नेपाल के राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा विगत 10-11 मार्च को काठमांडू में ‘खाद्य संप्रभुता और किसान अधिकार’.विषय पर आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव का. का. पुरुषोत्तम शर्मा द्वारा प्रस्तुत पर्चा

 जीडीपी में कृषि का हिस्सा

भारत जब 1947 में आजाद हुआ तो उस वक्त हमारी जीडीपी में कृषि का हिस्सा 52 प्रतिशत था. हमारी आबादी का 70 प्रतिशत हिस्सा तब सीधे कृषि से जुड़ा था. जबकि आज भी हमारी आबादी का 55 प्रतिशत हिस्सा कृषि से सीधे जुड़ा है और जीडीपी में कृषि का हिस्सा लगभग 14 प्रतिशत बचा है.

कृषि में सार्वजनिक निवेश में कमी

1960-65 में भारत की कुल योजना मद का 12.16 प्रतिशत कृषि पर खर्च हुआ. जबकि 2007 की ग्यारहवीं योजना में कृषि के लिए सार्वजनिक निवेश की यह राशि घटकर 3.7 प्रतिशत रह गई. खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार अभी भारत की कृषि में बोया गया कुल क्षेत्र 140.8 मिलियन हेक्टेयर है. आजादी के 72 साल बाद भी इसमें से 78 मिलियन हेक्टेयर यानी 64 प्रतिशत क्षेत्रफल अभी भी वर्षा पर आधारित है. पर्वतीय क्षेत्रों की स्थिति और भी बुरी है. उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में 10 प्रतिशत के करीब ही सिंचित क्षेत्र है. 1990 के बाद सिंचाई बजट में कमी की जाने लगी. मोदी सरकार के हाल में पेश अंतिम बजट में तो सिंचाई बजट में लगभग 65 प्रतिशत की कटौती की गई है.

भारत में जोतों का आकार

भारत में 67 प्रतिशत किसानों की जोत का आकार 1 हेक्टेयर से कम है. जबकि 18 प्रतिशत के पास 1 से 2 हेक्टेयर जमीन है. मात्रा 2 प्रतिशत किसानों के पास ही 10 हेक्टेयर से ज्यादा भूमि है. 0.7 प्रतिशत किसानों के पास कुल खेती की जमीन का 10.5 प्रतिशत हिस्सा है. बंटवारे के बाद सीमांत व छोटी जोतों की संख्या बढ़ रही है. जबकि भूमि के कुछ हाथों में केंद्रीकरण की नीति के कारण बड़ी जोतों के आकार में बढ़ोतरी हो रही है. भारत की 45 प्रतिशत ग्रामीण आबादी भूमिहीन है जिसमें से कुछ के पास नाम मात्रा की जमीन है. भूमिहीनों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. 2001 से 2011 के बीच 90 लाख किसान खेती से बाहर हुए और खेत मजदूरों की संख्या में 35 प्रतिशत की वृ(ि दर्ज की गई.

भारत में कृषि की विकास दर

यूपीए-एक के शासन में भारत की कृषि विकास दर 3.1 प्रतिशत और यूपीए-दो के शासन में 4.3 प्रतिशत थी. भारत के किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने का दम्भ भरने वाले प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के शासन के अंतिम वर्ष भारत की कृषि विकास दर 2.7 प्रतिशत पर आ गई है. प्रधान मंत्री मोदी के वायदे को देखें तो अगले तीन वर्षों में भारत की कृषि विकास दर को 15 प्रतिशत रहना होगा जो मोदी सरकार के रिकार्ड से संभव ही नहीं है.

बढ़ती किसान आत्महत्याएं

भारतीय कृषि अपने अब तक के सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है. इस कृषि संकट ने हमारे पूरे ग्रामीण समाज को अपनी आगोश में ले लिया है. जिसके कारण भारत की ग्रामीण संरचना में भारी बदलाव आ गया है. पिछले 13 वर्षों में कर्ज में डूबे साढे़ तीन लाख से ज्यादा भारतीय किसानों ने आत्महत्या कर ली है. जबकि पिछले 2 वर्षों से भारत सरकार ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को जारी करने से राष्ट्रीय अपराध शाखा को रोक दिया है. राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 1997 से 2012 के बीच भारत में 2,50,000 किसानों ने आत्महत्या की. मोदी राज में इन आंकड़ों को जारी करने पर रोक से पूर्व ही 48,000 किसान आत्महत्याएं कर चुके थे. भारत का पंजाब प्रान्त जो हरित क्रांति के बाद पूंजीवादी कृषि के विकास का मॉडल बना, वहां भी लगभग 16,000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. इस दौर में किसान आत्महत्याओं की घटनाएं और बढ़ी हैं तथा इस संकट ने अब तक अछूते राज्यों व क्षेत्रों में भी दस्तक दे दी है.

घाटे की खेती

कृषि क्षेत्र में नव उदारवादी सुधारों से भारत में खेती घाटे का सौदा हो गयी है जिससे भारत का किसान कर्ज के जाल में फंस गया है. इसके कारण नई पीढ़ी खेती से पूरी तरह विमुख हो रही है और शहरों में पूंजीपतियों के लिए सस्ते श्रम के बाजार का निर्माण कर रही है. नेशनल सैंपल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की 70 वीं राउंड रिपोर्ट के अनुसार 1 एकड़ से कम भूमि वाले किसान की मासिक आय 1308 और खर्च 5401 रुपया है. इसी तरह 5 एकड़ तक भूमि वाले किसान को 28.5 प्रतिशत का नुकसान है. भारत में उगाई जाने वाली 23 फसलों पर अध्ययन कर एनएसएसओ ने माना कि कुल लागत मूल्य में भारी वृ(ि किसानों की आय में गिरावट की जिम्मेदार है.

कर्ज में डूबा भारत का किसान

एक अनुमान के अनुसार भारत के किसानों पर इस वक्त लगभग 11,00,000 करोड़ रुपए कर्ज है. भारत में 52 प्रतिशत किसान कर्ज में डूबा है. जिसमें से प्रति किसान पर औसत 47,000 रुपया कर्ज है. सर्वाधिक पंजाब में लगभग 3,00,000 रुपया, आंध्र प्रदेश में 1,23,400 रुपया और तेलंगाना में 93,000 रुपया प्रति खेतिहर किसान पर औसत कर्ज है.

बटाईदार किसानों को किसान का दर्जा नहीं

घाटे की खेती के कारण छोटा व मंझोला किसान अपनी जमीन को बटाई या ठेके पर दे रहा है और खुद के लिए कोई और रोजगार तलाश रहा है. गांव में कल तक जो भूमिहीन व खेत मजदूर थे उनका बड़ा हिस्सा आज अपने पारिवारिक श्रम को लगाकर बटाई या ठेके पर खेती कर रहा है. आज भारत की 60 प्रतिशत खेती बटाई या ठेके पर हो रही है, पर इन बटाईदारों को किसान का दर्जा प्राप्त नहीं है. इसके कारण बैंक कर्ज, नुकसान का मुआवजा और एमएसपी पर फसल खरीद सहित किसानों को मिलने वाली सरकारी सुविधा से वास्तविक खेती करने वाला यह 60 प्रतिशत हिस्सा वंचित रह जाता है.

बाजार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कब्जे से बढ़ी लागत

भारत में घाटे की खेती का मुख्य कारण खेती की लागत में लगातार हो रही बढ़ोतरी है. भारत के बीज बाजार पर मोंसांटो और करगिल जैसी दैत्याकार अमरीकी बीज कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है. भारत दुनिया का 8वां बड़ा बीज बाजार है. बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां 1 अरब डालर से भी ज्यादा का कारोबार करती हैं. भारत के बीज उद्योग में कॉरपोरेट का दखल 15 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है. भारत के बीज बाजार के 75 प्रतिशत से ज्यादा पर इनका कब्जा हो चुका है. सन् 1967 में भारत में गेहूं की कीमत 76 रूपए प्रति क्विंटल और खेती के यंत्र में इस्तेमाल होने वाले लोहे की कीमत 65 रूपए प्रति क्विंटल थी. आज 53 वर्ष बाद भारत में गेहूं की कीमत 1700 रुपए प्रति क्विंटल और लोहे की कीमत 5500 रुपए प्रति क्विंटल है. इन कंपनियों द्वारा उत्पादित टमाटर का बीज 40,000 रुपए किलो, गोभी का बीज 25 से 40 हजार रुपए किलो और शिमला मिर्च का बीज 1,00,000 रुपए किलो तक बेचा जा रहा है.

जमीन का मरुस्थल में बदलने का खतरा

भारत अमेरिका कृषि ज्ञान संबंधी समझौते के बाद हमारे कृषि शोध संस्थान और कृषि विश्वविद्यालय भी इन्हीं अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अधीनता में जाते जा रहे हैं. अति उत्पादन के नाम पर जीएम बीजों, रासायानिक खादों व कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग ने न सिर्फ हमारे खाद्य पदार्थों को जहरीला बना दिया है, बल्कि हमारी खेती की प्राकृतिक उत्पादन क्षमता पर भी बड़ा प्रहार किया है. पंजाब जो इस प्रयोग की प्रमुख स्थली है, आज कैंसर के मरीजों की बहुतायत वाला राज्य बन गया है. वैज्ञानिक पंजाब की जमीन के आने वाले कुछ दशक बाद मरुस्थल में तब्दील होने की आशंका जताने लगे हैं.

भारत में हरित क्रांति: गुलामी की नींव

भारत में खेती किसानी की इस दुर्दशा की कहानी 1967 से ही लिखनी शुरू हो गयी थी जब अपनी बिना लागत की खेती को हरित क्रांति के नाम पर अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भरता की ओर ढकेला गया. हरित क्रान्ति से उत्पादन बढ़ाने के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों, रासायनिक खादों और कीटनाशकों का जमकर हमारी खेती में प्रयोग कराया गया. धीरे-धीरे हमारे परम्परागत बीज, जो हमारी जलवायु के अनुकूल थे, जिनके अन्दर रोग प्रतिरोधक क्षमता थी, बहुतायत में विलुप्त हो गए. हमारी खेती को अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का गुलाम बना दिया.

भारत के परम्परागत बीजों का संरक्षण नहीं

भारत में अपनी बिना लागत या कम लागत की खेती से भी हरित क्रांति को सफल कर देने के लिए गंभीर शोध में लगे कृषि वैज्ञानिकों को किनारे कर दिया गया. इनमें से एक मशहूर कृषि वैज्ञानिक डा. रिछारिया भी थे, जिन्होंने भारत के किसानों द्वारा हजारों वर्षों से अलग-अलग जलवायु में संजोए गए परम्परागत धान के बीज की तीन हजार से ज्यादा प्रजातियों को विकसित व संरक्षित कर दिया था.

डब्ल्यूटीओ में शामिल होना कृषि संकट को निमंत्रण

भारत की खेती-किसानी पर दूसरे बड़े हमले की नींव 1995 में रखी गई, जब भारत सरकार ने किसानों व देश के लोकतांत्रिक जनमत के व्यापक विरोध के बावजूद विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में शामिल होने का फैसला किया. बाद में भाजपा की अटल बिहारी बाजपेई सरकार ने 1999 की जीत के बाद (डब्ल्यूटीओ)  की शर्तों को जोर-शोर से लागू करना शुरू किया.  

वायदा कारोबार और मात्रात्मक प्रतिबन्ध घातक

डब्ल्यूटीओ के दबाव में कृषि उत्पादों के लिए वायदा कारोबार के दरवाजे खोल दिए गए. खुले व प्रतिस्पर्धात्मक व्यापार के नाम पर कृषि जिंसों के आयात पर लगे मात्रात्मक प्रतिबंधों को हटा दिया गया. महंगी उत्पादन लागत वाले हमारे किसानों को भारी सब्सिडी पा रहे अमेरिका और यूरोप के किसानों के साथ प्रतिस्पर्धा में डाल दिया गया. नतीजा सबके सामने है. इसके बाद ही भारत की खेती पर गंभीर संकट आ गया. बाजार में भाव न मिलने के कारण 2004 के बाद ही किसानों को अपना आलू, टमाटर, प्याज सड़क पर फेंकने और गन्ना जलाने को मजबूर होना पड़ा.

आवारा पशुओं के आतंक से बंजर होती खेती

खेती में आधारभूत ढांचे के विकास के लिए सार्वजनिक निवेश न करना, कृषि क्षेत्र के विस्तार पर कानूनी रोक, चकबंदी न होना, पर्वतीय कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य और उनकी खरीद की गारंटी न होने के कारण पहाड़ में कृषि की पूर्ण उपेक्षा की गयी. महंगी ढुलाई के नाम पर पर्वतीय किसानों के आम, नाशपाती, रीठा जैसे कई उत्पादों की खरीद बंद हो गई. जंगली जानवरों से खेती की सुरक्षा न होने के कारण पहाड़ के किसान बड़े पैमाने पर खेती करना छोड़ रहे हैं. मैदानों में भी आवारा जानवरों के आतंक से किसानों को अपनी फसलों को बचाना मुश्किल हो रहा है. सिर्फ उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में 2,75,000 तथा पंजाब में 3,00,000 आवारा पशु हैं.

गोरक्षा कानून-कृषि अर्थव्यवस्था पर एक और हमला

खेती की हमारी कुल आय में 27 प्रतिशत हिस्सा पशुपालन से आता है. भारत में उत्पादित कुल दूध का 70 प्रतिशत उत्पादन मध्यम किसान, गरीब किसान, भूमिहीन और खेत मजदूर करता है. गोरक्षा कानून के जरिए गायों की खरीद-बिक्री पर लगी रोक से ग्रामीण ग़रीबों और छोटे मझोले किसानों के सहायक रोजगार दुग्ध उत्पादन पर भी हमला हुआ है. इससे घाटे की खेती से जूझ रहा किसान कर्ज में डूबता गया और किसानों की आत्महत्या भारत में एक आम परिघटना बन गयी.

भूमिहीनों के लिए आवास भूमि का आवंटन

भूमिहीनों व खेत मजदूरों, जिनकी आबादी ग्रामीण समाज में 45 प्रतिशत है, के लिए आवास की भूमि की व्यवस्था करना एक महत्वपूर्ण मांग है. पर भारत में अभी उन्हें सामंतों और कॉरपोरेट के लिए जमीनें खाली कराने के उद्देश्य से अब तक बसे स्थानों से भी उजाड़ा जा रहा है. बिहार सरकार का लाखों भूमिहीन-खेत मजदूरों को उनकी बस्तियों से बेदखल करने का ताजा आदेश इसका जीता जागता सबूत है.

कृषि संकट के खिलाफ एकताबद्ध किसान आन्दोलन

इस कृषि संकट के कारण निरंतर होती किसान आत्महत्याओं और किसान आंदोलनों के चौतरफा दमन के दौर में भारत के किसान संगठन पहली बार देश व्यापी समन्वय बना कर साझा आन्दोलन की दिशा में एकताबद्ध हुए हैं. इसमें प्रमुख है 208 किसान संगठनों की अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति. इसमें वामपंथी किसान संगठनों के साथ ही सुधारवादी और कुलकों, पूंजीवादी फार्मरों के संगठन भी शामिल हैं. कर्ज मुक्ति और कृषि उपज की लागत में 50 प्रतिशत मुनाफ़ा सहित न्यूनतम समर्थन मूल्य इस साझा किसान आन्दोलन के प्रमुख दो एजेंडे हैं.

सांप्रदायिक  राजनीति के खिलाफ किसानों की एकजुटता

गौ-रक्षा के नाम पर पूरे देश में सत्ता के संरक्षण में संगठित गुंडा गिरोहों द्वारा गौ-पालक पहलू खान सहित कई मुस्लिम किसानों की भीड़ हत्या कर दी गई. सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति को परवान चढ़ाने के लिए इससे पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगे कराए गए. इन दंगों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर नरेंद्र मोदी 2014 का चुनाव जीते और प्रधानमंत्री बने. इस दंगे के बाद टूटी किसानों-ग्रामीण मजदूरों की एकता ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आन्दोलन को भारी नुकसान पहुंचाया. पर अब वहां किसानों ने इस सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति के खिलाफ एकजुट होकर इसे विफल करना शुरू कर दिया है. पिछले साल कैराना में हुए लोकसभा के उपचुनाव को सांप्रदायिक रंग देने के लिए भाजपा के ‘जिन्ना’ मुद्दे के खिलाफ किसानों ने ‘गन्ना’ को बुलंद किया और विपक्ष की मुस्लिम महिला प्रत्याशी को जीता कर भाजपा को करारा जवाब दिया. पिछले साल के अंत में गौकसी के नाम पर फिर बुलंद शहर में उपद्रव के बाद एक पुलिस अधिकारी की हत्या कर संघ परिवार द्वारा बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगा कराने की साजिशों को किसान-मजदूरों ने अपनी एकता के बल पर विफल कर दिया.

भारत के किसान आंदोलन की दो धाराएं

भारत के किसान आन्दोलन की दो धाराएं आधुनिक पूंजीवादी फार्मर और गरीब व मध्यम किसान आज देश की खेती-किसानी को बचाने के लिए एक मंच पर आ गए हैं. एक दौर था जब भारत के कुलकों और आधुनिक पूंजीवादी फार्मरों का प्रतिनिधित्व करने वाले किसान नेता शरद जोशी, भूपेन्द्र सिंह मान और बलबीर सिंह राजोवाल ने भारत में खुली अर्थव्यवस्था और डव्ल्यूटीओ में शामिल होने को भारत के किसानों के लिए हितकारी बताया था. हमने तब इस कदम को भारत की खेती-किसानी की तबाही और गुलामी का रास्ता बताया था. आज भी पूजीवादी फार्मरों के संगठन किसानों की कर्ज मुक्ति और फसलों की लागत का डेढ़ गुना दाम को ही इस संकट के समाधान के रूप में पेश कर रहे हैं. भारत के वर्तमान कृषि संकट का समाधान सिर्फ कर्ज मुक्ति और लागत का डेढ़ गुना दाम ही नहीं है. यह तो तात्कालिक राहत की मांगें हैं. भारत की खेती-किसानी से जुड़े इन वैचारिक सवालों का अध्ययन करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आज भी भारत के ग्रामीण समाज की बहुसंख्या सीमांत किसानों, आदिवासियों, बटाईदारों, मछुआरों, भूमिहीनों, खेत मजदूरों और ग्रामीण दस्तकारों के सवालों को वर्तमान संयुक्त किसान आन्दोलन के एजेंडे में लाने के लिए हमें हर स्तर पर जूझना पड़ रहा है.

भारत के वर्तमान कृषि संकट के समाधान का रास्ता

कृषि के साथ ग्रामीण समाज के लोकतंत्रीकरण का सवाल हमारे लिए महत्वपूर्ण है. क्योंकि भारत में ग्रामीण समाज में अब भी बची सामंती बेड़ियां बड़ी पूंजी के साथ गठजोड़ में बंधी हैं. खेती के कॉरपोरेटीकरण की राह को बदल कर छोटी व मंझोली खेती को लाभप्रद बनाना होगा. अब तक किसानों पर लदे हर तरह के (बैंक, सहकारी समिति,साहूकारी) कर्ज से मुक्ति और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप फसलों की सम्पूर्ण लागत में 50 प्रतिशत मुनाफ़ा जोड़कर समर्थन मूल्य देना होगा. बाजार में किसान के मोलभाव की ताकत को बढ़ाने के लिए इस मूल्य पर हर कृषि उत्पाद की सरकारी खरीद सुनिश्चित करने के लिए देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत तथा और भी विस्तारित करना होगा. खाद्य सुरक्षा की गारंटी के लिए कृषि भूमि के संरक्षण का कानून बनाना होगा. बटाईदार किसानों को किसान का दर्जा देने के लिए कानून लाना होगा. कृषि में लागत कम करने के लिए बीज, कीटनाशक, उर्वरक और कृषि यंत्रों की कीमतों के जरिये किसानों की भारी कॉरपोरेट लूट को नियंत्रित करना होगा. वर्तमान कृषि संकट से बाहर निकलने के लिए देश की खेती-किसानी की तबाही के लिए जिम्मेदार डब्ल्यूटीओ की शर्तों से बाहर निकलना होगा, अपने परम्परागत बीजों को खोजने, संजोने और विकसित करने तथा अपनी परम्परागत जैविक खेती को पुनर्जीवित व परिष्कृत करने पर अपने वैज्ञानिकों व शोध संस्थानों को लगाना होगा. ताकि हम साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकड़जाल से अपनी खेती व किसानी को बाहर निकाल सकें. कृषि जिंसों के आयात पर मात्रात्मक प्रतिबन्ध लगाकर अपने किसानों को संरक्षण देना और कृषि उत्पादों को वायदा कारोबार से बाहर निकालना होगा.