वर्ष - 29
अंक - 16
11-04-2020

कोई ऐसा शब्द कहो
जिसका सचमुच कोई अर्थ हो

कोई ऐसी नदी दिखाओ
जिसमें न बह रहा हो हमारी आंख का पानी

कोई ऐसा फूल उपहार में दो
जिसकी गंध बाजार में न बिकती हो

अपने प्रेम और घृणा के लिए दलीलें देना बंद करो
ताकि मैं भरोसे पर पुनः भरोसा कर सकूं

अर्थ, रस, गंध और स्पर्श
सब अपनी सवारियों से पलायन कर रहे हैं
और यही इस दौर की सबसे विकराल महामारी है

अगर नहीं तो
एक ऐसे मनुष्य से मिलाओ
जिसे मनुष्य कहकर पुकारूं और वह पलटकर जवाब भी दे.

जिसे आप मुसहर कहते हैं, दरअसल वे मनुष्य हैं
महामारी के दिनों में
सब लौट जाते हैं अपने-अपने घरों की ओर

अन्न गोदामों में लौट जाते हैं
और अधिक काले दिनों की प्रतीक्षा में

मनुष्य आत्मा के सभी पाट पर कुंडी देकर
लौट जाता है अपनी देह, अपनी हड्डियों में

पानी आंख से उतरने लगता है और जमा होता है भूख के
आदिम अंधियारे कुण्ड के तलहट

फूल अपनी पंखुड़ियों में सिमटने की तैयारी करते हैं
और गंध से कहते हैं – विदा

देह की आसक्ति अपना निर्मम रहस्य खोलती है
और स्खलित उबकाई की भेंट चढ़ती है

जब सब के सब लौट रहे होते हैं उत्स, अपनी जड़ों में
तब यह मुमकिन नहीं कि चूहे न लौटें अपने खंदकों की ओर

इसी बीच संवेदना की परीक्षा के प्रश्न पत्र जैसी खबर आती कि
मुसहरों ने भूख से आकुल घास खाना शुरू कर दिया है

ठीक इसी समय
मनुष्यता के मरघट की राख से सना मेरा अधमरा मन चीखना
चाहता है –

जिसे आप मुसहर कहते हैं, दरअसल वे मनुष्य हैं.

कुछ भूख से मरे, कुछ भय से
जो आस्तिक थे वे ईश्वर की कृपा से मरे
कुछ खुशी से मरे की छोटी होंगी अब बैंक की कतारें

जो हड्डियों के आखिरी हिलोर तक सरकार से सवाल करते
हुए लड़ सकते थे
वे मरे सरकार की बेशर्म हिंसक हंसी से

महामारी से बचाव का घिनौना तर्क देते हुए पुलिस ने
जिनकी जर्जर पीठ पर लाठियों के काले-लाल फूल रोपे थे
उनके प्रियजन उस फूल की गंध से मारे गए

कुछ अपनी अश्लील आरामकुर्सी पर
लालच और लिप्साओं का जहर खाकर मरे पड़े मिले

कुछ तो सिर्फ यह देखकर मर गए कि
इस कब्रिस्तान में उनके लिए कोई जगह नहीं बची है

कुछ को घर लौटने के रास्तों ने मारा
इस तरह से वे उन मुठ्ठीभर लोगों में हुए
जो किसी मुहावरे के बाहर अब भी
प्रेम के लिए चुपचाप मर सकते थे

कुछ को घृणा ने मारा, कुछ को शक्ति ने
कुछ को ऐश्वर्य ने मारा, कुछ को भक्ति ने

महामारी में मरने वाले सब के सब लोग
महामारी से नहीं मरे थे.

जाति की महामारी
सभ्यता के दक्खिन में चारो दिशाओं से जिस रात धू धू धुंआ उठा
और देखते ही देखते मनुष्य से मवेशी तक
सब के सब राख में बदल गए

कहते हैं तब जसोदा चाची आठ माह पेट से थी
यह रहस्य उस अजन्मे के साथ गया कि
घृणा की आग से उठते धुंए से दम घुटने लगे तो
करुणा का गर्भ हमें कब तक जिंदा रख सकता है

निरपत हरिजन का पूरा का पूरा गांव सिर्फ इसलिए जला
दिया जाता है कि
उन्होंने अपने मनुष्य होने के पक्ष में गवाही दी थी

यदि आपके गणित और समाजशास्त्र को जाति का
गेंहुअन न डसा हो तो
सोचकर बताइये कि पिछली सदी की कोइलारी में
कोयला खोदते खदान में दफ्न होकर आपकी
कार का ईंधन हो गए लोग कौन हैं

बताइये तो जरा
वे लोग कौन हैं जो भरी जवानी में दिहाड़ी करने
सूरत, बम्बई, कलकत्ता, गुजरात गए
जिन्होंने आपके शहर की चिमनियों और मिलों को
बंद नहीं होने दिया
और जो दुर्दिन में घर लौटते हुए सरकारी निर्देशों से मारे गए

क्या आप बता सकते हैं कि
जमींदार के भय की बेगारी करती हुई
हड्डियों की हवस के अंधेरे गोदामों तले
कितनी अवर्ण स्त्रियों के लिए बलात्कार दिनचर्या में
शामिल कर दिया गया

क्या आप बता सकते हैं कि कितने भुइधर धोबी के पीठों पर
ब्याज के कोड़ों के निशान कभी नहीं धुले

खदानों में, मिलों में, मशीनों में समा गए लोग
कौन थे, कहां से आये थे
आपने कभी नहीं सोचा कि वे किस महामारी के शिकार हुए
यदि आपने भाषा पर डाका नहीं डाला होता तो वे बोलते –
जाति वह भीषण महामारी है
जो न गला पकड़ती है
न सांस जकड़ती है
न फेफड़ों को रोक देती है काम पर जाने से
यह आदमी के गुप्तांग में पेचकस घुसेड़ देती है
यह औरत के यौनांग में पत्थर घुसेड़ देती है

यदि आपका इतिहास चांदी के चम्मच से घृणा का खीर
खाकर नहीं जवान हुआ है तो
आप सोच पाएंगे कि
जाति की महामारी से मारे गए लोगों की तुलना में
जैविक महामारी में मारे गए लोगों की संख्या कुछ नहीं है.