिन्न तबकों के जन-आंदोलनों पर बर्बर दमन तक, और अभी जनता के खिलाफ जारी ‘कोरोना युद्ध’ तक, नीतीश मोदी की सरकार का पूरी तरह पर्दाफाश हो चुका है और संभवतः यह बिहार की अब तक की सबसे बेरहम और गरीब-विरोधी सरकार रही है.

अगर यह सरकार सोचती है कि वह जनता को तैयारी-विहीन और मतदान से बाहर रखकर चुनाव को चोरी-छिपे हथिया सकती है, तो यह बिहार की अदम्य लोकतांत्रिक भावना और जन-आंदोलनों की गौरवमय विरासत की जिम्मेदारी है कि वह सरकार को गलत साबित कर दे.