वर्ष - 28
अंक - 28
29-06-2019
– कुमार परवेज

नरेन्द्र मोदी की दूसरी पारी की सरकार का गठन होते ही नए मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली 2017 में बनी शिक्षा सुधार मसौदा समिति के मसौदे को 1 जून 2019 को जारी कर दिया. इस पर विचार-विमर्श के लिए 31 जून तक का समय दिया गया है. मोदी सरकार की पहली पारी में जनवरी, 2015 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नई शिक्षा नीति का विमर्श पत्र जारी किया था, जिसमें पंचायत से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक विमर्श-प्रक्रिया का उल्लेख किया गया था. फिर पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमनियम (अब दिवंगत) की अध्यक्षता में ‘नई शिक्षा नीति के विकास के लिए समिति’ गठित की गई. इसके बाद पुनः 2017 में कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में 11 सदस्यों की समिति का गठन किया गया. ऐसा लगता है कि मसौदा जारी करने के लिए सरकार बस सत्ता में दुबारा लौटने का इंतजार ही कर रही थी.

आरएसएस के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ का दावा है कि पुराने ढर्रे पर चल रही शिक्षा नीति में बड़े बदलाव की जरूरत लंबे अर्से से महसूस की जा रही थी. यह मसौदा उस कमी को पूरा करता है और इसके परिणाम फलदायी होने की उम्मीद है. पत्र कहता है कि नई शिक्षा नीति के मसौदे पर शिक्षा से जुड़े लोगों ने संतोष व्यक्त किया है. हालांकि वह इस बात का भी उल्लेख करता है कि मसौदा सामने आने के बाद देश भर में हिंदी विरोधियों ने एक नकारात्मक माहौल बनाना शुरू कर दिया है कि सरकार हिंदी थोपने की मंशा रखती है. यह संदेह अकारण नहीं है. नई शिक्षा नीति पर संदेह के कुछ तो बहुत मोटे कारण दिखते हैं. जिस मसौदे को तैयार करने में सरकार की विभिन्न कमेटियों ने 5 साल से ज्यादा का वक्त लिया, उसपर विचार विमर्श के लिए सरकार महज 1 महीने का समय दे रही है. लगभग 600 पेजों का यह मसौदा इतने कम समय में विद्वानों व शिक्षाविदों के लिए भी पढ़ पाना बहुत ही मुश्किल है. आम तौर पर ऐसे मामलों में सरकार पहले 3 महीने का वक्त दिया करती थी ताकि पूरे देश में उस पर सही ढंग से विचार-विमर्श हो सके और उसमें विभिन्न विचारों को समावेशित किया जा सके.

दूसरी, महत्वपूर्ण बात है कि शिक्षा नीति का मसौदा महज दो भाषाओं में जारी किया गया है – अंग्रेजी और हिंदी में. इसको जारी करने में ही क्षेत्रीय भाषाओं की घोर उपेक्षा की गई है, और इसे महज व्हाट्सएप पर प्रचारित किया गया है. अब सरकार बताए कि इस कम तैयारी में वह एक महीने के अंदर विचार-विमर्श का कैसे सार-संग्रह करेगी? दक्षिण के राज्यों में हिंदी का प्रचार-प्रसार उस प्रकार का नहीं है. दक्षिण में अंग्रेजी भाषा भी महज 15 प्रतिशत लोग ही समझते हैं. अधिकांश लोग अपनी मातृभाषा में ही समझ सकते हैं, लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में मसौदे को प्रचारित नहीं किया गया है. इससे सरकार की असली मंशा का पता चलता है कि वह इसे पास करवाने की हड़बड़ी में है. तीसरी बात यह भी है कि 600 पेज का प्रिंट लेकर उसे पढ़ना हर किसी के बूते की बात नहीं है. यह सरकार द्वारा प्रायोजित आयोजनों से ही संभव हो सकता था. उसे अधिक से अधिक गोष्ठियां, सेमिनार आयोजित करने चाहिए थे और एक सामान्य राय बनानी चाहिए थी. लेकिन हम सब जानते हैं कि भाजपा व आरएसएस की कार्य प्रणाली कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है. इस मसले पर भी वह अपने गैर-लोकतांत्रिक चरित्र को ही प्रदर्शित कर रहे हैं, इसलिए शिक्षाविदों व आम नागरिकों के मन में इस शिक्षा नीति के मसौदे पर कई प्रकार के संदेह उत्पन्न होना बहुत स्वाभाविक हैं.

आजादी के बाद शिक्षा सुधार के नाम पर कई समितियों का गठन किया गया. दुखद पहलू यह है कि इन समितियों का मूल स्वर शिक्षा के क्षेत्र में बाजार की अवधारणा को स्थापित करने की ही रही है. राष्ट्रीय आंदोलन के कई उद्देश्यों में एक, समान शिक्षा नीति को हासिल करने की थी. लोकतंत्र, सामाजिक न्याय जैसी अवधारणाओं की प्राप्ति हेतु एक समान शिक्षा नीति पर बारंबार बल दिया गया लेकिन हम देख रहे हैं कि दिन-प्रतिदिन शिक्षा अधिक से अधिक बाजार के कब्जे में जा रही है. 1991 के बाद वैश्वीकरण के शुरूआती चरण में ही शिक्षा को पूरी तरह बाजार की वस्तु बना दिया गया और उसके बाद से राज्य धीरे-धीरे अपने संवैधानिक जवाबदेहियों से कदम-ब-कदम पीछे हटता गया. 2009 के बहुचर्चित तथाकथित शिक्षा अधिकार कानून भी बाजार की ही अवधारणा को पुष्ट करता है. भारत का संविधान 0-14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करने का दायित्व राज्य को सौंपता है. लेकिन 2009 के शिक्षा अधिकार कानून के तहत दरअसल शिक्षा के अधिकार में कटौती कर ली गई0-14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों की जगह 6-14 वर्ष आयु वर्ग तक के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने संबंधी कानून को शिक्षा अधिकार कानून करार दे दिया गया. समान शिक्षा नीति की जगह यह कानून प्राइवेट विद्यालयों में 25 प्रतिशत सीट गरीबों के बच्चों के रिजर्वेशन का प्रावधान लेकर आया2019 का शिक्षा अधिकार मसौदा भी बुनियादी तौर पर उसी निजीकरण को और शिक्षा क्षेत्र के बाजारीकरण को आगे बढ़ाता है, जिसकी अब चारों तरफ आलोचना भी शुरू हो चुकी है.

मोटे तौर पर इस मसौदे में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के जरिए उच्च शिक्षा पर स्वयं प्रधानमंत्री के सीधे राजनैतिक नियंत्रण, राज्य सरकारों के अधिकारों में कटौती, पूर्व में खारिज हो चुके चार वर्षीय अंडरग्रैजुएट प्रोग्राम को फिर से आरंभ करने, ग्रेड आधारित व वित्त आधारित स्वायत्तता को फिर से दोहराने, महंगी फीस और सेल्फ-फाइनेंसिंग को प्रोत्साहित करने, समाजिक न्याय व नियामक निकायों में हाशिए पर रखे गए समुदायों के प्रतिनिधित्व को कमजोर करने, जनसाधारण के लिए व्यापक पैमाने पर उपलब्ध सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों को तबाह करने, निजी व सार्वजनिक संस्थानों के लिए एक जैसे ही नियम लागू करने, भेदभावपूर्ण नीति को थोपने आदि पहलू शामिल हैं.

इस प्रकार आनन-फानन में लाए गए इस भारी-भरकम मसौदे को सरकार जैसे-तैसे पास करवाकर शिक्षा के क्षेत्र में अपनी मनमर्जी चलाना चाह रही है. इसका हर स्तर पर विरोध होना चाहिए.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे पर आइसा का वक्तव्य
मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय द्वारा गत 31 मई को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 जारी की गई. इस के मसौदे में उच्च शिक्षा को बर्बाद करने के लिए प्रस्तावित कुछ विनाशकारी सूत्र इस प्रकार हैं –

  • राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के ज़रिए उच्च शिक्षा पर स्वयं प्रधानमंत्री का सीधा राजनैतिक नियंत्रण.
  • राज्य सरकारों के शिक्षा नीति बनाने के अधिकारों में कटौती.
  • पूर्व में खारिज किए जा चुके चार वर्षीय अंडरग्रैजुएट प्रोग्राम को फिर से शुरू करना.
  • ग्रेड आधारित और वित्त आधारित स्वायत्तता को फिर से दोहराना – महंगी फीस और सैल्फ-फाइनेंसिंग को प्रोत्साहित करने की साज़िश.
  • सामाजिक न्याय और नियामक निकायों में हाशिए पर रखे गए समुदायों के प्रतिनिधित्व को कमजोर कर देने की साज़िश.
  • व्यापक पैमाने पर जनसाधारण के लिए सुलभ सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों को तबाह करने के इरादे से निजी और सार्वजनिक संस्थानों के लिए एक जैसे ही नियम लागू करना, उन्हें समान महत्व देना.

जुमलों और शब्दजाल से भरा राष्ट्रीय शिक्षा नीति का यह मसौदा उच्च शिक्षा के खिलाफ मोदी सरकार की उस भेदभावपूर्ण नीति को थोपने का एक और प्रयास है जिसके खिलाफ हम पिछले पांच साल से संघर्ष कर रहे हैं.

बहुतेरे शिक्षाविदों ने इस मसौदे में प्रस्तावित उच्च शिक्षा के स्वरूप के विरोध में अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं. यहां इस मैसेज में इन प्रतिक्रियाओं का लिंक दिया भी गया है.

आइसा मांग करता है कि यह मसौदा दोबारा तैयार किया जाए. इस ड्राफ्रट में अनेकों बार प्राचीन भारत का जिक्र किया गया है मगर असल में यह कारपोरेट कम्पनियों को लाभ पहुंचाने और करोड़ों छात्रों को उच्च शिक्षा से दूर रखने के लिहाज से तैयार किया गया है. आइसा यह भी मांग करता है कि इस मसौदे को केवल अंग्रेजी और हिंदी में नहीं बल्कि सारी भारतीय भाषाओं में जारी किया जाय.

आइसा यह भी मांग करता है कि इस मसौदे पर प्रतिक्रिया देने की अंतिम तिथि को बढ़ा कर जुलाई के अंत तक सरका दिया जाए ताकि लोग इस विशालकाय ड्राफ्रट को अपनी अपनी भाषा में तफसील से पढ़ कर प्रतिक्रिया दे सकें.