वर्ष - 28
अंक - 39
14-09-2019
– प्रदीप झा

भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि की रफ्तार मंद पड़ने की चर्चा कुछ समय पहले से ही चल रही थी. लेकिन, वित्तीय वर्ष 2019-20 (विव19) की पहली तिमाही, यानी अप्रैल-जून 2019 में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि दर 5 प्रतिशत तक गिर जाने के बाद यह चर्चा खासी तेज हो गई है. सरकार के एक महत्वपूर्ण प्रवक्ता और मंत्री प्रकाश जावडेकर को भी यह तथ्य स्वीकार करना पड़ा, हालांकि उन्होंने इस समस्या को “तात्कालिक” बताया और कहा कि यूपीए सरकार के दौरान (2013) भी जीडीपी में वृद्धि दर 5 प्रतिशत से भी कम (4.3 प्रतिशत) पर आ गई थी. मगर, श्रीमान जावडेकर ने इस सच्चाई को ढंक दिया कि मौजूदा हालात कुछ ज्यादा ही गंभीर हैं, और कि यह 5 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि दर न केवल मोदी शासन काल की सबसे कम वृद्धि दर है, बल्कि यह भी कि पिछली पांच तिमाहियों से यह वृद्धि दर लगातार गिरती जा रही है. खुद यह तथ्य ही उनके इस दावे को झुठला देती है कि यह समस्या “तात्कालिक” किस्म की है !

देश की सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक संस्था रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने 2018-19 के लिए जारी की गई अपनी ‘वार्षिक रिपोर्ट’ में कहा है कि अनेक क्षेत्रों में – विनिर्माण, व्यापार, होटल, परिवहन, संचार व प्रसारण, निर्माण और कृषि – में यह गिरावट देखी जा रही है. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की ‘वास्तविक’ जीडीपी वृद्धि 2014-18 के बीच 7.7 प्रतिशत रही थी और 2018-19 की प्रथम तिमाही में वह 8 प्रतिशत तक चली गई थी; लेकिन 2018-19 की बाकी तीन तिमाहियों में यह वृद्धि गिरने लगी और 2019-20 की पहली तिमाही में वह 5.8 प्रतिशत तक आ गिरी (पाठकों की सुविधा के लिए हम यह बता दें कि यह ‘वास्तविक’ – नाॅमिनल – जीडीपी वृद्धि की गणना उसी खास अवधि के लिए की जाती है, जबकि आम तौर पर किसी वर्ष को आधार वर्ष मानकर जब गणना की जाती है, यानी जब इस गणना में मुद्रास्फीति – इन्फ्रलेशन – के कारक को ध्यान में रखा जाता है, तो यह तुलनात्मक वृद्धि होती है जो अमूमन वास्तविक वृद्धि से कुछ कम होती है).

बैंक ने कहा कि वृद्धि दर में यह कमी 2019-20 की दूसरी तिमाही में और उजागर होती है, क्योंकि वृद्धि के कुछ महत्वपूर्ण वाहक – खास तौर पर, (निजी) निवेश – में गिरावट आई है. ऑटोमोबाइल और अन्य उपभोक्ता सामग्रियों समेत कई क्षेत्रों में मांग में कमी, उत्पादन में कटौती और ले-ऑफ जैसी चीजें दिखाई पड़ रही हैं.

पिछली पांच तिमाहियों से जीडीपी वृद्धि दर के गिरते जाने की पुष्टि राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा जारी आंकड़ों से भी होती है. इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र में जहां वि. व. 2018-19 की पहली तिमाही में वृद्धि दर 12.1 प्रतिशत रही थी, वहीं वि. व. 2019-20 की पहली तिमाही में चिंताजनक गिरावट के साथ वह 0.6 प्रतिशत पर आ गई; इन्हीं तुलनीय अवधियों में कृषि, वानिकी व मत्स्य क्षेत्र में यह वृद्धि दर क्रमशः 5.1 प्रतिशत और 2.0 प्रतिशत रही; जबकि निर्माण (कंस्ट्रक्शन) के लिए यह वृद्धि क्रमशः 9.6 और 5.7 प्रतिशत तथा वित्तीय, रियल इस्टेट (जमीन के कारोबार) व पेशेवर सेवाओं के लिए वृद्धि क्रमशः 6.5 और 5.9 प्रतिशत रही. अगर सकल मूल्य वर्धन (ग्राॅस वैल्यू ऐडेड) की बात करें तो इसमें इन अवधियों के दौरान क्रमशः 7.7 प्रतिशत और 4.9 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है. जीडीपी का एक अन्य महत्वपूर्ण अंग व्यापार संतुलन (आयात के मुकाबले निर्यात) भी होता है.

यह संतुलन भी नकारात्मक ही रहा है. भारत के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने लोकसभा में पूछे गए प्रश्न के लिखित जवाब में स्वीकार किया है कि पिछले तीन वर्षों में दक्षिण कोरिया, जापान, जर्मनी, इराक और सऊदी अरब समेत दुनिया के 25 प्रमुख देशों के साथ भारत के आयात और निर्यात के बीच की खाई निरंतर बढ़ती गई है. उन्होंने बताया कि सामग्रियों और सेवाओं को मिलाकर भारत का समग्र व्यापार घाटा वित्तीय वर्ष 2017-18 में 84.45 अरब डाॅलर के मुकाबले विव 2018-19 में बढ़कर 103.63 अरब डाॅलर हो गया.

मंदी: चक्रीय या ढांचागत?

आर्थिक वृद्धि में मंदी को लेकर दो किस्म से चर्चाएं की जा रही हैं. सरकार और इसके राजनीतिक नुमाइंदे तो इसे “तात्कालिक” बताकर चलता कर दे रहे हैं. लेकिन उसकी आर्थिक टीम के सदस्यों के बीच इसको लेकर कोई मतैक्य नहीं बन पा रहा है. सरकार के थिंक टैंक ‘नीति आयोग’ के अध्यक्ष राजीव कुमार ने हाल में दावा किया कि मौजूदा आर्थिक मंदी (स्लोडाउन) स्वतंत्र भारत के 70 वर्षों के इतिहास में अभूतपूर्व है, और उन्होंने खास-खास उद्योगों के लिए फौरन नीतिगत हस्तक्षेप करने का आह्वान किया. प्रधान मंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार के. सुब्रमनियन ने उद्योग-विशेष प्रोत्साहनों के विचार को खारिज करते हुए भूमि और श्रम बाजारों में ढांचागत सुधार लाने का प्रस्ताव रखा. वहीं आरबीआई ने इस संकट को ‘चक्रीय’ चरित्र का बताया है और आशा व्यक्त की है कि चंद मौद्रिक नीतियों व सरकारी निवेश के जरिए इसे जल्द ही काबू कर लिया जाएगा. इन मौद्रिक नीतियों में सर्वप्रमुख है बैंकों के द्वारा ब्याज दर कम किया जाना. तथ्य तो यह है कि बैंक इस वर्ष दो बार ब्याज दर घटा चुका है, और आने वाले दो-तीन महीनों में फिर से ब्याज दर कम करने की पूरी संभावना है. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने कुछ दिन पहले केंद्र सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपये की विशाल धन राशि दी है (दरअसल, उसे यह राशि देने को मजबूर ही किया गया था). बैंक ने सरकार को यह विशाल सार्वजनिक कोष की राशि सार्वजनिक कल्याणकारी योजनाओं में निवेश करके आम लोगों की आमदनी और फलतः उनकी क्रय शक्ति बढ़ाने के मकसद से दी है. किंतु, केंद्र सरकार इसे किस तरह से इस्तेमाल करेगी, यह तो आने वाला समय ही दिखाएगा.

बहरहाल, हम देख रहे हैं कि आर्थिक वृद्धि में मंदी की मार किसी एक-दो क्षेत्र तक सीमित नहीं है; बल्कि इसका असर आर्थिक गतिविधि के समूचे दायरे पर पड़ा है. अर्थतंत्र के तीन बुनियादी क्षेत्र हैं – कृषि, उद्योग और सेवा. यह तो साफ देखा जा रहा है कि सरकार की नीतियों (कृषि सब्सिडी को लगातार कम करते जाना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को तहस-नहस करना, न्यूनतम समर्थन मूल्य को नहीं बढ़ाना, फसलों की सरकारी खरीद प्रणाली को नष्ट करना, सिंचाई-भंडारण-विपणन की सुविधाओं की घोर उपेक्षा, आदि) के चलते आम किसानों की आमदनी लगातार कम होती जा रही है और नतीजतन उपभोक्ता के बतौर उनकी खरीदने की ताकत भी घटती जा रही है. ‘मनरेगा’ व अन्य कल्याणकारी योजनाओं के मद में लगातार बजटीय आवंटन में कटौती करके कृषि व ग्रामीण मजदूरों की आमदनी भी गिराई जा रही है (ताकि छोटे किसान और खेत मजदूरों की विशाल आबादी शहरी असंगठित मजदूर बनकर पूंजीपतियों और बड़े ठेकेदारों के लिए सस्ते श्रम की आपूर्ति कर सकें). लेकिन कुल मिलाकर इसका असर यह पड़ा कि विशाल ग्रामीण आबादी के बीच ‘उपभोक्ता मांग’ की मानसिकता भी लगातार गिरती गई.

जहां तक उद्योग क्षेत्र का सवाल तो वहां भी वृद्धि दर में काफी गिरावट देखी जा रही है. ऑटोमोबाइल सेक्टर के संकट पर काफी चर्चा हो रही है. इस क्षेत्र की सभी कंपनियां पैसेंजर और मालवाही वाहनों के उत्पादन में कटौतियां कर रहे हैं. मारूति-सुजुकी ने 3000 ठेका मजदूरों की छंटनी कर दी है और आने वाले समय में आशंका जताई जा रही है कि ऑटोमोबाइल क्षेत्र के ‘वैल्यू चेन’ (यानी, उत्पादन से लेकर वास्तविक उपभोक्ताओं के हाथों उसकी बिक्री की संपूर्ण प्रक्रिया) से लगभग 10 लाख श्रमिकों की छंटनी हो सकती है. इधर कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस और रिफायनरी उत्पादन घटने से आठ बुनियादी उद्योगों की वृद्धि दर जुलाई 2019 में लुढ़क कर 2.1 प्रतिशत पर आ गई है. जबकि, 2018 के जुलाई माह में यह वृद्धि दर 7.3 प्रतिशत रही थी. इन आठ उद्योगों में उपर्युक्त उद्योगों के अलावा उर्वरक, इस्पात, सीमेंट और बिजली आते हैं; और औद्योगिक उत्पाद सूचकांक (आइआइपी) में इन आठ उद्योगों का हिस्सा 40.27 प्रतिशत बनता है. जुलाई 2018 से जुलाई 2019 के बीच इस्पात, सीमेंट और बिजली क्षेत्रों की वृद्धि दर में भी गिरावट आई है. इस्पात क्षेत्र की वृद्धि दर घटकर 6.6 प्रतिशत रह गई जो जुलाई 2018 में 6.9 प्रतिशत थी. इसी अवधि में सीमेंट क्षेत्र में भी यह वृद्धि दर 11.2 प्रतिशत से घटकर 7.9 प्रतिशत हो गई; और बिजली क्षेत्र में उत्पादन की वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत से कम होकर 4.2 प्रतिशत रह गई. एक मात्र उर्वरक के उत्पादन में नाम मात्र की वृद्धि हुई है – 1.3 प्रतिशत से बढ़कर 1.5 प्रतिशत. सीमेंट उत्पादन की वृद्धि दर में गिरावट का साफ मतलब है निर्माण क्षेत्र की वृद्धि में कमी (इस क्षेत्र में गिरावट की चर्चा हम पहले कर चुके हैं).

यहां तक कि काॅरपोरेट कंपनियों को भी परेशानी झेलनी पड़ रही हैं. बैंक, वित्तीय कंपनियों, टीसीएस और रिलायंस को छोड़कर 548 कंपनियों के राजस्व में वर्षवार (इयर टु इयर) 4 प्रतिशत की ही तुच्छ वृद्धि हुई है; दरअसल इन कंपनियों के मुनाफे में वर्षवार 27 प्रतिशत की गिरावट आई है. कई बड़ी कंपनियों, यथा – टाटा मोटर्स, वोडाफोन आइडिया और भारती एयरटेल, में तो घाटा दर्ज हुआ है. प्रमुख ऑटोमोबाइल उत्पादक कंपनियों ने विगत जुलाई माह में अपने उत्पादों की घरेलू बिक्री में 50 प्रतिशत तक की गिरावट आने की घोषणा की है. इस क्षेत्र के बाजार के प्रमुख विक्रेता मारुती-सुजुकी ने भी बिक्री में 36.2 प्रतिशत की गिरावट बताई है.

औद्योगिक क्षेत्र की वृद्धि दर में इस गिरावट का सीधा असर रेलवे की माल ढुलाई पर पड़ा है जिसे आम तौर पर अर्थतंत्र की सेहत का संकेतक समझा जाता है. इस वर्ष के अगस्त माह में कोयला की ढुलाई काफी हद तक कम हो गई और सीमेंट, खंगरी (‘क्लिंकर’ या धातुमल) और अन्य सामग्रियों की ढुलाई में भी कमी आई है. समग्र सेवा क्षेत्र की बात करें तो इसकी वृद्धि दर में भी कमी देखी जा रही है. जीडीपी में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी की वृद्धि 2018-19 में 7.5 प्रतिशत रही, जबकि 2017-18 में वह 8.1 प्रतिशत थी. दूसरी बार बनी केंद्र की भाजपा सरकार ने भी बताया है कि टूरिज्म, ट्रेड, होटल, परिवहन, संचार, लोक प्रशासन और प्रतिरक्षा जैसे सेवा प्रक्षेत्रों की वृद्धि दर में कमी हुई है.

किसी भी अर्थतंत्रा का सकल घरेलू उत्पाद ;जीडीपीद्ध चार तत्वों से मिलकर बना होता है – निजी उपभोग और खर्च, निवेश (निजी), सरकारी खर्च, तथा शुद्ध निर्यात (कुल निर्यात और कुल आयात का फर्क). आर्थिक संकेतक हमें बताते हैं इन चारो अवयवों की क्या स्थिति बन रही है, और यह भी बताते हैं वि.वि. 2019 की पहली तिमाही में आर्थिक गतिविधियां किस प्रकार मंद पड़ी हैं.

उपभोग: यह भारतीय अर्थतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है और इससे जीडीपी का लगभग 60 प्रतिशत निर्मित होता है. इसमें आई कोई भी कमी अथवा मंदी समूचे अर्थतंत्र को प्रभावित करती है. अगर बैंकों द्वारा दिए गए खुदरा ट्टण को छोड़ दें, तो बाकी के तमाम मानदंडों में संकुचन दिख रहा है जो विभिन्न तरीकों से उपभोग में आई गिरावट को रेखांकित करते हैं. इन मानदंडों में कुछ प्रमुख मानदंड हैं: घरेलू कारों की बिक्री, दो-पहिया वाहनों की बिक्री, ट्रैक्टरों की बिक्री, घरों की खरीद, बैंकों द्वारा दिया गया खुदरा ट्टण, तीव्र गति वाली उपभोक्ता सामग्रियों के उत्पादन में वृद्धि, आदि.

निजी निवेश: किसी भी अर्थतंत्रा में जीडीपी की वृद्धि को बरकरार रखने के लिए लगातार नए निवेशों की काफी अहमियत होती है. इसकी वजह बिल्कुल साफ है. नए निवेश नए रोजगार पैदा करेंगे, जिससे आमदनी और खर्च में वृद्धि होगी और अंतिम नतीजे के बतौर आर्थिक वृद्धि होगी. दुर्भाग्यवश, निवेश के मोर्चे पर भी हालात बिगड़ते जा रहे हैं. अप्रैल-जून 2019 में जितनी नई परियोजनाओं की घोषणा की गई है उनका कुल मूल्य पिछले वर्ष की इसी अवधि में घोषित परियोजनाओं के कुल मूल्य की बनिस्पत 79.5 प्रतिशत कम है. निरपेक्ष अर्थ में कहें तो अप्रैल-जून 2019 के बीच घोषित परियोजनाओं का कुल मूल्य 71,337 करोड़ रुपया है जो सितंबर 2004 के बाद का निम्नतम स्तर है. यह इस तथ्य का सबसे बड़ा संकेतक है कि जनता के बीच सरकार और उसकी संस्थाएं जो भी कह लें, भारत के आर्थिक भविष्य के बारे में खुद व्यवसाय जगत का भरोसा नहीं रह गया है.

सरकारी खर्च: सरकारी खर्च भारतीय अर्थतंत्र के लगभग 10-11 प्रतिशत हिस्से का निर्माण करते हैं (इसमें मुद्रास्फीति को समंजित नहीं किया गया है). पिछले दो वित्तीय वर्षों में सरकारी खर्च में क्रमशः 19.1 प्रतिशत और 13.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, जो 2008-09 और 2009-10 के वित्तीय संकट के वर्षों के बाद की सर्वाधिक वृद्धि थी और जिसने कुछ हद तक समग्र आर्थिक वृद्धि को भी प्रेरित किया था. अब 2019-20 में क्या स्थिति है ? सरकार ज्यादा खर्च करे, इसके लिए सरकार के कर-राजस्व में वृद्धि जरूरी है. लेकिन, ठीक इसी मोर्चे पर सरकार की स्थिति सबसे बुरी है. अप्रैल-जून 2019 के बीच केंद्र सरकार के कर राजस्व में मात्र 1.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि में सकल कर राजस्व में 22.1 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई थी. इसका मतलब स्पष्ट है कि सरकार को आर्थिक मंदी की आंच झुलसाने लगी है. और तब, यह सवाल मौजूं बन जाता है कि पिछले दो वर्षों की तरह क्या इस वर्ष और आने वाले वर्षों में भी वह खर्च करने की क्षमता अपने अंदर पैदा कर सकेगी?

शुद्ध निर्यात: अप्रैल-जून 2019 के दौरान शुद्ध निर्यात का आंकड़ा -46 अरब डाॅलर रहा है (यानी, आयात के मुकाबले हमने 46 अरब डाॅलर मूल्य का कम निर्यात किया है). पिछले वित्तीय वर्ष की इसी अवधि में यानी अप्रैल-जून 2018 में भी, यह आंकड़ा कमोबेश इतना ही रहा था (-46.6 अरब डाॅलर). इससे यह तो पता चलता है कि निर्यात के मोर्चे पर भी हमारी आर्थिक गतिविधियों में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है; बल्कि, कई संकेत मिल रहे हैं – जिसका स्थानाभाव के कारण हम यहां जिक्र नहीं कर पा रहे हैं – कि आने वाले दिनों में इस मोर्चे पर भी स्थिति बदतर होने की प्रबल संभावना है.

निष्कर्ष के बतौर

अब हम यकीन के साथ यह कह सकते हैं कि ये तमाम संकेतक स्पष्ट आर्थिक मंदी की तस्वीर खींच रहे हैं. इसे हम महज ‘स्लोडाउन’ कहकर संतुष्ट नहीं हो जा सकते हैं. जिसे आरबीआइ ‘चक्रीय’ किस्म की समस्या बता रहा है, स्थिति उतनी सहज नहीं है – यह संकट ढांचागत (इंफ्रास्ट्रक्चरल) है. इसीलिए (बैंक का संरक्षित कोष जबरन हथिया कर) केवल सरकारी खर्च में कुछ बढ़ोत्तरी करके, काॅरपोरेट लाॅबी को ‘बेल आउट’ पैकेज देकर अथवा ब्याज दर घटाकर इस संकट पर काबू नहीं पाया जा सकता है. इसके लिए समग्र आर्थिक नीति ढांचे में आमूलचूल बदलाव लाना जरूरी है.

लेकिन सबसे मुश्किल बात तो यह है कि जहां प्रबुद्ध और विवेकशील आर्थिक चिंतकों तथा विश्लेषकों की पूरी जमात इस सर्वव्यापी मंदी को साफ-साफ देख रही है – यहां तक कि औद्योगिक जगत की जानी-मानी शख्सियत राहुल बजाज ने भी व्यवसाइयों की एक बैठक में कहा कि देश में गहरा आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है; वहीं सरकार और उसकी अधिकांश आर्थिक संस्थाएं तथा तलवाचाटू मुख्यधारा मीडिया की निगाह में यह कोई खास ध्यान देने योग्य समस्या है ही नहीं. अभी-अभी केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इसे बड़ी सहजता से टाल देने के अंदाज में कहा कि “जीडीपी में गिरावट आर्थिक वृद्धि चक्र का अभिन्न अंग होता है”. सवाल यह उठता है कि अगर आप समस्या को उसकी पूरी गंभीरता और समग्रता में नहीं समझेंगे, तो उसका समाधान भी कैसे कर पाएंगे?