एआईसीसीटीयू (ऐक्टू) एवं ऑल इंडिया म्युनिसिपल वर्कर्स फेडरेशन (एआईएमडब्लूएफ) के आहृन पर राष्ट्रीय कन्वेंशन

16 नवंबर, 2018, जंतर मंतर, नई दिल्ली
(सुबह 11 - 3 बजे तक)

देश की सीवेज प्रणाली ने हजारों मजदूरों की जान ले ली है. विडंबना यह है कि जब से प्रधानमंत्री मोदी की सबसे आडंबरपूर्ण योजना ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की 2014 से शुरूआत हुई है, सैकड़ों सफाई मजदूर सीवरों व गटरों की भेंट चढ़ चुके हैं. ‘‘सफाई कर्मचारी आंदोलन’ के सर्वे के अनुसार देश में हर तीसरे दिन एक सफाई मजदूर मारा जाता है. खुद सरकारी आंकड़ा कहता है कि अकेले 2017 में सीवरों की सफाई में 300 से अधिक सफाई कर्मी मारे गये. देश की राजधानी दिल्ली में इस वर्ष सितंबर-अक्टूबर के बीच इस काम में 7 नौजवान सफाई मजदूर मारे गये. दिल्ली के तीन निगमों (जो भाजपा के अधीन हैं) के आंकड़े बताते हैं कि यहां पिछले पांच वर्षों में 2,403 सफाई मजदूर 60 साल के होने से पहले ही मर गये.

लेकिन मोदी का ‘स्वच्छ भारत अभियान’ इन मौतों और सफाई मजदूरों की इस दुर्दशा के बारे में एक शब्द नहीं कहता है. बल्कि, सफाई मजदूरों की इन मौतों और दुर्दशा की खिल्ली उड़ाते हुये मोदी जी ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को और चमकदार बनाते हुये ‘स्वच्छता ही सेवा अभियान’ का नया नाम देते हैं.

असल में तो ‘स्वच्छ भारत अभियान’ सिर्फ दिखावा, एक और जुमला निकला जिसे चकाचौंध के साथ पेश किया जा रहा है और असलियत में यह है जमीनी मुद्दों से कोसों परे है. शौचालयों का निर्माण करना सिर्फ लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने की ही बात नहीं है बल्कि यह सीधे तौर पर समाज में जाति आधारित भेदभाव और आर्थिक विषमता से जुड़ा हुआ मामला है. इन दो मूल मुद्दों पर बात किए बिना, ऐसा भारत बनाया ही नहीं जा सकता जो स्वच्छ हो. स्वच्छ भारत अभियान ने सिर्फ हाथ से मैला ढोने की प्रथा को संस्थाबद्ध करने का काम किया है. लेकिन, ‘व्यवहारगत बदलाव’ की जो बात की जा रही है वो बिल्कुल सफेद झूठ है. और इसकी जड़ लोगों के व्यवहार में नहीं बल्कि उनके सामाजिक-आर्थिक कारकों में स्थित है. बदकिस्मति से पिछले कुछ समय से यही एक सामान्य चलन बन गया है कि, पीड़ितों पर ही दोष मढ़ दिया जाए और असली अपराधियों को बरी कर दिया जाए. ठीक यही किसानों की आत्महत्या या बलात्कार के मामलों या साम्प्रदायिक नफरत फैलाने के अपराधों के मामलों में किया जा रहा है.

स्वच्छ भारत अभियान के तहत धमकी और हमले

स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर लोगों से उनके जीने का अधिकार और निजता के अधिकार भी छीने जा रहे हैं. स्वच्छ भारत अभियान के गुर्गे खुले में शौच जाने वालों को शर्मिंदा करने के लिए सीटियां बजाते हैं, उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशन नहीं दिया जाता, मनरेगा के तहत काम नहीं दिया जाता और आईपीसी की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत गिरफ्तार तक किया जाता है. राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में सरकारी अधिकारियों ने स्थानीय जनता की लंबे समय से चली आ रही शौचालय निर्माण की मांग तो पूरी नहीं की, बल्कि खुले में शौच करने वाली महिलाओं के साथ आपत्तिजनक बर्ताव किया और अपनी धौंस-धमकी चलाने की कोशिश की. और ऐक्टू के निर्माण मजदूर नेता जफर हुसैन द्वारा विरोध करने पर इन्हीं ताकतों द्वारा उन्हें जान से मार दिया गया. छत्तीसगढ़ के बलौद जिले में, लोगों को खुले में शौच करने से रोकने के लिए सीसीटीवी कैमरों का इस्तेमाल किया जा रहा है; खुले में शौच जाने वालों पर ग्राम पंचायत ने 500 रु. का जुर्माना लगा दिया. बंगाल के नदिया जिले के कुछ गांवों में, एक ‘शर्म की दीवार’ बनाई गई है. तमिलनाडु के तुतिकोरिन के एक गांव में जिन लोगों के घर में शौचालय नहीं है उन्हें मनरेगा में काम नहीं दिया जाता. हरियाणा पंचायती राज संशोधन कानून 2015 उन लोगों को चुनाव लड़ने से निषेध कर देता है जिनके घर में शौचालय नहीं है. पुदुचेरी की उप राज्यपाल, किरन बेदी ने एक महीने में शौचालय बनाने का अल्टीमेटम दे दिया, कि उसके बाद जिसके घर में शौचालय नहीं होगा उसे सरकारी योजनाओं जैसे पीडीएस का राशन आदि नहीं मिलेगा, और इस तरह की घटनाओं की सूची अंतहीन है. तो, स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर, सरकार सिर्फ मूल मुद्दों पर बात किए बिना शौचालय बनाने की ही बात नहीं कर रही है, बल्कि वो डर, धमकी और हिंसा - जिसमें हत्या भी शामिल है - का सहारा ले कर इस अभियान को थोप रही है.

भारत में कोई भी स्वच्छता अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वो छुआछूत के मुद्दे पर बात ना करे. स्वच्छता और साफ-सफाई के मामले में किसी भी तरह का प्रभावशाली कदम तभी उठाया जा सकता है जब हिंदू जाति व्यवस्था की सबसे बड़ी पहचान यानी अशुद्ध और पवित्र के सबसे प्रतिगामी विचार के खिलाफ संघर्ष चलाया जाए.

स्वच्छ भारत अभियान का सबसे पहला और मूलभूत काम यह होना चाहिए था कि सफाई के काम को जाति से अलग किया जाए. लेकिन जानबूझकर ऐसा नहीं किया गया.

जाति और सफाई कर्म का यह अलगाव तब ही संभव हो सकता है जब एक तरफ तो साफ-सफाई के काम का आधुनिकीकरण किया जाए, इसमें मशीने लगाई जाएं और दूसरी तरफ पारंपरिक तौर पर साफ-सफाई के काम में हमेशा से लगी जातियों का उत्थान किया जाए. अब इसमें पहले काम के लिए तो मैला ढोने के कामों में मशीनों और नई तकनीकों को लगाया जा सकता है जबकि दूसरे काम के लिए ऐसे कामों में शामिल जातियों के लिए सामाजिक सम्मान सुनिश्चित करना जरूरी है. मैला ढोने के काम में लगे लोगों की बेहतरी उनके रोजगार की सुरक्षा, वेतन की सुरक्षा और अन्य सामाजिक सुरक्षाओं के साथ-साथ उनके सामाजिक सम्मान के साथ ही संभव हो सकती है.

प्रतिरोध के संघर्षों की लहर

इन मजदूरों का कितना भी भयानक दमन हो रहा हो, और इतिहास में ऐसा हुआ भी है, पर यह भी सही है कि अपने हक-हकूक के लिए इन्होंने लड़ाईयां भी लड़ी हैं. सच कहें तो इन संघर्षों में इन मजदूरों की कई मांगों में एकरूपता एवं निरंतरता दिखाई देती है.

कर्नाटक में, यूनियन ने ठेका प्रथा की व्यवस्था को खत्म करने का मुद्दा उठाया और राज्य ने अंततः यह मांग मान ली और इस प्रक्रिया में राज्य में सड़क सफाई के काम में लगे सभी ठेकेदारों को हटा दिया गया और ठेका कर्मियों को सीधे स्थानीय निकाय प्रशासन द्वारा भुगतान किया जाने लगा. गुलबर्गा में, साल 2006 में मजदूरों ने समान काम के लिए समान वेतन की मांग पर जुझारू संघर्षों का नेतृत्व किया. उन्होंने दो हफ्ते से ज्यादा काम बंद रखा, जेल गए, लेकिन अंत में उनकी मांगें मानी गईं.
इसी तरह बिहार में भी दर्जनों शहरी स्थानीय निकायों में यूनियनों ने मजदूरों को संगठित किया और उनके लिए बेहतर वेतन, श्रम के सम्मान और कार्य की मानवीय परिस्थितियों की मांगें उठाईं.

पुणे नगर निगम में, यूनियन आजादी से पहले से ही सक्रिय रही है, और इसने मजदूरों की कार्यस्थितियों और वेतन के मामले में कई शानदार जीतें हासिल की हैं. यहां यूनियन सफाई एवं निगम कर्मियों को अन्य समाजिक-राजनीतिक गतिविधियों और सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल करने में भी सफल रही है. विभिन्न वैचारिक धाराओं वाली एकमात्र यूनियन होने के बावजूद, यह विभिन्न अन्य निगमों की स्थापित यूनियनों के काम करने के तरीके से अलग काम का तरीका विकसित करने में सफल रही है.

एक दशक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद, अप्रैल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि बृहन्मुम्बई नगर निगम के 1200 ठेका कर्मियों को स्थाई नौकरी दी जाए. दिल्ली में सफाई कर्मी नियमित वेतन भुगतान और ठेका मजूदरों के नियमितिकरण के लिए लगातार संघर्ष चला रहे हैं.

मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ सफाई कर्मचारी आंदोलन की कानूनी लड़ाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए राज्यों में मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने और उन सफाई कर्मियों के पुनर्वास का आदेश दिया है.

ऊना आंदोलन ने घोषणा की कि ‘दलित जानवरों की लाशों को नहीं उठाएंगे’ तथा सफाई कर्मियों और दलितों के लिए 5 एकड़ जमीन की मांग की.

ऐसे कितने ही प्रतिरोध प्रदर्शन देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे हैं, जिनमें बेहतर वेतन, बेहतर कार्यस्थितियों, नियमित रोजगार आदि की मांगें उठ रही हैं.

लेकिन आज के संदर्भ में इन संघर्षों को, खासतौर पर सम्मान के सवाल को, अन्य पेशे अपनाने के अधिकार के सवाल को हर स्तर तक बुलंद करने की जरूरत है. जब तक दलितों व अन्य शोषित समुदायों की पहुंच अन्य नौकरियों तक नहीं होगी इन कामों पर जाति की पकड़ ढ़ीली नहीं होगी, और उनके जीवन से जाति संबंधी अपमान की पकड़ दूर नहीं होगी. स्वतंत्रता और समानता के संवैधानिक लक्ष्य को पूरा करने के लिए सफाई के काम में शामिल लोगों का सम्मान ही नहीं बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनमें से जो इस काम से अलग कोई और पेशा अपनाना चाहें उनके लिए ऐसा करने के पूरे अवसर उपलब्ध हों.

अपने सम्मान के लिए कड़े संघर्ष के बावजूद सफाई मजदूरों को इस देश की स्वच्छता की व्यवस्था में परिवर्तन के लिहाज से बहुत ही कम सफलता हासिल हुई है. हालांकि, वेतन, नियमितिकरण, सामाजिक सुरक्षा लाभ आदि के लिए इन्हांने बहुत ही बहादुराना संघर्ष छेड़े हैं, जिनमें इन्हें सफलता भी हासिल हुई है.

लेकिन, साफ है कि मोदी सरकार इनमें से किसी भी मुद्दे पर बात करने या काम करने को तैयार नहीं है, वो सिर्फ अपने लाखों शौचलायों को बनाने के लक्ष्य के पीछे भाग रही है. कई ऐसे भी अनुभव सामने आए हैं जिनमें प्रभावशाली जातियों ने दलितों और समाज के अन्य उत्पीड़ित हिस्सों के मुहल्लों में शौचालयों का निर्माण होने से रोका है और उनके रखरखाव में भी अड़ंगा लगाया है. खुद मोदी के अपने लोकसभा क्षेत्र में यही हालत है.

मैला ढोने की प्रथा के खात्मे के उद्देश्य के लिए सफाई कर्मियों के सतत एवं जोशीले ट्रेड यूनियन आंदोलन, इनकी मजबूत राजनीतिक दावेदारी और मौजूदा मनुवादी-फासीवादी व्यवस्था के खिलाफ एक ताकतवर राजनीतिक आंदोलन खड़ा करने की जरूरत है. आने वाले चुनाव में सफाई कर्मियों के सवालों को एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनाना होगा.

मांगे

मैला ढोने की प्रथा खत्म करो!
सफाई के काम में लगे मजदूरों का नियमितिकरण करो!
ठेका प्रथा को तत्काल खत्म करो और सफाई कर्मियों के लिये सीधे भुगतान की व्यवस्था करो!
पूरे देश में हर स्थानीय निकाय में 1 : 300 के अनुपात में कर्मचारियों को नियोजित करो!
सफाई की गतिविधयों में शामिल हर कर्मचारी को 26,000रु. न्यूनतम वेतन दो!
समान काम के लिए समान वेतन सुनिश्चित करो!
सभी सफाई कर्मियों के लिए ईएसआई, पीएफ, ग्रेच्युटी, पेंशन आदि लाभों का सुनिश्चित करो!
सभी सफाई कर्मियों के लिए मुफ्त आवास मुहैया करवाओ!
सभी सफाई कर्मियों को 5 एकड़ जमीन वितरित करो!
सफाई कर्मियों के लिए कार्यदिवस को घटाकर प्रतिदिन 6 घंटे करो!
सार्वजनिक स्थानों जैसे सार्वजनिक कुओं, पार्कों, तालाबों, और मंदिरों को इनके लिये बिना किसी भेदभाव के खोलो.
हर स्तर पर यौन शोषण की रोकथाम कमेटी की स्थापना करो!
सफाई के कामों, खासकर मैला ढोने के कामों, में आुधनिकीकरण और पूर्ण मशीनीकरण की शुरुआत करो!
कार्यस्थल पर पेयजल और शौचालय की व्यवस्था करो!

नारे

ऽ    मैन्युअल स्केवेंजिंग खत्म करो
ऽ    दलितों की मुक्ति और जातिगत भेदभाव का खात्मा करो
ऽ    सफाई के काम में शामिल दलित समुदाय के साथ जुड़े सामाजिक कलंक का खात्मा करो
ऽ    दलित समुदाय की नई पीढ़ी को सफाई के इतर किसी और पेशे में रोजगार दो
ऽ    काम की जगह पर यौन शोषण बंद करो
ऽ    मनु स्मृति मुर्दाबाद
ऽ    ब्राहम्णवाद और संघ परिवार मुर्दाबाद

ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियनस् (ऐक्टू)

ऑल इंडिया म्युनिसिपल वर्कर्स फेडरेशन (एआईएमडब्लूएफ)