वर्ष - 28
अंक - 29
06-07-2019
– अनिता मजुमदार
(कोलकाता से प्रकाशित बांग्ला महिला त्रैमासिक पत्रिका ‘समकालीन प्रतिबिधान’ के शरद विशेषांक, 2001 में छपे मूल लेख से अनूदित, समकालीन प्रकाशन, पटना द्वारा प्रकाशित हिंदी पुस्तिका ‘चारु मजुमदार: व्यक्तित्व और विरासत’ से साभार – सं.)

1962 में भारत-चीन युद्ध के परिणामस्वरूप जेल की सजा काट कर जब मेरे पिता लौटे तब मेरा ध्यान एक ऐसी चीज के प्रति गया जो उनमें पहले कभी नहीं देखी थी – कह सकते हैं कि एक तरह की बेचैनी, ऐसा लगता था कि वे किसी नई चीज की तलाश में हैं. उन्हें पहला दिल का दौरा 1964 में पड़ा. तबसे वे पूरा-पूरा दिन अपनी पसंदीदा आराम कुर्सी पर अधलेटे लिखते पढ़ते रहते. वे अक्सर गांवों में भी जाया करते. घर पर भी उनसे मिलने कई तरह के लोग समूहों में आते – मुख्यतः छात्र-नौजवान – जिन्हें हम पहले से नहीं जानते थे.

इनसे बातचीत के क्रम में मैंने जाना कि वे हमारे देश के क्रांतिकारी रूपांतरण के महान स्वप्न में पूरी तरह डूबे हुए हैं. वे जोर देकर कहते कि यह निश्चय ही संभव है यदि भारत की ठोस परिस्थितियों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओ त्से-तुंग विचार को सही तरीके से लागू किया जाए – इस उद्देश्य के लिए उन्हें नए किस्म के लोगों की जरूरत थी – ऐसे लोग जो न केवल मौत के भय को जीत चुके हों, बल्कि जो खुद अपने व्यक्तित्व का क्रांतिकारी रूपांतरण करते हुए किसानों-मजदूरों के साथ एकमेक हो सकें.

कुछ दिनों बाद मैंने दस युवा ‘काका’ (जैसा मैं उन्हें संबोधित करती थी) लोगों को देखा जो अपना घर-बार, परिचित परिवेश, पढ़ाई-लिखाई और करियर छोड़कर गांवों में क्रांति की जमीन तैयार करने निकल पड़े थे. यह मेरे लिए सीखने लायक बहुत बड़ी बात थी. मैंने भारतीय क्रांति के इन नए कर्णधारों को समझना और उनका आदर करना सीखा.

1967 में नक्सलबाड़ी विद्रोह हुआ. जब कामरेड बाबूलाल विश्वकर्मकार के शहीद होने का समाचार मेरे पिता को पहुंचा, तो यह आघात उनके लिए अपने प्यारे कामरेड के गहरे शोक और उन पर गर्व के विचित्र भावनात्मक मेल जैसा था. उन्होंने अपने कमरे में चहलकदमी करते हुए मुझे कामरेड बाबूलाल के बारे में एक टिप्पणी बोल कर लिखाई.

कुछ समय बाद कामरेड पंचाडि कृष्णमूर्ति मेरे घर आए और कुछ दिन रुके. आंदोलन देश के कई हिस्सों में फैल रहा था.

1969 का साल आता है. पिता बेचैन होने लगते हैं. मैं और मेरी मां, दोनों समझ जाते हैं कि वे फिर से भूमिगत हो जाने को बेचैन हैं. लेकिन वे बीमार थे, उन्हें हर दिन एक बार से ज्यादा सीने में भयानक दर्द उठता, अकसर उन्हें पेथिडीन लेना पड़ता और राहत के लिए सांस के रास्ते आक्सीजन भी. ऐसे में उनके लिए आश्रय की व्यवस्था करना मुश्किल था. बावजूद इसके. वे कोलकाता अक्सर जाया करते. 18 जून को उनके घर छोड़ने के बाद से लंबे समय तक उनके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिली. अब हम समझ गए कि वे एक बार फिर घर छोड़ कर अपने प्रिय कामरेडों के साथ लड़ाई में मैदान में होंगे. उस समय मैं कक्षा दस में पढ़ती थी, मेरी छोटी बहन कक्षा आठ में तथा छोटा भाई कक्षा तीन में पढ़ रहे थे.

समय बीतता गया. एक दिन पुलिस घर की तलाशी लेने आई. मां ने हमसे कहा, “ये हमें गिरफ्तार कर सकते हैं, ऐसे में डरने की कोई जरूरत नहीं है.” वास्तव में उन्होंने हमारी चल संपत्ति जब्त कर ली. बाद में भी कई दफा पुलिस हमारे घर की तलाशी लेने आती रही. ऐसे हर मौके पर मां पहले तो तलाशी वारंट की मांग करती और उसके बाद उनसे सर्विस रिवाल्वरों को घर के बाहर ही रखने को कहतीं (इसलिए कि कहीं वे हमारे घर के किसी कमरे से अचानक कोई रिवाल्वर न बरामद कर लें).

सन 1970 और ’71 के बीच हम पिता से गुप्त रूप से मिलते रहे. पार्टी इसकी व्यवस्था करती थी. इस तरीके से आखिरी बार मैं उनसे 1971 की फरवरी में मिली.

मैं 1972 की जनवरी में प्री-मेडिकल की पढ़ाई के लिए कोलकाता आ गई. 17 जुलाई को दो पुलिसवाले हमारे होस्टल आए. उन्होंने बताया कि पिता गिरफ्तार हो गए हैं और मुझे लाल बाजार पुलिस हेडक्वार्टर चलने को कहा. मेरी पहचान अब गुप्त न रह सकी. कांग्रेस पार्टी के प्रति वफादार सीनियर विद्यार्थी मेरा मजाक उड़ाते. सुबह 11 बजे मैं लाल बाजार गई और केंद्रीय हवालात में पिता से मिली. मुझे वहां कहीं भी आक्सीजन सिलिंडर नहीं दिखा. वे खास बीमार नहीं दिख रहे थे. बल्कि हमने इससे कहीं बदतर हालत में उन्हें पहले देखा था. लेकिन हम दोनों को ही यह आभास हो गया कि सरकार उन्हें जिंदा नहीं रहने देगी. लिहाजा हमें अंतिम घड़ी का सिर्फ इंतजार करना था.

मेरी मां, बहन और भाई भी पिता को देखने सिलिगुड़ी से आ गए. हम उनसे हवालात में दो-तीन बार मिले. फिर उन्होंने मां से कहा : कितने दिन तुम यहां रुकी रहोगी? बेहतर है कि सिलिगुड़ी लौट जाओ.

25 जुलाई के दिन हम उनसे अंतिम बार मिले. 28 जुलाई को सुबह 8 बजे पुलिस एक बार फिर मेरे होस्टल आई. पुलिस वालों ने मुझसे कहा कि तुम्हारे पिता गंभीर हालत में पी.जी. हास्पिटल में भर्ती हैं और तुमसे मिलना चाहते हैं. मुझे तुरंत ही समझ में आ गया कि एक निकृष्ट किस्म का झूठ मुझसे बोला जा रहा है. पिता कभी भी पुलिस से इस तरह का अनुरोध नहीं कर सकते थे.

जो हो, मैं पी.जी. हास्पिटल पहुंच गई. पुलिस का भारी बंदोबस्त था और इधर उधर कुछ लोग झुंड बनाए दिख रहे थे. उनके केबिन के दरवाजे से ही मुझे दिख गया कि पिता के शरीर पर सफेद चादर पड़ी हुई है और सर के नीचे तकिया नहीं है. मैं समझ गई कि सब खत्म हो चुका था. लेकिन न जाने क्यों मुझे बिलकुल रोना नहीं आया. एक गर्व की भावना मेरे हृदय में भर गई: आखिरकार मेरे पिता ने भी क्रांति की वेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे!

मैंने उनके सीने पर रखे एक कागज के टुकड़े पर लिखे ‘मृत्यु के कारण’ को सावधानीपूर्वक याद कर लिया: ‘इस्चीमिक हार्ट डिजीज विद कंजेस्टिव कार्डिएक फेल्योर’. नर्सों का एक रेला आया और उन सबने प्रणाम करके उन्हें शांतिपूर्ण श्रद्धांजलि दी. मैंने महसूस किया कि वे सिर्फ मेरे पिता नहीं थे बल्कि अन्य लोगों के लिए भी पिता-तुल्य थे. उनका एक अंतर्दृष्टिपूर्ण कथन मुझे याद आया : “लोग अपनी खातिर ही क्रांति में शामिल होते हैं.”

मेरे परिवार के लोग शाम को कोलकाता पहुंच गए और रात के गहन अंधकार में भारी पुलिस बंदोबस्त के बीच केवड़ातला शवदाह-गृह में उनका पार्थिव शरीर अग्नि को समर्पित कर दिया गया. मैं जानती थी कि यह शोक सिर्फ मेरे परिवार का ही नहीं, बल्कि हजारों अन्य लोगों का भी था. मुझे विश्वास था कि इस झटके से क्रांति का ज्वार थमेगा नहीं, क्योंकि कोई भी एक व्यक्ति क्रांति के लिए अपरिहार्य नहीं है. अपने हृदय के अंतरतम में मुझे विश्वास था, और आज भी है कि क्रांति अपराजेय है.

उन दिनों को बीते अब काफी समय हो चुका है 1998 में कोलकाता हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई, जिसमें मेरे पिता सहित 1970 के दशक में मारे गए महान नायकों की हत्या की न्यायिक जांच की मांग की गई थी. लेकिन वहां मुकदमा खारिज हो गया और बाद में सुप्रीम कोर्ट में भी. जाहिर है कि जो लोग सत्ता में बैठे हैं, हम उनसे इससे अलग और भला क्या अपेक्षा कर सकते हैं ? अपने सारे दुःख और घृणा को एक व्यापक जनांदोलन में तब्दील करके ही इन सत्ताधारियों को पराजित किया जा सकता है.

यहां तक कि आज भी बहुत से लोग विभिन्न अवसरों पर मिलने पर मेरे पिता के प्रति बेहद सम्मान व्यक्त करते हैं. उनकी मृत्यु के बाद मुझे अनगिनत चिट्ठियां प्राप्त हुई. मैं खास तौर पर बांग्लादेश के युवा कामरेड के पत्र के अंतिम शब्दों को याद करती हूं. “कोई शहादत बेकार नहीं जाती’ – आपके पिता का महान उत्सर्ग हमारे लिए आज वह सर्वश्रेष्ठ थाती है, जिसका हमें सहारा है.”